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तब की कहानी जब अक्षय तृतीया 'अख्ती' कहलाती थी

इस दिन घर-घर मंडप गड़ता है. तरबूज, भीगे चने और शर्बत की दावत होती है.

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jhaइरा झा वरिष्ठ पत्रकार हैं. नवभारत और हिंदुस्तान के लिए काम कर चुकी हैं. हाल मुकाम जगदलपुर है. वहां से सेपिया टोन में अपने बचपन की याद लिख भेजी हैं, 'अख्ती' के रोज़ की. पढ़िए और गुज़रे ज़माने को याद कीजिए.


'नानी ये पन्नी रख लो ना. ये चमकी भी लो.'

वह किसी काम में लगी थीं. मेरी तरफ पलटीं और पन्नी को मुस्कुराकर वहां रखी टोकरी में डाल दिया. 'ठीक है, याद रहहि मोला', वह अपने ठेठ छत्तीसगढ़ी अंदाज़ में बोलीं. मोहल्ले ही नहीं बल्कि शहर में रहने वाले उनके सभी परिचित बच्चों का यही नियम था. वो मोहल्ले के दूसरे छोर से भी नानी को सिगरेट और चॉकलेट की चमकीली पन्नियां, चमकते सलमा-सितारे, लेस वगैरह देने पहुंचते रहते. नानी दर्जी के यहां की कतरनें वगैरह भी सहेजकर रख लेती. हर सुंदर दिखने वाली फालतू चीज़ का उनके भंडार में स्वागत था. बच्चे उन्हें चाची, बुआ और मौसी चाहे कुछ भी पुकारें पर उन सभी के लिए उनकी ममता में रत्तीभर भी अंतर न दिखता. नानी कबाड़ी नहीं थीं. वह गुड़ियों की जादूगर थीं. वो इन अबाड़-कबाड़ चीज़ों से ऐसा सुंदर गुड्डे-गुड़िया का जोड़ा बनातीं कि बच्चे गदगद हो जाते. हर बरस सौ-डेढ़ सौ जोड़े बनाती थीं वो. puppets_305_061416013405 गर्मी की छुट्टियों के आस-पास उनके घर पर बच्चों की आवाजाही लगी रहती. कुछ बच्चे आश्वस्त होना चाहते थे कि उनकी दी हुई मां की साड़ी की कतरन का इस्तेमाल उनकी गुड़िया में हुआ या नहीं. पूछते थे, 'पन्नी काम आई?', 'कहीं किसी दूसरी गुड़िया में तो नहीं लग गई?' नानी बच्चों की चहक से चहकती रहतीं. उनके चेहरे पर न कभी झल्लाहट दिखती न शिकन. बड़ी सी सिंदूर की बिंदी वाला उनका चेहरा हमेशा मुस्कुराता रहता. उनकी यह गुड़िया संबंधी कवायद करीब छह महीने चलती रहती. गुड़िया के लिए पहले वो लकड़ी के खांचे बनातीं. फिर उसमें गोबर-मिट्टी चढ़ाकर कई दिन धूप में सुखातीं और फिर उस पर लेप चढ़ाकर फाइनल टच देतीं. इतना हो जाने पर बारी आती गुड्डे-गुड़िया के श्रृंगार और कपड़ों की. हर बच्चे की पन्नी और फरमाइश याद करना आसान नहीं था पर नानी हर एक का खयाल रखतीं.
'...तोर गुड़िया में ये चमकी नहीं लगाहूं, शिखा दिए है मोला', '...और टप्पू कुछु नही बोलिस तो एखर ए मतलब तो नई है ना कि ओखर गुडिया नहीं चमकही...' नानी हर बच्चे का नाम लेती जातीं और उस हिसाब से उसके मनमुताबिक गुड़िया की सजावट चलती रहती. 'फलां बोलिस है नथ पहनाए बर...' उनके बोली में ऐसी मिठास थी जो अब दुर्लभ है.
नानी ये सब 'अख्ती' की तैयारी के लिए करतीं. देस में अक्षय तृतिया को अख्ती कहते हैं. अक्षय तृतीया को अब लोग स्वर्ण खरीद के त्योहार के तौर पर प्रचारित किए हुए हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ में अक्षय तृतिया गुड़िया-गुडडा के ब्याह का पर्व है. घर की नन्हीं लड़कियां इनका ब्याह रचाती हैं. घर-घर मंडप गड़ता है. तरबूज, भीगे चने और शर्बत की दावत होती है. घर और मोहल्ले के बुज़ुर्ग बाकायदे गुड्डे-गुड़िया को आशीर्वाद देते हैं और रूपए-पैसे का दहेज भी डलता है. दहेज डलते ही बच्चों में फुसफुसाहट के साथ हिस्सा-बंटवारा भी शुरू हो जाता है. और असल शादी की ही तरह कई-कई दिनों से तैयारी चलती है. 'भाई को पंडित बना लें?', 'छुटकी की पुरानी प्रैम में बारात निकाल लेंगे', 'गीता के घर तक की परिक्रमा हो जाएगी' तीन दिनों के त्यौहार में कई दिन की मस्ती होती. नानी घर-घर जातीं. दहेज डालकर आश्वासन भी देतीं, 'अगले साल और अच्छा पन्नी जुटाबे, जादा अच्छा बनाहूं तोर बर.' हर बच्चे से वही बात. पर हरेक को अलग-अलग खुशी दे जाती थीं वह. An Indian girl from the western Indian state of Gujarat looks through the puppets at a stall during a handicraft fair in the eastern Indian city of Kolkata November 28, 2005. REUTERS/Parth Sanyal लगता नहीं कि नानी जरा भी पढ़ी लिखी होंगी. पर गुणों की खान थीं वो. जरा भी खाली न बैठतीं. कभी अखबार गलाकर उसे कोई आकार देती दिखतीं तो कभी उन पर रंग चढ़ातीं. कुछ नहीं तो उनके हाथ में क्रोशिया होता. कोई मेजपोश या थैला ही गढ़ रही होतीं. 'देख पुराना पैसा देखे हैं तैं छेद वाला ओखर थैली बनावत हूं.' सचमुच उनके हाथ में कमाल का हुनर था. अब सिक्कों के लिए बनी थैली तो कल्पना से परे है. नानी के हाथ का बना जितना आंखों को सुकून देता, उतना ही ज़बान को भी. सत्तू, बड़ी, पापड़, जलेबी, गुलाब-जामुन, बालूशाही, मठरी, मूंग की दाल, नमकीन - सब बनाती थीं. 'बता ठलहा बैठ के का करहूं.' वो कातर नजरों से मेरी मां से पूछतीं. समाज की हर शादी में उनकी सक्रिय मौजूदगी से बच्चे यही मानते थे कि वह हमारी कोई करीबी रिश्तेदार हैं. पर ऐसा था नहीं. बहुत बाद में समझ आया कि वह हमारी सजातीय भी नहीं थीं. बस समाज के बीच बसाहट ने उन्हें हमारा बना दिया था. उनके परिवार में तो गुड़िया का शौक रखने की उम्र वाले बच्चे भी नहीं थे. इस बीच सुनने में आया कि उनके पति का कहीं तबादला हो गया है. नानी के जाने की खबर से समाज सन्न था. बच्चे मुंह लटकाए घूम रहे थे. इतना बड़ा सहारा जो थीं वो. घर पर ताला लटका हो तो नानी का घर, पापा से डर लगे तो नानी का आंचल. नानी न हुर्इं हर मर्ज का इलाज हो गईं. खैर, नानी के जाते ही मोहल्ले की रौनक जाती रही. अब साल भर अख्ती की तैयारी का जज्बा भी न रहा. धीरे-धीरे उनकी याद धुंधलाने लगी. कि अचानक मां की फोन पर बातचीत से कान खड़े हुए- हां बीमार तो थीं. पर 'चकरडंड' जुटी रहती थीं. काम से मना करोे तो...जानती तो हो. मां के गले की रूंधती आवाज मुझे साफ-साफ सुन और समझ में आ रही थी. समझ गई कि नानी से अब मिलने नहीं जा सकूंगी. अब के बच्चे तो जान भी नहीं सकेंगे कि हाड़-मांस की एक नानी थीं और यह भी कि अख्ती सोना खरीद का नहीं बल्कि बच्चों के मनोरंजन और मेलजोल का त्योहार है जिसके लिए नानी साल-भर गुड़िया बनाने में जुटी रहती थीं.
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