घर की ता'मीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलाक़ात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है यक़ीं कुछ कम है
अब जिधर देखिए लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तिरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात कि पहली सी नहीं कुछ कम है
16 जून 1936 में उत्तर प्रदेश के बरेली जिले के अलोनी में कुंवर अख़लाक़ मोहम्मद खान की पैदाइश हुई. इनके अब्बू अबू मोहम्मद खान पुलिस महकमे में मुलाज़िम थे. 1948 में इनका दाखिला अलीगढ़ के सिटी कॉलेज में हुआ. अख़लाक़ मोहम्मद खान को हॉकी खेलने का बहुत शौक था, वो अपने टीम का कप्तान भी था. हॉकी का शौक रखने वाला ये नौजवान अख़लाक़ मोहम्मद खान आगे चलकर उर्दू शायरी में अपना नाम रौशन करेगा इस बात का गुमान किसी को नहीं था. अगरचे अबू चाहते थे कि अख़लाक़ मोहम्मद खान पुलिस महकमें में ही मुलाज़िम हो. इसी अख़लाक़ मोहम्मद खान को दुनिया शहरयार के नाम से जानती है. वही शहरयार जिन्हें बहुत लोग डॉक्टर शहरयार के नाम से जानते हैं तो बहुत लोग उमराव जान फिल्म के ग़ज़लों के शायर के रूप में याद करते हैं. अलीगढ़ में ही शहरयार की मुलाक़ात खलील उर रहमान आज़मी से हुई. शहरयार खलील उर रहमान आज़मी से बहुत मुत्तसिर हुए और उनका रुझान शायरी की तरफ हुआ. शुरू में वो कुंवर अख़लाक़ मोहम्मद खान नाम से ही लिखते और छपते रहे लेकिन दोस्तों ने कहा ये नाम शायराना नहीं है लिहाजा वो कुंवर नाम से लिखने लगे. खलील उर रहमान आज़मी के कहने पर उन्होंने अपनी तखल्लुस शहरयार रखा. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से बीए किया और साइकोलॉजी में एमए किया. दोबारा यहीं से उर्दू से एमए किया. 1966 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में बहैसियत लेक्चरर जॉइन करने से पहले उनका पहला शे'री मजमुआ "इस्म-ए-आज़म" एक साल पहले 1965 में प्रकाशित हो चुकी थी. "इस्म-ए-आज़म" के प्रकाशन से उनको अदबी हलकों में बहुत शोहरत मिली. 1969 में उनका दूसरा शे'री मजमुआ 'सातवां दर', तीसरा 'हिज्रे के मौसम' 1978 में और चौथा 1985 में 'ख्याल का दरवाजा बंद है' और पांचवां 1995 में 'नींद की किरचें' प्रकाशित हुआ. 1987 में उनके शे'री मजमुआ 'ख़्वाब के दर बंद हैं' कि लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार से नवाज़ा गया. 2008 में उनको ज्ञानपीठ अवार्ड से नवाजा गया. मालूम हो कि वो उर्दू के चौथे अदीब हैं जिन्हें ज्ञानपीठ अवार्ड दिया गया. इनसे पहले फ़िराक़ गोरखपुरी, अली सरदार जाफ़री और कुर्तुलएन हैदर को दिया गया था. इसके अलावा शहरयार को 'फ़िराक़ सम्मान' और बहादुर शाह जफर अवार्ड से भी नवाजा जा चुका है. तरक्कीपसन्द शायरों ने नज़्म के सिंफ को ज्यादा तरजीह दी कैफ़ी, अली सरदार जाफ़री, फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की मकबूलियत नज़्म की वजह से ज्यादा है. तरक्कीपसंदों की अपनी भाषा थी मसलन मजदूर, महकूम, मेहनतकश, गरीबी, किसान, सरमायेदारी जैसे लफ्ज़ इनके यहां आम थे. वैसे ही जदीद शायरों ने ग़ज़ल के सिंफ को तरजीह दी और उनकी भी अपनी भाषा है. इनके यहां शाम, रात, अंधेरा, सूना रास्ता जैसे लफ्ज़ खूब इस्तेमाल हुए हैं. बकौल शहरयार ही-
सियाह रात नहीं लेती नाम ढलने का
यही तो वक़्त है सूरज तिरे निकलने का
यहां से गुज़रे हैं गुज़़रेंगे हम से अहल-ए-वफ़ा
ये रास्ता नहीं परछाइयों के चलने का
जादीद शायरों के यहां समाजी अहसासात के बजाए ज़ाती अहसासात हावी है. शायरी में पहली बार ज़ातीय तजुर्बे को इस कदर नुमाया हुए. शायर को हमेशा कोई न कोई कमी उसे सालती रहती है इसीलिए कभी कहता है "कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता/ कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता''. तन्हाई और उदासी तो मीरो ग़ालिब के यहां भी है लेकिन उनके यहां ये अकेलापन समाजी हो जाता है ज़ाती नहीं. जैसे कबीर के यहां फ़िक्र समाजी है न कि ज़ाती. पर जदीदियत के शायरों में ये तन्हाई और उदासी एकदम ज़ाती हो जाती है. बकौल शहरयार-
इस सफ़र में बस मिरी तन्हाई मेरे साथ थी
हर क़दम क्यों ख़ौफ़ मुझ को भीड़ में खोने का था
शहरयार ने फिल्मों के लिए गाने भी लिखे. 1978 में उन्होंने 'गमन' फिल्म के लिए दो गाने लिखे. दोनों गाने बहुत मशहूर हुए.
सीने में जलन आंखों में तूफ़ान सा क्यों है
इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है
दिल है तो धड़कने का बहाना कोई ढूंढे
पत्थर की तरह बे-हिस ओ बे-जान सा क्यों है
तन्हाई की ये कौन सी मंज़िल है रफ़ीक़ो
ता-हद्द-ए-नज़र एक बयाबान सा क्यों है
हम ने तो कोई बात निकाली नहीं ग़म की
वो ज़ूद-पशेमान पशेमान सा क्यों है
क्या कोई नई बात नज़र आती है हम में
आईना हमें देख के हैरान सा क्यों है
(गमन फिल्म 1978)
बाद में 1981 में जब मुज़फ्फर अली ने ही फिल्म 'उमराव जान' बनाई तो उसमें शहरयार के आठ ग़ज़लों को बतौर गीत इस्तेमाल किया. इससे शहरयार की शोहरत में और और इज़ाफ़ा हुआ. 'उमराव जान' फिल्म के गाने लोगों के ज़ुबान पर चढ़ गए. खासकर ये दो गाने-
इन आंखों की मस्ती के मस्ताने हज़ारों हैं
इन आंखों से वाबस्ता अफ़्साने हज़ारों हैं
इक तुम ही नहीं तन्हा उल्फ़त में मिरी रुस्वा
इस शहर में तुम जैसे दीवाने हज़ारों हैं
इक सिर्फ़ हमीं मय को आंखों से पिलाते हैं
कहने को तो दुनिया में मय-ख़ाने हज़ारों हैं
इस शम-ए-फ़रोज़ां को आंधी से डराते हो
इस शम-ए-फ़रोज़ां के परवाने हज़ारों हैं
और
दिल चीज़ क्या है आप मिरी जान लीजिए
बस एक बार मेरा कहा मान लीजिए
इस अंजुमन में आप को आना है बार बार
दीवार-ओ-दर को ग़ौर से पहचान लीजिए
माना कि दोस्तों को नहीं दोस्ती का पास
लेकिन ये क्या कि ग़ैर का एहसान लीजिए
कहिए तो आसमां को ज़मीं पर उतार लाएं
मुश्किल नहीं है कुछ भी अगर ठान लीजिए
1985 में यश चोपड़ा द्वारा निर्मित और निर्देशित फिल्म 'फासले' के लिए गानें लिखे. 1986 में मुज़फ्फर अली की ही फिल्म 'अंजुमन' के लिए भी गाने लिखे. फ़िल्मी दुनिया में शहरयार एक जाना पहचाना और स्थापित नाम बन चुका लेकिन शहरयार ने फिल्मों के लिए आगे लिखना कबूल नहीं किया.
ज़िंदगी जब भी तिरी बज़्म में लाती है हमें
ये ज़मीं चांद से बेहतर नज़र आती है हमें
शहरयार बहैसियत लेक्चरर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में 1966 में जॉइन किए और 1983 में रीडर और 1987 में प्रोफेसर बनें. यहीं से 1996 में उर्दू विभाग के विभागाध्यक्ष पद से रिटायर हुए. ताज्जुब की बात ये है कि शायरी बदौलत पहचाने जाने वाले शहरयार ने कभी शायरी नहीं पढाई बिल्कि तनक़ीद पढ़ाते रहे थे. शहरयार के यहां सिर्फ और सिर्फ उदासी तन्हाई नहीं है बल्कि सियासी नज़्मों में समाजी फ़िक्र भी नुमाया हुआ है. उन्होंने बड़ी अच्छी नज़्में भी लिखी हैं. उनकी एक बहुत मशहूर नज़्म है, देखें-
माना साहिल दूर बहुत है
माना दरिया है तूफानी
कश्ती पार नहीं होने की
आखिर कोशिश को करनी है
या फिर
जो जहां कदम जमाए रहे
क्या ख़बर कब ज़मीन चलने लगे
तुम्हारे शहर में कुछ भी हुआ नहीं है क्या
कि तुमने चीखों को सचमुच सुना नहीं है क्या
मैं इक ज़माने से हैरान हूं कि हाकिम-ए-शहर
जो हो रहा है उसे देखता नहीं है क्या
13 फ़रवरी 2012 को शहरयार इस दुनिया से रुखसत हुए. ग़ज़ल और नज़्म के सिंफ में उन्होंने खूब लिखा है इसकी बदौलत आने वाली नस्लें उनपर किताबत करती रहेंगी और याद करती रहेंगी.
वीडियो- हिंदी और अंग्रेजी की हजारों कहानियां और नाॅवेल पढ़िए नहीं, सुनिए