कैसी तेरी मत लोका, कैसी तेरी बुध आ
धर्म के ठेकेदारों की नाक में दम कर दिया इस पंजाबी सिंगर ने!
'मेरा की कसूर' गाने के बहाने पंजाब और उसका कास्ट सिस्टम

जिन पंक्तियों के आधार पर FIR हुई है, गाना उसके अलावा भी कई महत्वपूर्ण मुद्दों की तरफ ध्यान खींचता है. पंजाब की जाति व्यवस्था और पॉप कल्चर में उसकी जगह कैसे बदली है, इन सब पर एक नज़र. (तस्वीर: रंजीत बावा के गाने का पोस्टर और उसके लिरिक्स)
भुखेयां लई मुकेयां ते पत्थरां नू दुध आ
(अरे लोगों तुम्हारा दिमाग और तुम्हारी बुद्धि/सोच कैसी है? भूखे लोगों को तुम पत्थर मारते हो और पत्थर की मूरतों को दूध पिलाते हो)ये पंक्तियां उस गाने की हैं, जिसकी वजह से पॉपुलर पंजाबी सिंगर रंजीत बावा पर कई FIR दर्ज करा दी गई हैं. गाने का नाम है मेरा की कसूर (मेरी क्या गलती). इस गाने को लेकर शिकायतें दर्ज कराने वालों का कहना है कि ये उनकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाता है. रंजीत बावा ने माफ़ी मांगकर इस गाने को यूट्यूब से हटा लिया है. लेकिन बाकी ऑनलाइन गानों वाली साइट पर इसे सुना जा सकता है. इसे कम्पोज करने वाले बीर सिंह हैं, जिनका लिखे हुए गाने जैसे साह (लाहौरिये), दाना-पानी (इसी नाम की फिल्म) और ख्वाब काफी पॉपुलर हुए हैं. लेकिन इस गाने में भावनाएं आहत करने वाला ऐसा क्या है?

गाने के बहाने
गाने में रंजीत बावा ने अमीर-गरीब के बीच का भेद दिखाते हुए कई बातों पर सवाल उठाए हैं. अपने गाने में वो कहते हैं,
ओह जे मैं सच बोहतां बोलेया ते मच जाना युध आं
गरीबणे दी शोह माड़ी गौ दा मूत शुध आं
(यानी अगर मैंने सच बोला तो युद्ध हो जाएगा. यहां गरीब की छाया अशुद्ध मानी जाती है और गाय का मूत्र शुद्ध माना जाता है.)ऐसी पंक्तियों को आधार बनाकर ये FIR दर्ज कराई गई हैं. लेकिन इस गाने में अमीर और गरीब के बीच की खाई दिखाते हुए रंजीत कई ऐसी लाइनें भी गाते हैं, जो पंजाब के कास्ट सिस्टम (जाति व्यवस्था) की परेशानी की तरफ इशारा करती हैं. बाबा रविदास का नाम भी आता है इस गाने में. जाति-गोत्र के अनुसार अलग-अलग गुरूद्वारे बनाने की बात कही गई है. हाल में एमेजॉन प्राइम वीडियो पर आई वेब सीरीज 'पाताल लोक' में भी इस मुद्दे का रेफरेंस दिया गया है. पिछले कुछ सालों में पंजाब के आद धर्मी/ रविदासी समाज द्वारा भी कास्ट आइडेंटिटी यानी जातीय पहचान को लेकर की गई बहस ने लोगों का ध्यान खींचा है. वही रविदासी समाज जिसके बाबा रविदास का ज़िक्र रंजीत अपने गाने में करते हैं. आखिर क्या है पंजाब में जातिगत पहचान का मुद्दा? इसे थोड़ा बेहतर तरीके से समझते हैं.
पंजाब- जातिगत पहचान का रिवाइवल
पंजाब देश का एक ऐसा राज्य है, जहां पर पिछड़ी जातियों के लोग पिछले कई सालों से अपनी पहचान के लिए आवाज़ उठा रहे हैं. अपने आर्टिकल कास्ट एंड अनटचेबिलिटी इन रूरल पंजाब (पंजाब के देहाती क्षेत्रों में जाति और अस्पृश्यता) में सुरिंदर एस जोधका लिखते हैं,
पंजाब की अनुसूचित जातियां मुख्यतः दो बड़े हिस्सों में बंटी हुई हैं. एक आद धर्मी- रविदासी और दूसरे बाल्मीकि. रोचक बात ये है कि इन दलित समुदायों में से कई लोग सिख हैं और पंजाब के कई दबंग समूहों के नेता भी सिख हैं. इन दोनों के लिए ही जाति का कोई धार्मिक आधार नहीं है. सिख धर्म को मानने वाले कई लोगों का कहना है कि उनके धर्म में जाति की कोई जगह नहीं. लेकिन गांवों में पहले से चले आ रहे पावर डाइनेमिक्स को बदलना बहुत मुश्किल है, जहां पर इस अर्थव्यवस्था के चलने का बड़ा दारोमदार वहां की जाति-व्यवस्था पर निर्भर है. जैसे जमीन के मालिक अगड़ी जातियों के, और उनके खेतों पर काम करने वाले मजदूर पिछड़ी जातियों के.
इस पावर डाइनेमिक्स की थोड़ी-सी बेसिक जानकारी ज़रूरी है. ये समझने के लिए कि आखिर दलित पहचान को लेकर ये पूरा मूवमेंट आगे बढ़ा कैसे. किस तरह पंजाब के गांवों से निकलकर पॉप कल्चर का हिस्सा बना. और आज इस पर ऐसे गाने बन रहे हैं, जो देश-विदेशों तक पॉपुलर हो रहे हैं.
जमीन और जाति
पंजाब में साल 1961 में पंजाब विलेज कॉमन लैंड्स रेगुलेशन एक्ट पास किया गया था. इसमें गांव-देहात की 33 फीसद खेतिहर ज़मीन को अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित कर दिया गया था. उन्हें सालाना इसकी लीज मिलती थी. नियम कानून बनते-बनते साल 1964 आ गया. लेकिन जैसा हर कानून के साथ होता है, इस कानून के भी लूपहोल ढूंढ लिए गए. जिनके पास पहले से ज़मीन थी, वो पिछड़ी जातियों के कैंडिडेट खड़े कर उनके नाम से जमीन का इस्तेमाल करते रहे. उन्हें चुनौती देने की हिम्मत बहुत कम लोगों में थी.
'स्क्रॉल' में छपी रिपोर्ट के अनुसार, 2009 में ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमिटी ने गांव के स्तर पर दलितों को एकजुट करना शुरू किया. पढ़े-लिखे जवान लोग और महिलाएं इसमें सबसे आगे थे. डेरा सच्चा सौदा जैसे संगठनों ने भी दलितों को एक प्लेटफॉर्म दिया, जहां वो अपने अधिकारों के लिए साथ आ सकें. इसमें जमीन से लेकर अपनी जातीय पहचान को लेकर गर्व करने का अधिकार शामिल है.

पॉप कल्चर में कास्ट आइडेंटिटी
जब अधिकारों की बात चलती है, तो मुख्यधारा में किसी भी आइडेंटिटी को कैसे देखा जाता है, ये पॉपुलर कल्चर पर काफी हद तक निर्भर करता है. आज के उदाहरण ले लें, तो पंजाबी गानों के अधिकतर वर्जन ऐसे मिलते हैं जिनमें लड़कियां, शराब, पैसा, महंगी गाड़ियां, प्यार में धोखा जैसे टॉपिक दिखाए जाते हैं. सतिंदर सरताज और अमरिंदर गिल जैसे गायकों के कुछ गानों को छोड़ दें, तो अधिकतर गाने ऐसे ही पॉपुलर हो रहे हैं. ऐसे में म्यूजिक और डांस के जरिए अपनी पहचान को अपनाना, और उस पर गर्व करना दलित समूहों के लिए एक मौका है, जिसे इस्तेमाल करने में वो पीछे नहीं हटना चाहते. 2016 में गिन्नी माही का गाना ‘डेंजर *मार’ आया, जिसने लोगों के कान के परदे थर्रा दिए.
बोलचाल की भाषा में इसे नाम दिया गया, दलित पॉप. इस गाने में गिन्नी माही ने एक समुदाय को दिए गए इस नाम को रीक्लेम करने की बात कही. वो नाम, जिसे कई दशकों से सवर्णों द्वारा एक अपमानजनक शब्द के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा था.
हालांकि गिन्नी ऐसी पहली आर्टिस्ट नहीं थीं. उनसे पहले भी रजनी ठक्करवाल ने धी *मारां दी नाम से गाना रिलीज किया था. इसमें उन्होंने दिखाया था कि किस तरह अगड़ी जातियों के अत्याचारों से बदला लेने के लिए एक समुदाय की बेटी मैदान में उतर जाती है.
इनके अलावा रूप लाल धीर के गाने जैसे पुत्त *मारां दा, या टाइम *मार दा जैसे गानों में भी अपनी जातिगत पहचान को खुलकर अपनाने की बात दिखी.
आद धर्म को मानने वाले/ रविदासी हों, या बाल्मीकि या दूसरे समूह, पंजाब में दलित पहचान को एक अलग आवाज़ देने का काम अगर उनके राजनीतिक अधिकारों से शुरू हुआ, तो पॉप कल्चर में देर-सबेर उसका आना बनता था. सवाल ये है कि इन अनकम्फर्टेबल सवालों का सामना करने के लिए समाज का एक बड़ा तबका कितना तैयार है.
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