Video: पद्मिनी और धर्मेंद्र के सपने का किस्सा
मुंबई की प्रीमियर ऑटोमोबाइल फैक्ट्री ने फिएट के साथ करार करके मुंबई में इस कार का प्रोडक्शन शुरू किया. ये गाड़ी साठ के दशक में मुंबई की सड़कों पर दौड़ने लगी. मुंबई में अथॉरिटीज़ ने भारी भरकम एम्बेसडर के मुकाबले पद्मिनी को चुना जिसकी स्लीक डिज़ाइन और हल्की कदकाठी मुंबई के संकरे और भीड़-भाड़ वाले रास्तों के लिए मुफीद थी. जल्द ही ये टैक्सी मुंबई की पहचान बन गई. 70 और 80 का दौर इस गाड़ी का गोल्डन दौर था.

पद्मिनी कार से एक आदमी के प्यार पर 2014 में एक तेलुगू फिल्म भी बनी थी, 'पन्नियारम पद्मिनियम' नाम से. उसी फिल्म से एक दृश्य.
धर्मेंद्र और रजनीकांत की पहली पसंद थी पद्मिनी
इस गाड़ी के विज्ञापन में भी मांग टीका और साड़ी पहने हुई मॉडल किसी मॉडर्न राजकुमारी जैसी दिखती थी. टैक्सी पद्मिनी से जुड़े कई किस्से काफी मशहूर हैं. सुपरस्टार धर्मेंद्र ने एक इंटरव्यू में बताया था कि जब वो मुंबई आए तो उनके दो ही सपने थे- एक फ्लैट खरीदने का और एक प्रीमियम पद्मिनी कार खरीदने का.

मुंबई में चलने वाली काली-पीली टैक्सी. फिएट पद्मिनी. (फोटोःफ्रीप्रेस)
धर्मेंद्र की शुरुआती फिल्मों में से एक में हीरोइन तनुजा थीं. तनुजा के पास ओपन रूफ वाली हेराल्ड कार थी. धर्मेंद्र के भाई ने उनसे पूछा कि आप भी ओपन रूफ वाली गाड़ी क्यों नहीं लेते हो? तो धर्मेंद्र ने जवाब दिया अगर कल को मेरी फिल्में नहीं चलीं तो बॉम्बे छोड़कर तो जाने वाला हूं नहीं, तब मैं इस कार को टैक्सी बना लूंगा और फिर स्ट्रगल करूंगा.
कहते हैं साउथ के सुपरस्टार रजनीकांत को भी अपनी पद्मिनी कार से बहुत लगाव है. पद्मिनी रजनीकांत की पहली कार थी. उनके घर में आज एक से एक लक्ज़री और आलीशान गाड़ियां हैं लेकिन रजनी ने पद्मिनी को आज भी संजोकर रखा हुआ है.

पद्मिनी अब चलन से बाहर हो रही है, लेकिन कई लोगों ने इन्हें संजोकर रखा है. इनमें से एक रजनीकांत भी हैं
इसलिए जानी गई पद्मिनी
पद्मिनी कभी अपने कंफर्ट या स्पीड के लिए नहीं जानी गई. पद्मिनी की नीची सीलिंग, सिल्वर रंग के हैंडल- जिन्हें थोड़ी ट्रिक के साथ इस्तेमाल कर गाड़ी को खोला और बंद किया जाता है- इसकी पहचान बने. उदारीकरण के बाद बाज़ार में नई गाड़ियां आईं. साल 2000 के बाद पद्मिनी का प्रोडक्शन बंद हो गया.
2013 में सरकार ने प्रदूषण से मुकाबला करने के लिए तय किया कि बीस साल से पुराने वाहन नहीं चलेंगे. अब मुंबई में मुश्किल से करीब 300 पद्मिनी बची हैं. अगले साल के बाद ये भी उस रानी की तरह ही इतिहास का हिस्सा हो जाएंगी, जिसके नाम पर इन्हें पद्मिनी नाम दिया गया.

दी लल्लनटॉप के लिए ये स्टोरी स्वप्निल सारस्वत ने की है. स्वपनिल 'आजतक' में सीनियर प्रोड्यूसर हैं. लगभग डेढ़ दशक से पत्रकारिता कर रहीं स्वप्निल भारतेंदु हरिश्चंद्र पुरस्कार पा चुकी हैं. महिला मुद्दों, राजनीति और मुंबई शहर पर इनके लेख छपते रहते हैं.
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