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1993 में बम ब्लास्ट हुआ और फिर मुंबई को मिला 'डैडी'

अरुण गवली पर बनी अर्जुन रामपाल स्टारर फिल्म डैडी के असली नायक की कहानी.

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अरुण गवली उर्फ डैडी.
हमारे यहां पैरोल की अलग महत्ता है. ये एक समानांतर समाज की अवधारणा है, जिसमें ये देखा जाता है कि अपराधी का रुतबा अभी भी कायम है कि नहीं. जेल जाने का कितना फर्क पड़ा है. जेलरों का ये समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण हमेशा मुझे लुभाता है. मई 2017 में एक सजायाफ्ता अपराधी नागपुर की जेल से निकलकर मुंबई के भायखला पहुंचा. दगड़ी चाल में. पहुंचने के साथ गाना बज रहा था- अरे दीवानों मुझे पहचानो, मैं हूं कौन. मैं हूं मैं हूं, डॉन.
अरुण गवली उर्फ डैडी.
अरुण गवली.

इस डॉन ने इस गाने पर दबा के डांस किया. डांस फ्लोर पर उसकी बीवी और बेटी भी आ गईं. खूब धमाल हुआ. खास बात ये है कि मुंबई में डॉन और माफिया कल्चर अब खत्म हो चुका है. पर कौन है ये आदमी जिसे अभी भी डॉन कहा जा रहा है? क्या ये 90 के दशक का नॉस्टैल्जिया है या फिर कुछ सच भी है इसमें? इस डॉन का नाम है अरुण गवली, जिसे अंडरवर्ल्ड में डैडी कहा जाता है. जिसके नाम पर फिल्म आ रही है: डैडी. गली-मुहल्लों की लड़ाई में भी डैडी उसी को कहा जाता है, जो हर वक्त की हर धार, समंदर की हर लहर झेल के खड़ा रहता है. अरुण गवली की कहानी भी कुछ ऐसी है-

दाऊद की महबूबा से ऐसे बनी डैडी की मुंबई

एक वक्त था जब मुंबई बंबई हुआ करती थी. वहां माफियाराज चलता था. इतना कि फिल्में भी माफिया के ऊपर बनतीं. कॉमिक्स भी लिखे जाते बंबई शहर को लेकर. सबको सुपर हीरो की तलाश थी इस शहर को बचाने की. पर सच तो ये था कि पूरी बंबई को वरदराजन मुदलियार, हाजी मस्तान, करीम लाला, अमर नाइक, अश्विन नाइक, बड़ा राजन, छोटा राजन, छोटा शकील, अबू सलेम सबने अपने हिसाब से तराश रखा था. इन सबका बाप बना दाऊद इब्राहिम. आजादी के पहले से ही बंबई में व्यापार बहुत होता था. आजादी के बाद और बढ़ा. पर कस्टम और एक्साइज के नियम बहुत कड़े थे. लिहाजा तस्करी में बहुत पैसा था. शुरुआत में माफिया तस्करी ही करते थे. फिर रियल एस्टेट में आ गये. करीम लाला, वरदराजन और हाजी मस्तान तस्करी वाले थे. अमिताभ की कई फिल्में इन्हीं लोगों के ऊपर बनीं. पर वो दौर दूसरा था. जयप्रकाश नारायण के संपर्क में आकर हाजी मस्तान ने अपराध छोड़ दिया था. वहीं वरदराजन के ऊपर मणिरत्नम ने कमल हासन को लेकर नायकन फिल्म बनाई थी. वरदराजन ने कॉन्ट्रैक्ट किलिंग को भी अपना लिया था. पर 1980 में वो भी बंबई छोड़कर चला गया. ये उस वक्त के राजनैतिक हालात थे. वहीं, करीम लाला के भाई रहीम खान को मारकर दाऊद इब्राहिम ने पूरा कंपटीशन ही खत्म कर दिया. करीम लाला ने धंधा छोड़ दिया. अब बंबई पर दाऊद इब्राहिम का राज था. तभी दाऊद ने बंबई को महबूबा कहा था.
भगोड़ा दाउद इब्राहिम.
भगोड़ा दाउद इब्राहिम.

पर 1993 में बंबई बम ब्लास्ट ने सारे समीकरण बदल दिए. दाऊद को दुबई भागना पड़ा. छोटा राजन मलेशिया भाग गया और भागते-भागते इंडिया की जेल में पहुंच गया. अबू सलेम भागा, पर उसे भी जेल जाना पड़ा. तो अब बंबई का मैदान खाली हो गया था. 1995 में बंबई का नाम बदलकर मुंबई कर दिया गया. उसी दौरान शिवसेना के जनक बाला साहेब ठाकरे अपनी बुलंदियों पर पहुंचे थे. सत्ता में आये थे. मुंबई की सांप्रदायिकता उनको भाती थी. अब डॉन हिंदू और मुसलमान भी होने लगे थे. पर एक ट्विस्ट आ गया था.
मुंबई बम ब्लास्ट को ‘बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भड़के दंगों का बदला' कहा गया.
मुंबई बम ब्लास्ट को ‘बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भड़के दंगों का बदला' कहा गया.

अचानक मुंबई में दो डॉन सबकी जबान पर थे. अमर नाइक और अरुण गवली. अरुण गवली का दाउद की गैंग से भी पंगा रहा था. दोनों मैदान मारने के लिए तड़पने लगे. लेगेसी इतनी बड़ी थी माफियागिरी चलाने के लिए कुछ करना जरूरी था. 1994 में अरुण गवली के शूटर रवींद्र सावंत ने अमर के भाई अश्विन की खोपड़ी में गोली मार दी. वो भी अदालत कंपाउंड में. पर अश्विन बच गया. जेल काटने के बाद वो 2009 में छूटा है. तब से उसका कुछ पता नहीं, शांत है बिल्कुल. उधर अमर नाइक को 1996 में पुलिस ने ही मार दिया. उस वक्त पुलिस अफसरों दया नायक, विजय सालस्कर और प्रदीप शर्मा जैसे एनकाउंटर स्पेशलिस्ट ने गैंगों की कमर तोड़ दी थी. इस तरह 2000 के आस-पास अरुण गवली का मुंबई माफिया में एकछत्र राज हो गया.
मंबई पुलिस के इनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक, प्रदीप शर्मा और प्रफुल.
मंबई पुलिस के एनकाउंटर स्पेशलिस्ट दया नायक, प्रदीप शर्मा और प्रफुल.

दगड़ी चाल जहां पुलिस का पहुंचना भी मुश्किल था

गावली सेंट्रल मुंबई के दगड़ी चाल में रहता था. सारी गतिविधि वहीं से होती थी. ऐसा कहा जाता है कि दगड़ी चाल में पुलिस बिना उसकी इजाजत के नहीं घुस सकती थी. सबको मार गिराने वाली मुंबई पुलिस का ये हश्र क्यों हुआ था, सोचने लायक बात है. कहा ये भी जाता है कि दगड़ी को किले जैसा बनाया गया था. 15 फीट का दरवाजा बना था. उसके गैंग के सैकड़ों लोग वहां ट्रेनिंग लेते थे. उनको मासिक तनख्वाह मिलती थी. ये एचआर की दृष्टि से मुंबई माफिया का बदलाव था. मेडिकल इत्यादि सुविधा भी थी. धीरे-धीरे इनका मुख्य काम बिल्डरों से वसूली रह गया था. कॉन्ट्रैक्ट किलिंग बहुत कम हो गई थी. क्योंकि लोग अपना गुस्सा मारने की बजाय पैसे कमाने में लगा रहे थे. क्योंकि पैसे कमाने के नये अवसर पैदा हो रहे थे. क्योंकि देश में आर्थिक उदारीकरण हुआ था.

राजनीति में मारी एंट्री मगर ये बड़ी गलती कर बैठा

2004 में अरुण गवली ने चतुर दांव खेला. उसने अखिल भारतीय सेना नाम से पार्टी बना ली. पॉलिटिक्स में आ गया. चिंचपोकली से जीतकर विधायक भी बन गया. अब पूरा बदलाव हो चुका था. कौन हाथ डालता उस पर? पर फिर उसने एक गलती कर दी. शिवसेना के एक कॉर्पोरेटर कमलाकर जामसांडेकर की सुपारी किलिंग करवा दी. बालासाहेब ठाकरे से पंगा लेना आसान नहीं रहा. अरुण गवली को जेल जाना पड़ा. उसी मामले में वो अभी भी जेल में है.
अरुण ने 2004 में अपनी पार्टी बनाई.
अरुण ने 2004 में अपनी पार्टी बनाई.

पर इसकी कहानी में एक रोचक मोड़ भी है. शिवसेना ने तो बहुत बाद में भैय्या लोगों को मुंबई से भगाना शुरू किया. अरुण गवली बहुत पहले ये काम कर चुका था. भायखला में अपना गैंग बनाते वक्त उसे भैय्या लोगों का सामना करना पड़ा था. इससे पहले मुंबई माफिया में भैय्या लोग भी काम करते थे. तो ये आसान नहीं था. पर ऐसा नहीं था कि ये शिवसेना की क्षेत्रवादी राजनीति की तरह था. ये बस वक्त की मार थी.

गवली का मराठी गैंग

अरुण गवली का मराठी गैंग था, जिसमें बाबू रेशिम, रमा नाइक और अरुण गवली मुख्य थे. इनके नाम से पहला शब्द लेकर ही इस गैंग का नाम BRA गैंग रखा गया था. भायखला में ही मोहन सर्मालकर ने नॉर्थ इंडियन लोगों को लेकर एक भैय्या गैंग बना लिया. भैय्या गैंग में पारसनाथ पांडे, कुंदन दुबे और राज दुबे जैसे नाम मशहूर थे. विरार के जयेंद्र सिंह ठाकुर तो भैय्या ठाकुर के नाम से फेमस थे. मुंबई माफिया में ऐसे नामों का होना थोड़ा आश्चर्य पैदा करता है. बाद में अरुण गवली ने अपने गैंग का नाम बदलकर भायखला कंपनी कर दिया. अब क्षेत्र की बात ही नहीं रही. बेहतर पे और मेडिकल सुविधाओं के आधार पर सामने वाले गैंग की कमर तोड़नी शुरू कर दी गई. इस बीच मोहन ने ही कहना शुरू किया कि अरुण मध्य प्रदेश का है. वहां पर ये ग्वाले थे और भैंस चराते थे. कहने का मकसद ये था कि अरुण का पेशा कुछ और है और वो माफिया चलाने लायक नहीं है.
पुलिस की गिरफ्त में अरुण गवली.
पुलिस की गिरफ्त में अरुण गवली.

गवली ने पहले मिल में नौकरी भी की

अरुण के पिता गुलाब महाराष्ट्र के अहमदनगर से थे. उसकी मां लक्ष्मीबाई मध्य प्रदेश के खंडवा से थीं. छह बच्चे हुए इन लोगों के. गुलाब मिल में काम करते थे. बच्चों को पढ़ाना चाहते थे. अरुण ने मैट्रिक तक पढ़ाई की. सत्तर के दशक में ये बहुत था. अरुण के रिश्तेदार सब मिल में या सरकारी नौकरियों में थे. इसके एक जीजा तो एयर इंडिया में काम करते थे. दूसरा जीजा सेंट्रल रेलवे में काम करता था. अरुण का एक भाई फेमस खटाऊ मिल में काम करता था. अरुण ने भी शक्ति मिल में काम करना शुरू किया. बाद में गोदरेज, क्रॉम्प्टन ग्रीव्स सबमें काम किया. क्रॉम्प्टन ग्रीव्स में ही काम करते हुए उसकी मुलाकात हुई सदाशिव पावले से. यानी सदा मामा से. बात 1977 की है. अब अरुण को अपराध की दुनिया का पहला स्वाद मिला था. यहीं उसके साथ पढ़े हुए रमा नाइक, छोटा बाबू, बाबल्या सावंत और विलास भी आ गए.

असली लड़ाई मोहन के एस ब्रिज गैंग से

अरुण की असली लड़ाई मोहन के एस ब्रिज गैंग से ही थी. ब्रा गैंग और एस ब्रिज गैंग. फिल्मों की तरह इनकी लड़ाई इश्क और झापड़ से शुरू हुई थी. किसी को सामने वाले गैंग के किसी गुर्गे की बहन से प्यार हो गया. बदले में झापड़ पड़ गया. और खूनी शुरुआत हो गई. इसी में अरुण के भाई का भी कत्ल हो गया. इसके साथ ये भी हुआ कि पुलिस अरुण के गैंग को परेशान करती पर मोहन के गैंग को नहीं. इससे अरुण काफी नाराज था. पहले वो बस मटका खिलाते थे. अब वो पैसा वसूली, धमकी में भी आने लगे. कहा कि अब इसके बिना बात नहीं बनेगी. पुलिस को ज्यादा हफ्ता देना पड़ेगा. अरुण गवली पहला ऐसा डॉन था जो रियल एस्टेट और कंस्ट्रक्शन की महत्ता को पहचान पाया. हाजी मस्तान वगैरह ने भी कोशिश की थी. पर कंस्ट्रक्शन का काम धमकी पर नहीं चलता, मैनेज करना पड़ता है. नहीं कर पाये थे. पर अरुण ने वर्ली, भायखला, चिंचपोकली, परेल, लालबाग औऱ दादर तक अपना ये काम फैला लिया. मैनेज भी कर लिया. कंस्ट्रक्शन और जमीन के मामलों में लोग कोर्ट जाने से बचते हैं. अरुण फैसला करा देता था. यही उसकी ताकत बन गई.
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फिर उसने एस गैंग से बदला लिया. ब्रा गैंग एस गैंग के पारसनाथ पांडे से तंग आ गया था. एक दिन इन लोगों ने पारस के घर में घुसकर उसे सबके साने तलवार से मार दिया. इसके बाद इनका वर्चस्व स्थापित हो गया. अब कोई बोलने वाला नहीं था वहां. अरुण, बाबू और रमा को मुंबई से तड़ीपार कर दिया गया. दो साल के लिए. ये साल 1980 था. उसी साल इनकी मुलाकात जेल में ही वरदराजन मुदलियार से हुई थी. उसी साल वरदराजन चला गया था. सारे गुन सीख के ये लोग बाहर आये थे. आगे की कहानी ऊपर बताई जा चुकी है.
बेटी गीता के साथ अरुण.
बेटी गीता के साथ अरुण.

अरुण गवली की शादी जुबैदा मुजावर से हुई थी. दोनों ने भाग के शादी की थी. जुबैदा ने अपना नाम बदलकर आशा रख लिया. बाद में आशा ने अरुण का बहुत साथ दिया. जब अरुण जेल गया तो उसका सारा काम आशा ही देखती थीं. इस तरह वो भी डॉन में गिनी जाने लगी. आशा विधानसभा में भी पहुंची हैं. इनकी बेटी गीता गवली चिंचपोकली से कॉर्पोरेटर हैं.

ये स्टोरी लल्लनटॉप के लिए ऋषभ ने की है. 

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इस स्टोरी में कुछ किस्से एस हुसैन जैदी की बुक 'डोंगरी टू दुबई' से लिए गए हैं. ये बुक यहां
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