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राजनीति में शरद पवार होने का क्या है मतलब?

पवार आज 80वां जन्मदिन मना रहे हैं. पढ़िए उनके बारे में दिलचस्प बातें

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शरद पवार की फाइल फोटो

लुटियंस दिल्ली के गलियारों में 41 साल पुराने एक वाक़ये को अक्सर चटखारे लेकर सुना जाता है. बड़ा ही रोचक वाकया है यह :

जुलाई का महीना और 1979 का साल. मोरारजी देसाई की सरकार अविश्वास प्रस्ताव पर अपना बहुमत खो बैठी थी और मोरारजी सरकार को सत्ता से रुख़सत करनेवाला यह अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था लोकसभा में विपक्ष के नेता यशवंतराव चव्हाण ने. लेकिन जब मोरारजी सरकार के पतन के बाद वैकल्पिक सरकार बनाने की कवायद शुरू हुई (क्योंकि अभी छठी लोकसभा का 32 महीने का कार्यकाल बचा हुआ था) तब सबकी निगाहें राष्ट्रपति भवन पर टिक गई. और तभी यशवंतराव चव्हाण राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से मिलने पहुंचे और सरकार बनाने का दावा पेश किया. लेकिन जब राष्ट्रपति ने समर्थक सांसदों की सूची और समर्थन पत्र मांगा तब चव्हाण ने उनसे एक-दो दिनों की मोहलत मांगी. दो दिन बाद चव्हाण फिर राष्ट्रपति के पास पहुंचे और समर्थन जुटाने के लिए फिर एक-दो दिनों की मोहलत मांगी. इस बार भी राष्ट्रपति ने उन्हें मोहलत दे दी. लेकिन जब चव्हाण तीसरी बार राष्ट्रपति से मोहलत मांगने पहुंचे तो राष्ट्रपति रेड्डी बुरी तरह भड़क गए. रेड्डी ने तंज भरे लहजे में चव्हाण से कहा,

"यदि आपकी जगह मैंने आपके शागिर्द शरद पवार को मौका दिया होता तो नई सरकार न सिर्फ शपथ ले चुकी होती बल्कि पूरी तरह फंक्शनल भी हो चुकी होती."

चव्हाण निराश हो गए और अंततः वस्तुस्थिति को समझते हुए चौधरी चरण सिंह की सरकार में उप-प्रधानमंत्री बनना स्वीकार कर लिया. लेकिन आज हम बात चव्हाण की नहीं, बल्कि उनके शागिर्द रहे शरदचंद्र गोविंदराव पवार
 
की करने जा रहे हैं जिन्होंने आज अपने जीवन के 80 साल पूरे कर लिए हैं. आखिर कहां से होती है सियासत के माहिर खिलाड़ी शरद पवार की शुरूआत? इसे जानने के लिए हम सीधे 80 बरस पीछे चलते हैं :

12 दिसंबर 1940 को महाराष्ट्र के बारामती जिले (तब कस्बा) के कटेवाडी गांव में जन्मे शरद पवार के उपर उनकी माता का (जो वहां स्थानीय तौर पर सामाजिक एवं शिक्षण से जुड़े कार्यकलापों से जुडी थीं एवं 1937 में स्थानीय बोर्ड का चुनाव जीतने वाली अकेली महिला थीं)  बहुत प्रभाव रहा है. उनके पिता खेती कार्यों से जुड़े होने के साथ पीजेंट एंड वर्कर्स पार्टी में भी सक्रिय हुआ करते थे. लेकिन नाॅन-कांग्रेस बैकग्राउंड के बावजूद शरद पवार प्रारंभ से ही नेहरू के समाजवाद से प्रभावित रहे. काॅलेज के चुनाव में बिजनेस घरानों के छात्रों की मोनोपोली को तोड़ते हुए पुणे के वृहन महाराष्ट्र काॅलेज ऑफ कॉमर्स के छात्र संघ अध्यक्ष का चुनाव जीता. तब तमाम छात्रों को आश्चर्य हुआ कि किसान परिवार का यह नौजवान कैसे बाजी मार ले गया.  काॅलेज की स्टूडेंट पॉलिटिक्स में वे पूरी तरह सक्रिय रहे. 1962 में चीन युद्ध के समय भी उन्होने शनिवरवदा फोर्ट के सामने हजारों छात्रों के साथ एंटी-चाइना प्रोटेस्ट मार्च निकाला. B.Com. करने के बाद UNESCO की स्काॅलरशिप पर विश्व के कई देशों का भ्रमण किया. इस दौरान पवार ने कुछ दिनों तक जापान के प्रधानमंत्री कार्यालय एवं न्यूयार्क के सीनेटर बाबी कैनेडी (पुर्व राष्ट्रपति जाॅन एफ. कैनेडी के भाई) के ऑफिस में भी काम किया और वहां टाॅप लेवल की सियासी बारीकियों को समझा.


बढ़ती उम्र के बावजूद शरद पवार की राजनीतिक अहमियत कम नही हुई है
बढ़ती उम्र के बावजूद शरद पवार की राजनीतिक अहमियत कम नही हुई है

विधानसभा में एंट्री :

 60 के दशक में शरद पवार बारामती लौट आए और कांग्रेसी दिग्गज यशवंत राव चव्हाण के संरक्षण में सियासत में कदम रख दिया. चव्हाण के आशीर्वाद से 1967 में बारामती विधानसभा से कांग्रेस का टिकट भी पा गए और महज 27 साल की उम्र में विधायक बनने में कामयाब रहे.

शरद पवार पर समाजवाद की सनक तो पहले से ही थी इसलिए जब वे विधायक बने तब जल्दी ही कांग्रेस के सोशलिस्ट ब्लाॅक के नेता और युवा तुर्क चंद्रशेखर के संपर्क में आ गए. यहां से उनकी सियासी गाड़ी पटरी पर दौड़ने लगी. सत्तर के दशक से लाल बत्ती भी मिलने लगी जब उन्हें महाराष्ट्र जैसे संवेदनशील राज्य में गृह राज्य मंत्री बनने का मौका मिला. इसी दरम्यान 1975 में इमरजेंसी लगा दी गई. चंद्रशेखर, मोहन धारिया, कृष्णकांत समेत तमाम कांग्रेसी सोशलिस्टों ने कांग्रेस छोड़ दी और जेल चले गए. लेकिन इस मौके पर शरद पवार ने अपने पुराने गुरु यशवंतराव चव्हाण के साथ कांग्रेस में ही रहना उचित समझा.

मुख्यमंत्री पद का सियासी दांव :

1978 में महाराष्ट्र विधानसभा का चुनाव हुआ और उस वक्त तक केन्द्र में जनता पार्टी सत्ता में आ चुकी थी. इस जनता पार्टी की कमान शरद पवार के दोस्त चंद्रशेखर के हाथ में थी. महाराष्ट्र के इस चुनाव में 288 सदस्यीय विधानसभा में किसी भी दल को बहुमत यानी 145 का आंकड़ा हासिल नही हुआ. जनता पार्टी को 99, कांग्रेस को 69 और इंका को 62 सीटें मिलीं. बाकी सीटें अन्य छोटे दलों और निर्दलीयों के खाते में गई. ऐसे हालात में जनता पार्टी की सरकार बनने की संभावना को निरस्त करने के लिए कांग्रेस और इंका ने हाथ मिला लिया और सरकार बनाई. इस समझौते के तहत कांग्रेस के वसंतदादा पाटिल मुख्यमंत्री बने जबकि इंका के शिवराज पाटिल विधानसभा अध्यक्ष बने. वसंत दादा की सरकार में शरद पवार को उद्योग मंत्री बनाया गया. लेकिन जनता पार्टी कहां मानने वाली थी. जनता पार्टी अध्यक्ष चंद्रशेखर और जनता विधायक दल के नेता उत्तमराव पाटिल वसंत दादा की सरकार को अस्थिर करने के लिए मौके तलाशने लगे. जल्दी ही उन्हें यह मौका हाथ लग भी गया. जुलाई 1978 में चंद्रशेखर के करीबी और वसंत दादा की कैबिनेट के सदस्य शरद पवार ने कांग्रेस के 69 में से 40 विधायकों को तोड़ लिया और तब इस टूटे गुट को जनता पार्टी, पीजेंट वर्कर्स पार्टी, CPM, रिपब्लिकन पार्टी आदि का समर्थन मिल गया और 4 महीने पुरानी वसंतदादा पाटिल सरकार धराशायी हो गई.

प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक फ्रंट यानी PDF के नाम से नया गठबंधन बना और 38 साल के शरद पवार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने. नई सरकार ने आते ही महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष और इंका नेता शिवराज पाटिल को भी पद से हटाया और उनकी जगह जनता पार्टी के प्राणलाल वोरा को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया. पवार के मुख्यमंत्री रहते महाराष्ट्र में को-ऑपरेटिव की सियासत और शुगर पाॅलिटिक्स खूब परवान चढ़ी. लेकिन साथ ही ग्रामीण महाराष्ट्र में सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में भी बहुत काम हुए और इन्ही कामों ने शरद पवार को ग्रामीण महाराष्ट्र में बेहद लोकप्रिय बना दिया. लेकिन 1980 के मध्यावधि चुनाव में केंद्र में इंका को भारी बहुमत मिला और इन्दिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं. इन्दिरा ने सत्ता में आते ही 9 गैर-कांग्रेसी राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया. इन बर्खास्त होने वाली राज्य सरकारों में शरद पवार की सरकार भी शामिल थी.

इसके बाद नए विधानसभा चुनाव हुए और इस विधानसभा चुनाव में एक बड़ी आश्चर्यजनक घटना हुई. दरअसल उस दौर में शरद पवार के दोस्त और शिवसेना सेना बाल ठाकरे इंका नेता अब्दुल रहमान अंतुले के भी दोस्त हुआ करते थे. लेकिन इस चुनाव में बाल ठाकरे ने अंतुले से अपनी दोस्ती को ज्यादा तरजीह दी और शिवसेना को विधानसभा चुनाव से अलग कर लिया. शिवसेना के चुनाव नही लड़ने का इंका को फायदा भी मिला और उसे दो-तिहाई बहुमत मिल गया. ठाकरे के दोस्त अब्दुल रहमान अंतुले मुख्यमंत्री बन गए. वहीं दूसरी तरफ शरद पवार का PDF इस चुनाव में बुरी तरह पिट गया. हालांकि फिर भी शरद पवार अपनी बारामती विधानसभा सीट बचाने में कामयाब रहे.


1987 में राजीव गांधी की पहल पर शरद पवार ने कांग्रेस में वापसी की थी
1987 में राजीव गांधी की पहल पर शरद पवार ने कांग्रेस में वापसी की थी

 इसके बाद 1983 में वे कांग्रेस (समाजवादी) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए और इसी पार्टी से 1984 में अपना पहला लोकसभा चुनाव बारामती से जीता. लेकिन दिल्ली में उनका मन नही रमा और 1985 के विधानसभा चुनाव में वापस राज्य की राजनीति में लौट आए. 1985 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस (समाजवादी) को 54 सीटें मिली और शरद पवार विधानसभा में विपक्ष के नेता बने. लेकिन इस बीच राज्य में शिवसेना का प्रभाव बढ़ने लगा, साथ ही इंका भी कमजोर पड़ने लगी. इंदिरा गांधी का दौर बीत चुका था और अब इंका की कमान राजीव राजीव गांधी के हाथ में थी. महाराष्ट्र इंका के तमाम प्रभावशाली नेता जैसे शंकर राव चव्हाण, शिवराज पाटिल, एनकेपी साल्वे - सब के सब दिल्ली की सियासत में या तो व्यस्त थे या राजीव उन्हें दिल्ली में ही रखना चाहते थे. लेकिन इसके लिए राजीव को बंबई (अब मुंबई) में एक मजबूत सूबेदार की जरूरत थी और इसी जरूरत को देखते हुए राजीव ने शरद पवार की तरफ दोस्ती का हाथ बढ़ाया.

शरद पवार को भी यह सियासी सौदेबाजी फायदे की लगी और 1987 में वे इंका में शामिल हो गए. कुछ महीनों बाद 1988 में मुख्यमंत्री शंकर राव चव्हाण को वित्त मंत्री बनाकर राजीव दिल्ली लेकर आए और शरद पवार के लिए महाराष्ट्र में स्पेस बनाया. इंका के लचर हो रहे संगठन, अंदरूनी गुटबाजी और शिवसेना के बढ़ते प्रभाव रोकने के इरादे से राजीव गांधी ने शरद पवार को मुख्यमंत्री बनाया. पवार कामयाब भी रहे और मार्च 1990 के विधानसभा चुनाव में 288 सदस्यीय विधानसभा में कांग्रेस को बहुमत के लगभग करीब यानी 141 सीटों तक पहुंचा दिया.

पवार तीसरी दफ़ा मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे. उधर 1990 के अंत में राजीव की मदद से पवार के दोस्त चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बन चुके थे. चंद्रशेखर के दौर में शरद पवार का एक पैर दिल्ली में ही रहता था. लगभग हर मामलों में वे चंद्रशेखर के अघोषित सलाहकार की तरह नजर आने लगे. चाहे आर्थिक हालात हों या अयोध्या मामला, या फिर अमेरिकी फाइटर विमानों को इराक पर हमले के लिए बंबई में तेल भरने की इजाजत देने का मामला - सबमें शरद पवार चंद्रशेखर के बगलगीर नजर आने लगे और यह बात राजीव गांधी को खटकने लगी. राजीव गांधी ने पवार की महत्वाकांक्षा को भांपते हुए उनका पर कतरने की कोशिशें प्रारंभ की और उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाना चाहा. लेकिन कांग्रेस में अपनी जड़ें जमा चुके शरद पवार को वे हटा नहीं पाए. उस दौर की सियासत के कई प्रसंगों को शरद पवार ने अपनी किताब ऑन माई टर्म्स में भी विस्तार से जगह दी है. एक जगह शरद पवार यह भी लिखते हैं कि चंद्रशेखर सरकार के दौर में अयोध्या का मामला सुलझने के करीब पहुंच गया था लेकिन तभी एक अत्यंत छोटे विवाद पर प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने इस्तीफे का एलान कर दिया और मामला ठंडे बस्ते में चला गया.

लेकिन एक तथ्य भी है कि जब चंद्रशेखर ने इस्तीफा दिया था तब हक्के-बक्के राजीव गांधी ने इन्हीं शरद पवार को चंद्रशेखर को इस्तीफा वापस लेने के लिए मनाने भेजा था. और तब चंद्रशेखर ने उन्हें जवाब दिया था,

"जाकर अपने नेता से कह दो कि चंद्रशेखर दिन में तीन बार अपने फैसले नहीं बदलता." 

 चंद्रशेखर इस्तीफा वापस लेने पर तैयार नही हुए और देश मध्यावधि चुनाव की ओर बढ़ गया.


चंद्रशेखर और शरद पवार की नजदीकी से राजीव गांधी सशंकित बताए जाते थे.
चंद्रशेखर और शरद पवार की नजदीकी से राजीव गांधी सशंकित बताए जाते थे.

प्रधानमंत्री पद से चूके :

मई 1991 में अभी लोकसभा चुनाव के दो चरण ही हुए थे (और दो बाकी थे) तभी चुनाव प्रचार के दौरान तमिलनाडु के श्रीपेरेंबुदूर में राजीव गांधी की हत्या हो गई.  हत्या के बाद बचे हुए दो चरणों के चुनाव में कांग्रेस को जबर्दस्त सहानुभूति वोट मिले और कांग्रेस 226 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. तब राजीव की अनुपस्थिति में इंका में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों की लाइन लग गई. नारायण दत्त तिवारी, अर्जुन सिंह, शरद पवार, नरसिंह राव जैसे दावेदारों के अलावा इंका का एक खेमा सोनिया गांधी की पसंद और उप-राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा को भी प्रधानमंत्री बनवाने की कोशिशों में लगा हुआ था. लेकिन मुख्य मुकाबला शरद पवार और कांग्रेस के नव निर्वाचित सांसदों की मजबूत दक्षिण भारतीय लाॅबी के बीच सिमट गया. दक्षिण भारतीय लाॅबी से बुजुर्ग नेता नरसिंह राव का नाम सामने आने पर अर्जुन सिंह गुट ने भी उन्हें अपना समर्थन दे दिया. यहां तक कि सोनिया गांधी ने भी नरसिंह राव के नाम पर अपनी सहमति जता दी. ऐसे हालात में शरद पवार ने कदम पीछे खींचना ही श्रेयस्कर समझा. उन्होंने अपनी किताब 'लाइफ ऑन माई टर्म्स - फ्रॉम ग्रासरूट्स एंड कॉरीडोर्स ऑफ पावर' में भी इस बात का जिक्र करते हुए लिखा है,

 "1991 में 10 जनपद के 'स्वयंभू वफादारों' ने सोनिया गांधी को इस बात के लिए सहमत किया था कि उनकी (पवार) जगह नरसिंह राव को पीएम बनाया जाए, क्योंकि 'गांधी परिवार किसी ऐसे व्यक्ति को पीएम नहीं बनाना चाहता था, जो स्वतंत्र विचार रखता हो."


1987 में राजीव गांधी की पहल पर शरद पवार ने कांग्रेस में वापसी की थी
1987 में राजीव गांधी की पहल पर शरद पवार ने कांग्रेस में वापसी की थी

 शरद पवार नरसिंह राव की कैबिनेट में रक्षा मंत्री बनाए गए. हालांकि अपने करीबी सुधाकर राव नाइक को मुख्यमंत्री बनाकर 'प्राॅक्सी अवतार' में महाराष्ट्र की सत्ता पर भी वे काबिज रहे. लेकिन प्रधानमंत्री नरसिंह राव ने अपनी सरकार में महाराष्ट्र की पवार विरोधी लाॅबी को भी खूब तरजीह दी थी. शंकर राव चव्हाण गृह मंत्री बनाए गए थे जबकि शिवराज पाटिल को लोकसभा अध्यक्ष की कुर्सी दी गई थी. लेकिन इससे शरद पवार का राजनीतिक रसूख कम नहीं हुआ. उस दौर की मीडिया में एक बात अक्सर मजाक के तौर पर कही जाती थी कि 'यदि अब पाकिस्तान ने 1965 वाली गलती की तो जबतक ताशकंद जैसे किसी समझौते की नौबत आयेगी तबतक भारत कब्जाई गई जमीन पर पाकिस्तान व्यू अपार्टमेन्ट खड़ी कर चुका होगा.'  यह एक बिल्डर के तौर पर पवार की काबिलियत पर हल्का-फुल्का व्यंग्य था.

लेकिन जल्दी ही शरद पवार को वापस मालाबार हिल (महाराष्ट्र की सियासत का केन्द्र जिसे मुंबई का लुटियंस कहा जाता है) जाना पड़ा. जब 1993 की शुरूआत में मुंबई  में सीरियल बम ब्लास्ट हुए तब आनन-फानन में शरद पवार को चौथी बार मुख्यमंत्री बनाकर बंबई भेजा गया तब चमत्कारिक रूप से शरद पवार ने हालात पर उम्मीद से जल्दी काबू पा लिया. उस समय के अखबारों की सुर्खियां थी - सलाम बाम्बे, सलाम शरद पवार. मुंबई के हालात को संभालने के लिए उनकी खूब तारीफ हुई. लेकिन बतौर मुख्यमंत्री उनके इस कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि रही - महाराष्ट्र की ग्रामीण अर्थव्यवस्था की रीढ़ कही जानेवाली को-ऑपरेटिव को जिंदा करना. लेकिन 1995 में उनके मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस की हार हुई एवं पहली बार शिवसेना-भाजपा (बाल ठाकरे के रिमोट से चलनेवाली) सरकार बनी. लेकिन 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई और कांग्रेसी नरसिंह राव से आगे देखने लगे. राव पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लग रहे थे और उनका कोर्ट-कचहरी का चक्कर भी शुरू हो चुका था.

1996 में शरद पवार भी दूसरी बार बारामती से लोकसभा पहुंचे थे. लेकिन केस मुकदमें में उलझे नरसिंह राव ने किसी तेज-तर्रार नेता की जगह बिहार के बुजुर्ग कांग्रेसी नेता सीताराम केसरी को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया. लेकिन कुर्सी संभालते ही केसरी नरसिंह राव को ही ठिकाने लगाने में लग गए और राव को संसदीय दल के नेता का पद भी छोड़ने पर विवश कर दिया. 1997 में सीताराम केसरी खुद कांग्रेस संसदीय दल के नेता भी बन गए. लेकिन वे राज्यसभा सदस्य थे और इसलिए उन्होंने शरद पवार को लोकसभा में कांग्रेस का नेता बना दिया.

1997 में जब कांग्रेस का सांगठनिक चुनाव कराया जा रहा था तब सीताराम केसरी के खिलाफ कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ने के लिए शरद पवार और राजेश पायलट - दोनों खड़े हो गए. लेकिन कांग्रेसी तो कांग्रेसी ही ठहरे. कांग्रेसी कभी भी नेतृत्व के खिलाफ जाने की हिम्मत नही करते, चाहे कैसा भी पार्टी नेतृत्व हो. 1974-75 में जब इंदिरा गांधी की लोकप्रियता गिर रही थी तब भी कांग्रेसी उनके साथ ही रहे, 1978 में जब यशवंत राव चव्हाण के खिलाफ इंदिरा गांधी ने बगावत की तब भी अधिकांश कांग्रेस चव्हाण के साथ ही रहे. ठीक इसी तरह 1997 में भी अधिकांश कांग्रेसियों ने 80 वसंत देख चुके सीताराम केसरी पर ही अपना जताया. शरद पवार और राजेश पायलट -दोनों बुरी तरह हारे.

दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की बाजी हारे :  

 1998 के मध्यावधि चुनावों में महाराष्ट्र में कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन कर 48 में से 33 सीटें जीती एवं 4 सीट कांग्रेस की सहयोगी रामदास अठावले की आरपीआई ने जीती. कांग्रेस ने कुल 140 सीटें जीती और बीजेपी (181) के बाद लोकसभा में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी. इलेक्शन रिजल्ट आने के तत्काल बाद 14 मार्च की रात एक नाटकीय घटनाक्रम में सीताराम केसरी को कांग्रेस अध्यक्ष पद से हटा दिया गया और उनकी जगह सोनिया गांधी को कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया. उधर राष्ट्रपति के आर नारायणन ने सरकार बनाने की कवायद शुरू कर दी. शरद पवार के समर्थकों की मानें तो इस दौरान शरद पवार ने सोनिया गांधी से कहा था,


"मेरे नेतृत्व में सरकार बनाने के लिए अधिकांश क्षेत्रीय दल तैयार हैं. यूनाईटेड फ्रंट के लोग भी चाहते हैं और यहां तक की जयललिता और ममता बनर्जी जैसे भाजपा के साथ चुनाव लड़े नेता भी मुझे समर्थन देने को इच्छुक हैं. चंद्रबाबू नायडू और चौटाला की पार्टी (जिनकी अपने-अपने राज्यों में कांग्रेस से लड़ाई है) को भी मेरे नेतृत्व पर आपत्ति नहीं है और आज की तारीख में मुझे 281 सांसदों का समर्थन हासिल है. इसलिए यदि पार्टी अनुमति दे तो मैं सरकार बनाने का दावा पेश करूं!"

लेकिन सोनिया गांधी ने पवार को कोई जवाब नहीं दिया और 17 मार्च 1998 को राष्ट्रपति नारायणन को सूचित कर दिया कि 'कांग्रेस सरकार बनाने की स्थिति में नहीं है.' इसके बाद उसी शाम नारायणन ने अटल बिहारी वाजपेयी को सरकार गठन का न्योता भेज दिया. शरद पवार प्रधानमंत्री पद के बेहद करीब जाकर चूक गए थे. अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने जबकि लोकसभा में कांग्रेस के फ्लोर लीडर शरद पवार को विपक्ष का नेता बनाया गया. पवार अगले 13 महीनों के लिए लोकसभा में विपक्ष के नेता बने रहे. 13 महीने बाद 17 अप्रैल 1999 को जब वाजपेयी सरकार एक वोट से गिर गई तब अगले दिन राष्ट्रपति नारायणन के समक्ष सोनिया गांधी ने 272 सांसदो के समर्थन का दावा किया. नारायणन ने जब दावे के समर्थन में प्रमाण देने को कहा तब सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति से कुछ समय मांगा. लेकिन 3 दिन का समय मिलने के बावजूद वे समर्थन जुटाने में असफल रहीं. माना जाता है कि शरद पवार के कहने पर ही समाजवादी पार्टी (20) एवं वाममोर्चा के दो दलों- आरएसपी (4) & फारवर्ड ब्लाक (3) ने अपने दल के 27 सांसदो की ओर से कांग्रेस का समर्थन करने से इनकार कर दिया एवं देश मध्यावधि चुनावों की ओर बढ़ गया.


माना जाता है कि सोनिया गांधी को शरद पवार की पीएम पद की दावेदारी पसंद नही थी.
माना जाता है कि सोनिया गांधी को शरद पवार की पीएम पद की दावेदारी पसंद नही थी.

दूसरी बार कांग्रेस छोड़ी :

 15 मई 1999 की दोपहर. पूरे देश की नजर विश्व कप क्रिकेट में भारत के पहले मैच पर थी. इस मैच में भारत और दक्षिण अफ्रीका आमने-सामने थे और भारत पहले बैटिंग कर रहा था. टीवी चैनलों पर इस मैच से जुड़ा एक विवाद खूब सुर्खियां बटोर रहा था. विवाद यह था कि दक्षिण अफ्रीकी कप्तान हैंसी क्रोनिए एक इयरपीस के सहारे अपने कोच बाॅब वुल्मर से जुड़े हुए थे और यह क्रिकेट के नियमों के खिलाफ था. सब तरफ क्रोनिए की इस हरकत की ही चर्चा हो रही थी. लेकिन शाम होते-होते यह विवाद टीवी चैनलों से गायब हो गया और उसकी जगह एक दूसरा विवाद अचानक सामने आ गया. इस नए विवाद को खड़ा किया था कांग्रेस कार्यसमिति के तीन सदस्यों (पी ए संगमा, तारिक़ अनवर और शरद पवार) ने. उस दोपहर जब 24 अकबर रोड स्थित AICC हेडक्वार्टर के लाॅन में प्रणव मुखर्जी और शरद पवार क्रिकेट मैच पर चर्चा कर रहे थे तब किसी ने सोचा भी नही था कि 3 घंटे बाद पवार साहब संगमा और तारिक अनवर के साथ मिलकर एक ऐसा लेटर बम फोडने वाले हैं जिससे पूरे देश में बड़ा सियासी बवाल खड़ा हो जाएगा.

क्या लिखा था उस लेटर में?

 उस दिन शाम में शरद पवार के करीबियों ने मीडिया को एक चिट्ठी जारी कर दी जिसमें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठा दिया गया था. इस चिठ्ठी पर शरद पवार, पी ए संगमा और तारिक़ अनवर के हस्ताक्षर थे. इस चिठ्ठी के लीक होने के बाद बड़ा सियासी बवाल खड़ा हो गया और चारों तरफ कांग्रेसियों के विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए. सोनिया गांधी पार्टी का कामकाज छोड़ कर 10 जनपथ में बैठ गईं. कांग्रेसी सोनिया गांधी से वापसी की मनुहार करते रहे लेकिन वे बाहर निकलने को राजी नहीं थीं. 3 दिन तक यह सियासी ड्रामा चला और तब जाकर 19 मई 1999 को कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई जिसकी अध्यक्षता सोनिया गांधी की अनुपस्थिति में प्रणव मुखर्जी ने की. चिठ्ठी लिखने वाले तीनों नेताओं को कांग्रेस से निष्कासित किया गया और तब जाकर सोनिया गांधी ने पार्टी का कामकाज संभाला. इसके बाद तीनों नेताओं ने मिलकर नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी (NCP) बनाई और तब से लेकर आजतक शरद पवार इस पार्टी के अध्यक्ष हैं. हालांकि बाद में वे सोनिया गांधी की कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए राजी हो गए और 10 सालों तक मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार में कृषि मंत्री भी रहे. 1999-2014 के बीच 15 सालों तक महाराष्ट्र में भी कांग्रेस के साथ गठबंधन सरकार में उनकी पार्टी शामिल रही.


पवार ने 1999 में कांग्रेस से निकाले जाने के बाद तारिक़ अनवर और पी ए संगमा के साथ मिलकर NCP बनाई.
पवार ने 1999 में कांग्रेस से निकाले जाने के बाद तारिक़ अनवर और पी ए संगमा के साथ मिलकर NCP बनाई.

क्रिकेट की सियासत :

 2004 में शरद पवार क्रिकेट की राजनीति में उतरे लेकिन जगमोहन डालमिया के करीबी रणबीर महिन्द्रा से भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड यानी BCCI के अध्यक्ष का चुनाव करीबी अंतर से हार गए. लेकिन अगले साल यानी 2005 में वे BCCI के अध्यक्ष बनने में कामयाब रहे. उनके कार्यकाल के दौरान ही महेन्द्र सिंह धोनी को भारतीय क्रिकेट टीम की कप्तानी सौंपी गई, भारत को 2011 के विश्व कप की मेजबानी हासिल हुई, भारत टी-20 विश्व कप जीता, पहली बार टेस्ट में नंबर वन रैंकिंग हासिल हुई और इंडियन प्रीमियर लीग (IPL) की शुरूआत हुई.  2008 में पवार अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद यानी ICC के अध्यक्ष बने. उनके ICC का अध्यक्ष रहते भारत ने 2011 का विश्व कप जीता.

कैंसर से जंग :

 कृषि मंत्रालय और BCCI की एकसाथ जिम्मेदारी संभालने के दौरान एक वक्त ऐसा भी आया जब शरद पवार कैंसर की चपेट में आ गए. लेकिन इस दौर में उनके जीवन की तारीफ उनके विरोधियों ने भी की.  कीमोथेरेपी के साथ-साथ दो-दो जिम्मेदारी (कृषि मंत्रालय और क्रिकेट दोनों का काम) संभालना और दोनों के कामकाज को पूरा वक्त देना - यह कोई आसान काम नही था लेकिन पवार ने बखूबी अपनी जिम्मेदारी निभाई. और अंततः वे कैंसर पर विजय पाने में कामयाब रहे. आज भी महाराष्ट्र में तीन दलों (शिवसेना, एनसीटीसी और कांग्रेस) की सरकार को संभाले रखना और भतीजे की बगावत को (2019 में अजीत पवार देवेन्द्र फड़नवीस के साथ चले गए थे लेकिन अंततः वापस आ गए थे) थाम लेना - ये सब उनकी ऐसी राजनीतिक कलाबाजी है जिसने आज की जोड़-तोड़ की सियासत के उस्ताद माने जाने वाले अमित शाह को भी मात दे दी. महाराष्ट्र में बहुमत भाजपा गठबंधन को मिला लेकिन यह पवार के पावर का ही कमाल है कि भाजपा वहां विपक्ष में है. शरद पवार और अमित शाह की तुलना पर कई राजनीतिक टिप्पणीकार यह भी कहते हैं कि 'सत्ता के दम पर तो कोई भी चाणक्य हो सकता है लेकिन रसूख की असली परीक्षा तो तब होती है जब कोई बिना सत्ता के अपनी धमक बरकरार रख सके.'

ऐसी ही एक धमक 2019 में ED के नोटिस पर शरद पवार ने दिखाई और सिर्फ इतना कहा था कि 'ठीक है, मैं नोटिस का जवाब देने ED दफ्तर आ रहा हूं' और उनके इतना भर बोलने से ही सियासत में हलचल मच गई थी और अंततः वह नोटिस वापस ले लिया गया था.


महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार के आर्किटेक्ट शरद पवार ही हैं.
महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार के आर्किटेक्ट शरद पवार ही हैं.

अब देखना है कि सियासत को संभावनाओं का खेल मानने वाले शरद पवार को कभी प्रधानमंत्री की कुर्सी नसीब होती है या नही. फिलहाल तो उनके यूपीए अध्यक्ष बनने की चर्चा जोरों पर है. आज भी उनकी याददाश्त के बारे मे कहा जाता है कि महाराष्ट्र के किसी भी तालुका में गाड़ी रोककर 3-4 स्थानीय लोगों को नाम से आवाज दे सकते हैं. यही उनकी सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत है जिसके उनके विरोधी भी कायल हैं. इसके अलावे उनकी दोस्ती निभाने की कला के तो क्या नेता, क्या अभिनेता, क्या पत्रकार, क्या उद्योगपति और क्या आम आदमी, सब के सब मुरीद हैं.

2015 में उनके होमटाउन बारामती के विकास माॅडल को देखकर तत्कालीन वित्त मंत्री अरूण जेटली ने कहा था,
"भारत को कम से कम 100 बारामती की जरूरत है."