2009 टाइम्स ऑफ इंडिया
जयपुर के सुबोध कॉलेज में एक राजपूत लड़के और एक जाट लड़के के बीच मार-पीट हुई. जाट लड़के को जाट महासभा का समर्थन था और राजपूत लड़के को करणी सेना का. ये समर्थन राजस्थान यूनिवर्सिटी के बाकी कॉलेजों में भी चलता है. गांवों से बहुत लड़के पढ़ने आते हैं और शहर में इन संगठनों का सपोर्ट उनको मिलता है. वो लोग भी इनको सपोर्ट करते हैं. तो इनके पास मैनपावर बना रहता है.
2010 बिजनेस स्टैंडर्ड
करणी सेना ने आरोप लगाया कि कांग्रेस के चिंतन शिविर से पहले उनके नेता लोकेंद्र सिंह कालवी को पुलिस ने डिटेन कर लिया. कालवी ने सिक्योरिटी तोड़कर सोनिया गांधी के पास जाने का ऐलान किया था. ये मुद्दा आरक्षण की मांग को लेकर था. पुलिस ने गिरफ्तारी या डिटेंशन से इंकार कर दिया था.

करणी सेना के नाम से बने फेसबुक पेज से.
2014 द हिंदू
जयपुर पुलिस के पास प्रेस एसोशिएशन के लोग कंप्लेंट लेकर पहुंचे. कथित तौर पर लोकेंद्र सिंह कालवी के नेतृत्व में करणी सेना के लोगों ने 'जी मीडिया' के ऑफिस पर हमला किया था. ये हमला जोधा-अकबर सीरियल के संदर्भ में किया गया था.
हिंदुस्तान टाइम्स ने इसी मामले में रिपोर्ट किया था कि सेना से जुड़े प्रवीण जसोल और प्रोफेसर एल एस राठौड़ ने कानूनी एक्शन लेने की बात कही थी कि राजस्थान के इतिहास को और खराब न किया जाए. सेना का कहना था कि अबुल फजल की आइन-ए-अकबरी और अकबरनामा में जोधाबाई का कोई रिफरेंस नहीं है. जहांगीर की तुजुक-ए-जहांगीरी में भी नहीं है. ये विरोध आशुतोष गोवारिकर की फिल्म पर भी हुआ था.
28 जनवरी 2017
राजकुमारी पद्मिनी पर फिल्म को लेकर निर्देशक संजय लीला भंसाली के साथ करणी सेना के लोगों ने मार-पीट की. सेट को तोड़ दिया गया. हालांकि सेना को ये नहीं पता था कि स्क्रिप्ट में क्या लिखा गया है.

फरवरी 2017
राजपूत करणी सेना की नेशनल विंग राष्ट्रीय करणी सेना सक्रिय होने लगी. उससे ज्यादा चर्चा में आ गई.
4 मार्च 2017 टाइम्स ऑफ इंडिया
जयपुर में राष्ट्रीय करणी सेना के सपोटर्स ने भाजपा के ऑफिस पर हमला किया और विधानसभा के बाहर प्रोटेस्ट करने की धमकी दी. एक कार तोड़ दी और पोस्टर फाड़े. कथित तौर पर 200 लोग आए थे और राजस्थान के फरार गैंगस्टर आनंदपाल सिंह के सपोर्ट में नारे लगा रहे थे.
6 मार्च 2017 आजतक
13वीं शताब्दी के चित्तौड़गढ़ किले में कथित तौर पर करणी सेना के लोगों ने तोड़-फोड़ की. पद्मिनी महल के शीशे फोड़ दिए. ये लोग टूरिस्ट बनकर महल में घुसे थे. सेना ने इससे पहले चेतावनी दी थी कि अगर ये शीशे नहीं हटाए गए तो तोड़-फोड़ होगी. उनके मुताबिक ये शीशे झूठी कहानी बताते हैं.
महल में आने वाले पर्यटकों को गाइड बताते थे कि महल में लगे कांच में ही अलाउद्दीन खिलजी ने पद्मावती को देखा था. सेना के मुताबिक 11वीं शताब्दी में कांच का आविष्कार हुआ ही नहीं था. ऐसे में पैसों के लिए ये कहानी गढ़ी गई है. राष्ट्रीय करणी सेना के अध्यक्ष सुखदेव सिंह गोगामेड़ी ने कहा कि हमने महल से कांच हटाने के लिए सरकार और प्रशासन को 15 दिन का समय दिया था.
इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक 2006 में बनी करणी सेना क्लेम करती है कि साढ़े सात लाख रजिस्टर्ड मेंबर हैं राजस्थान में. इसके सारे सदस्य 40 की उम्र के नीचे हैं. जो 40 पार करते हैं वो एडवाइजरी कमिटी में डाल दिए जाते हैं. इस सेना के फाउंडर लोकेंद्र सिंह कालवी हैं. लोकेंद्र के पापा कल्याण सिंह कालवी पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की कैबिनेट में मंत्री हुआ करते थे. अभी सुखदेव सिंह इस सेना के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.
करणी नाम कहां से मिला?
ऐसी मान्यता है कि बीकानेर की करणी माता दुर्गा का अवतार हैं. जोधपुर और बीकानेर की रियासतें उन्हें बहुत मानती रही हैं. बीकानेर की स्थापना तो उनके आशीर्वाद से हुई थी. अब से 600-700 साल पहले उन्होंने अवतार लिया था. 151 की उम्र में वो इसी जगह से अंतर्ध्यान हो गई थीं. वहीं पर मंदिर बन गया. इस करणी माता के मंदिर की प्रसिद्धि दुनिया भर में है. दूर-दूर से लोग दर्शन को आते हैं. यहां की खास बात ये है कि मंदिर प्रांगण में बहुत सारे चूहे रहते हैं. उन्हें सम्मान से काबा कहा जाता है. न तो वे किसी को नुकसान पहुंचाते हैं, न कोई और एेसा करने की सोचता है. लोग बड़ी श्रद्धा से यहां आते हैं. चील, गिद्ध वगैरह से बचाने के लिए जाली लगाई गई है.

मंदिर की एक तस्वीर
जब देश में प्लेग की महामारी फैली थी, बताया जाता है कि इस मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ बनी रही थी और यहां प्लेग जैसी कोई समस्या कभी नहीं हुई. इसी से लोगों का विश्वास और पक्का होता गया. गलती से कोई काबा किसी से मर जाता है तो चांदी या सोने का छत्र या काबा बनाकर भेंट चढ़ाना पड़ता है.
करणी सेना राजस्थान की एकमात्र जाति आधारित सेना नहीं है. विप्र समाज के लिए परशुराम सेना आई थी. गुर्जर आंदोलन के दौरान देव सेना और पथिक सेना आईं. मीन सेना भी आई.
पर ये सेनाएं आ क्यों रही हैं? सरकार क्या सोच रही है इनके बारे में?
कोई भी संगठन तभी बनता है जब उससे जुड़े लोगों के हित कमजोर पड़ने लगते हैं. तो करणी सेना भी आरक्षण के मुद्दे को लेकर ही बनाई गई थी. ये हमेशा आरक्षण की समीक्षा चाहते हैं. पर धीरे-धीरे इस सेना ने समाज के बाकी मुद्दों पर भी प्रश्न उठाना शुरू किया. ये भी कह सकते हैं कि नए मुद्दे गढ़े गए. ज्यादातर नौजवान ही जुड़ते हैं इस सेना से.
2006 के बाद इस सेना को अपनी आवाज उठाने के लिए सामाजिक कामों में हिस्सा लेने की जरूरत पड़ी. तो ये लोग ब्लड-डोनेशन, सैनिक सम्मान समारोह जैसे कार्यक्रम करने लगे. इसके साथ ही फिल्मों में पूर्व-राजपूताना के गलत चित्रण को विवाद बना विरोध किया.

उस वक्त इन विरोधों को सरकारी तंत्र और बौद्धिक समाज ने ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया था. ऐसा माना जाता था कि इनोसेंट और अहिंसक लोग हैं जो इतिहास और पॉलिटिक्स को नहीं समझते हैं. अपने हिसाब से विरोध करते हैं. इन विरोधों को एंटरटेनमेंट के तौर पर लिया गया. ये समझा गया कि ये लोग किसी तंत्र को प्रभावित नहीं कर पाएंगे.
पर धीरे-धीरे ऐसे संगठनों की ताकत बढ़ी. लोग जुड़ते गए और समाज में इनकी दखल बढ़ने लगी. सरकार इनकी तरफ से आंखें मूंदे रही. किसी ने ये जानने की कोशिश नहीं की कि आखिर क्यों नौजवान ऐसे संगठनों में अपना टाइम और ऊर्जा दे रहे हैं? राजस्थान में वैसे भी ढेर सारी समस्याएं हैं. कई आंदोलन भी होते रहते हैं. गुर्जर आंदोलन को तो नेशनल मीडिया पर भी खूब दिखाया गया था. पर हमेशा यही लगा कि राजनीतिक तंत्र किसी तरह से टरका देता है. उस वक्त पर संभाल लेता है इन लोगों को. आगे का नहीं सोचता.
जब अलाउद्दीन खिलजी वाला प्रकरण (भंसाली पर हमला) हुआ, तो भी राजस्थान सरकार या केंद्र सरकार किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पाई. कि फिल्म और विरोध को लेकर क्या स्टैंड होना चाहिए? दोनों ही पक्षों के लोग अपनी जगह पर सही हैं. अगर फिल्म बनाने वाला अपने हिसाब से कहानी बदलता है तो ये उसकी इच्छा है. और लोग अपने यहां के इतिहास के बदलने को लेकर आहत हैं तो ये उनका इमोशन है. पर सरकार कोई बीच का रास्ता नहीं निकाल पाई. आखिर जब इसरो का कार्टून न्यू यॉर्क टाइम्स में छपा था तो भारत ने विरोध तो जताया ही था. तो संवाद नहीं हुआ. इसके बाद करणी सेना ने पद्मिनी महल से शीशे हटाने की मांग की. तो भी राजस्थान सरकार ने कोई एक्शन नहीं लिया.

इसी मार्च में सवर्ण अधिकार सम्मेलन मंच में राजस्थान के ऊर्जा मंत्री पुष्पेंद्र सिंह ने राजपूत समुदाय को भरोसा दिया कि फिल्म बिना आपको दिखाए रिलीज नहीं होगी. पर लोग डिमांड कर रहे थे कि फिल्म पर बैन लगे. इसके साथ ही ये भी डिमांड हो रही थी कि ऊंची जातियों के गरीब लोगों को आरक्षण मिले और राजपूत समुदाय के चतुर सिंह सोढ़ा के कत्ल की सीबीआई जांच हो.इन मांगों में हम, लोगों की हताशा और उनका कन्फ्यूजन देख सकते हैं. राज्य और केंद्र की पॉलिटिक्स क्यों मौन है इस पर? जब लाखों लोग असंतुष्ट हैं, एक जाति आधारित संगठन में काम कर रहे हैं तो सरकार को अलर्ट हो जाना चाहिए. जाट आंदोलन, गुर्जर आंदोलन के दौरान संबंधित राज्यों में हुई अराजकता और बर्बादी हम पहले ही देख चुके हैं. इन आंदोलनों में किसी भी मर्यादा का खयाल नहीं रखा गया था. ये आंदोलन मांग से उठकर दंगों की स्थिति में आ गये थे. भयानक सामाजिक-आर्थिक घाटा हुआ था सरकार को.
अब राजपूत करणी सेना राष्ट्रीय करणी सेना के रूप में पहचान बना रही है. जाहिर सी बात है कि मकसद देशव्यापी आंदोलन खड़ा करने का है. इसका मकसद छोटा नहीं है. अगर इनकी मीटिंग देखें तो तमाम वादे किए जाते हैं. सबका उत्साह बढ़ाया जाता है. इतिहास के गर्व को दुहराया जाता है. ये कहा जाता है कि भविष्य में ये गर्व वापस आएगा. इनसे जुड़े ज्यादातर लोग वैसे ही हैं जो आधुनिक समाजों में जरूरी समानता के भाव और गैर-जातिवादी व्यवस्था से अनजान हैं. वॉट्सएप और फेसबुक पर इनके बीच अपनी ही तरह के जातिवादी सच फैलाए जाते हैं.
जाति आधारित संगठनों पर चुप रहने का मकसद एक ही है. वोट बैंक की पॉलिटिक्स. पर अब तो वोट का डिस्कोर्स चेंज किया जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने भी आदेश दिया है कि जाति-धर्म को चुनाव के दौरान कोट नहीं किया जाएगा. तो ये मौका है कि पॉलिटिकल पार्टियां इस बात को फॉलो करें. जातिवादी संगठनों को एन्डॉर्स ना करें. जब हम उनकी बातें सुनते हैं और उनके कामों से आंखें मूंद लेते हैं तो उनके प्रतिरोध को मजबूत ही करते हैं. ऐसा नहीं है कि कोई डिमांड करने वाले लोग गलत हैं. अपराधी हैं. ध्यान दें कि करणी सेना के ये सारे लोग युवा हैं.
अगर हम सोशल मीडिया के आने के बाद की स्थिति देखें तो ऐसी सेनाएं बनाना और मांग रखना आसान हो गया है. इनके लिए फंडिंग भी हो जा रही है. बौद्धिक लोग भी जुड़ रहे हैं. कुछ वक्त पहले तक वो लोग इनसे परदा रखते थे. पर अब ऐसे लोगों को पिछड़ा मानकर लोग इनसे जुड़ने में गर्व महसूस कर रहे हैं. पर किसी की वजहें सही नहीं हैं. क्योंकि सारी बातें रेटॉरिक हैं. लंबे भाषण और वादे हैं. कन्फ्यूजन है. इनकी मांगों को देखकर ये नहीं पता लगता कि लोग क्या चाहते हैं. जिद्दी बच्चे की तरह अपनी मांग रखते हैं. बुली की तरह मार-पीट पर उतारू हो जाते हैं. सरकार बड़े पापा की तरह चॉकलेट पकड़ा देती है.
ये सही वक्त है कि समाज और राजनीति के जिम्मेदार लोग इन युवाओं के साथ बैठें और बातें करें. उनको रास्ते सुझाएं. क्योंकि भारत की 70% आबादी युवा है. सोचिए अगर हर जगह सेनाएं बनने लगीं जिनका कोई क्लियर मकसद नहीं है तो क्या-क्या डिमांड उठ सकती है. ये न्यूक्लियर प्लांट की एनर्जी है, जिसे मॉडरेटर की जरूरत है. अगर गलत हाथों में पड़ गई तो बर्बादी लाएगी.
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