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काटने, पानी न देने पर पौधे रोते हैं, वैज्ञानिकों ने आवाज रिकॉर्ड कर ली

कल्पना कीजिए आप एक ताजा सेब लेकर उसे छुरी से काटें और सेब दर्द से चिल्लाने लगे!

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पौधे संवेदनशील होते हैं, ये भारतीय वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बसु बहुत पहले बता चुके हैं (प्रतीकात्मक चित्र- आज तक)

पौधों में जान होती है. वो बढ़ते हैं, फलते-फूलते हैं. फिर एक दिन सूखकर मर जाते हैं. विज्ञान कहता है कि पौधे हमारी छुअन को महसूस करते हैं, उन्हें दर्द होता है. लेकिन क्या वो इजहार नहीं कर पाते? जैसे इन्सान करते हैं, रोकर, चीख-चिल्लाकर. कल्पना कीजिए आप एक ताजा सेब लेकर उसे छुरी से काटें और सेब दर्द से चिल्लाने लगे, या आप एक हफ़्ते के लिए घर से बाहर हों. आपकी बालकनी में रखे पौधों को पानी न मिले और जब आप लौटकर आएं तो सारे गमलों से शिकायत, नाराजगी और दर्द भरी आवाजें आ रही हों. एक रिसर्च में अब ये बात साबित हो गई है कि पौधे भी दुःख, तकलीफ में रोते हैं. बस हमारे कान अभी तक उनका रोना सुन नहीं पाए थे. जो अब मशीनों ने सुन लिया है.

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आज हम पौधों पर हुई एक नई रिसर्च पर बात करेंगे, जिसने साबित किया है कि पौधों की भी आवाज करते हैं, और तब ज्यादा आवाज करते हैं जब वो किसी दिक्कत या तनाव में होते हैं.

रिसर्च क्या कहती है?

30 मार्च, 2023 को साइंस जर्नल Cell.com में इजराइल की तेल अवीव यूनिवर्सिटी के कुछ बायोलॉजिस्ट्स की एक रिसर्च छपी. जिसके मुताबिक, पौधे अगर तनाव या दिक्कत में हैं तो आवाज़ करते हैं. और उन्होंने जैसी दिक्कत झेली है, उसी हिसाब से आवाज़ बदलती भी है. ये आवाज कई फ़ीट दूर से सुनी जा सकती है. आवाज क्यों होती है? रिसर्चर्स का कहना है कि पौधों से आने वाली ज्यादातर आवाजों की पीछे की सबसे संभावित वजह कैविटेशन है. कैविटेशन को ऐसे समझिए कि खाना और पानी जड़ से लेकर पौधे के बाकी हिस्सों तक पहुंचाने के लिए वैस्कुलर सिस्टम यानी संवहन तंत्र होता है. इस वैस्कुलर सिस्टम में प्रेशर डिफरेंस के चलते बुलबुले बनते हैं. और ये बुलबुले जब फूटते हैं तो हल्की तरंगें उठती हैं. इन्हीं तरंगों से पॉपकॉर्न के पकने जैसी आवाज होती है.

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अंग्रेजी अखबार, न्यूयॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक, तेल अवीव यूनिवर्सिटी में काम करने वाली बायोलॉजिस्ट लिलेक हेडेनी कहती हैं,

“पौधे, दूसरे पौधों से ही नहीं बल्कि दूसरे जीवों से भी कम्यूनिकेट करते हैं. ऐसा करते वक़्त उनसे एक केमिकल निकलता है, इस दौरान उनसे मक्खियों के भिनभिनाने जैसी आवाज आती है. लेकिन जब इन आवाजों पर रिसर्च करके इन्हें डिटेक्ट करने की बात आती है तो इस बारे में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती. पौधों की आवाजों से जुड़े इस सवाल को लेकर मैं परेशान थी.”

हेडेनी इसके बाद तेल अवीव में योसी योवेल से मिलीं. वो चमगादड़ों की आवाजों पर स्टडी कर रहे थे. फिर पौधों की आवाजों पर शोध करने का फैसला लिया गया.

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तंबाकू और टमाटर पर रिसर्च हुई

रिसर्च, तंबाकू और टमाटर के पौधों पर हुई. क्योंकि ये दोनों ही पौधे आसानी से उगते हैं और इनकी जेनेटिक्स को बेहतर तरीके से समझा जा चुका है. एक्सपेरिमेंट के लिए पौधों को लकड़ी के साउंडप्रूफ़ बक्सों में रखा गया. न इन बक्सों के अन्दर कोई आवाज जा सकती थी और न ही अन्दर से बाहर आ सकती थी. बक्सों में पौधों के अलावा कोई ऐसी चीज भी नहीं थी, जिससे किसी भी तरह की आवाज आती हो. बॉक्स में तीन तरह के पौधे रखे गये थे. एक वो - जिन्हें कई दिनों से पानी नहीं दिया गया था, दूसरे वो - जिनके तने काट दिए गए थे और तीसरे वो - जो सामान्य थे.  माने न उनको प्यासा रखा गया और न कोई अंग काटा गया. इसके बाद पौधों के तनों पर अल्ट्रासोनिक माइक्रोफ़ोन लगाए गए. ये अल्ट्रासोनिक माइक्रोफ़ोन, 20 से लेकर 250 किलोहर्ट्ज तक की फ्रीक्वेंसी की आवाजें रिकॉर्ड कर सकते थे. (हम इंसान 20 किलोहर्ट्ज़ से ज्यादा फ्रीक्वेंसी की आवाज नहीं सुन सकते हैं.) 

इसके बाद आए नतीजे चौंकाने वाले थे. एक तो पौधों की आवाज रिकॉर्ड हो गई और दूसरा, वो पौधे जिन्हें पानी नहीं दिया गया था, या जिनके तने काट दिए गए थे. उन्होंने ज्यादा आवाज की.

हेडेनी कहती हैं,

"हमने जो रिकॉर्डिंग्स कीं, उनसे साफ हुआ कि एक्सपेरिमेंट में पौधों ने 40 से 80 किलोहर्ट्ज़ तक की की फ्रीक्वेंसी की आवाजें पैदा कीं. जिन पौधों को कोई दिक्कत नहीं थी उन्होंने औसतन एक घंटे में एक से भी कम बार आवाज की. जबकि जिन पौधों को दिक्कत थी उन्होंने हर एक घंटे में 12 बार तक आवाजें पैदा कीं."

रिसर्चर्स ने ऐसी ही आवाजें उन पौधों से भी डिटेक्ट कीं, जिन्हें ग्रीनहाउस कंडीशंस में रखा गया था. ग्रीनहाउस कंडीशंस माने कांच या पॉलिशीट की दीवारों का ऐसा वातावरण, जहां ज्यादा गर्मी मेंटेन की जाती है. ख़ास तौर पर सर्दियों के मौसम में ग्रीनहाउस में पौधे उगाए जाते हैं. 

एक और ख़ास बात, रिसर्चर्स ने पाया कि ये कि ये आवाजें रैंडम नहीं थी. टमाटर और तंबाकू के अलावा, गेहूं, मक्का, कैक्टस, अंगूर जैसे पौधों पर भी रिसर्च हुई. सभी पौधे अलग-अलग दिक्कतों के लिए अलग-अलग तरह की आवाज निकाल रहे थे. इस एनालिसिस में मशीन लर्निंग का इस्तेमाल किया गया था, जिससे 70 फीसद तक ये ठीक-ठीक पता चला कि कौन सी आवाज पौधे की किस दिक्कत की वजह से आ रही है. माने आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करके, रिसर्चर पौधों के तनाव के प्रकार और उसके स्तर को तय करने में सफल रहे.

हेडेनी आगे कहती हैं,

"इस स्टडी से हमने एक बहुत पुराने वैज्ञानिक विवाद को सुलझाया है. हमने साबित किया है कि पौधे आवाजें निकालते हैं. हमारे निष्कर्षों से साफ़ है कि हमारे आस-पास की दुनिया पौधों की आवाजों से भरी हुई है. और ये आवाजें ये जानकारी भी देती हैं कि पौधे को पानी की जरूरत है या वो घायल है."

आवाजें हम क्यों नहीं सुन सकते?

रिसर्च पेपर के मुताबिक पौधों से आने वाली ये आवाजें, पॉपकॉर्न की पॉपिंग के जैसी हैं. इन्हें 16 फीट की दूरी से रिकॉर्ड किया जा सकता है. इन्हें चूहे जैसे जानवर सुन भी सकते हैं, लेकिन ये हमारी हियरिंग रेंज से बाहर होती हैं. हमारी हियरिंग रेंज कितनी है? किस रेंज की साउंडवेव हम सुन सकते हैं? इसके दो आयाम हैं- एक आवाज की इंटेंसिटी और दूसरा फ्रीक्वेंसी. हमारा कान 20 हर्ट्ज़ से 20 किलोहर्ट्ज़ तक की आवाजें सुन सकता है. हालांकि उम्र के हिसाब से ये रेंज कुछ कम-ज्यादा भी हो सकती है. 

20 हर्ट्ज़ से नीचे की आवाजें, इन्फ्रासाउंड कही जाती हैं. कुछ कीट-पतंगे, चूहे और हाथी वगैरह ये आवाजें सुन सकते हैं. और 20 किलोहर्ट्ज़ यानी 20 हजार हर्ट्ज़ से ज्यादा फ्रीक्वेंसी की साउंड वेव को अल्ट्रासाउंड कहा जाता है. कुत्ते और बिल्ली वगैरह इस फ्रीक्वेंसी की आवाजें सुन सकते हैं. वहीं चमगादड़ और डॉलफिन करीब 160 किलोहर्ट्ज़ तक की हाईफ्रीक्वेंसी की आवाजें सुन सकते है. 

ये तो हो गई फ्रीक्वेंसी की बात. अब इंटेंसिटी समझिये. कहा जाता है कि पटाखों की तेज आवाजें कान को नुक्सान पहुंचा सकती हैं. आकंड़ों में कहा जाए तो 90 डेसीबल या इसके ऊपर की तेज आवाज. लेकिन अगर तीव्रता की रेंज की बात करें तो शून्य डेसिबल से लेकर 120 डेसीबल तक इंटेंसिटी की आवाज हमारी हियरिंग रेंज में आती है. लेकिन फिर भी बहुत तेज आवाज या शोर से बचना चाहिए.

एक सवाल और बाकी है. क्या पौधे, दूसरे पौधों की या अपने आस-पास की आवाजें भी सुन सकते हैं? इसका जवाब है - 'हां'. हेडेनी की टीम ने साल 2019 में भी एक रिसर्च की थी. जिसके मुताबिक, जब परागण या पॉलिनेशन करने वाले कीट-पतंगे वगैरह की आवाजें फूलों तक पहुंचती है तो वो ज्यादा मात्र में पराग बनाने लगते हैं. यानी पौधों द्वारा टू वे कम्यूनिकेशन की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता.

बसु ने तो पहले ही बता दिया था

एक भारतीय वैज्ञानिक थे जगदीश चंद्र बसु. उन्होंने साल 1901 में ही साबित कर दिया था कि पेड़ पौधों में जान होती है. उन्होंने पेड़-पौधों की हरकतों को रिकॉर्ड भी किया था. लेकिन ये तथ्य नया है कि पौधे अपने एहसासों को अपनी आवाज से जाहिर कर सकते हैं. वाकई प्लांट फिजियोलॉजी को और बेहतर समझने की दिशा में यह एक बड़ा कदम है. 

वीडियो: साइंसकारी: विस्फोटक पता लगाने और ईमेल भेजने का काम कैसे कर रहे ये पौधे?

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