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'जाने कब कौन किसे मार दे काफ़िर कह के, शहर का शहर मुसलमान हुआ फिरता है'

क्या होता है जब लोग मज़हब में हद से ज़्यादा घुस जाते हैं?

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फोटो - thelallantop
पाकिस्तानी लेखक जमशेद इक़बाल ने पाकिस्तानी मुस्लिम समुदाय की बढ़ती धार्मिक कट्टरता पर एक लेख लिखा है. लेख मूल रूप से उर्दू में है जिसका हिंदी में अनुवाद किया है ‘दी लल्लनटॉप’ के एक पाठक कपिल बजाज ने. पेशे से जर्नलिस्ट कपिल अपना एक ब्लॉग (थिंकिंग थ्रू) भी चलाते हैं. उन्होंने लेख के साथ दिलचस्प प्रस्तावना भी लिखी है. आपको दोनों पढ़ाते हैं. 



प्रस्तावना

भारतीय उपमहाद्वीप का वह भू-भाग, जिसे 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान बना दिया गया, 'विभाजन' से पहले से ही घना 'मुसलमान' था. यही कारण भी बताया गया था इस भू-भाग को 'पाकिस्तान' करने का. यह पर्याप्त नहीं था. इसलिए इस भू-भाग को 1947 में ही ग़ैर मुस्लिमों से लगभग ख़ाली कराके और 'मुसलमान' कर दिया गया. आज यह भू-भाग, विकिपीडिया के अनुसार 96 प्रतिशत से भी अधिक 'मुसलमान' है, पर 1947 से लेकर आज तक पाकिस्तान का 'मुसलमान और मुसलमानी बढ़ाओ' आंदोलन जारी है.
पाकिस्तानी लेखक जमशेद इक़बाल लिखते हैं कि पाकिस्तान में मज़हब को इतने सस्ते दामों बेचा गया है कि यह अज्ञानी जनता के हाथ में भी नंगी तलवार बन गया है जो किसी भी अभागे की गर्दन पर चल सकती है. यह तलवार चली भी बहुत है पिछले 8-10 सालों में. विशेषकर उन पाकिस्तानियों की गर्दनों पर जो 'मुसलमान' ही कहलाते थे.
जमशेद इक़बाल के इस लेख के अनुसार किसी व्यक्ति के बिस्तर पर लेटने की दिशा, किसी आदमी की दाढ़ी-मूँछ की तराश, किसी का कुछ ऐसा कह या कर देना (या ना करना) जिसे मज़हब के अपमान के रूप में देखा जा सके -- कुछ भी उसकी 'मुसलमानी' की परीक्षा बन सकता है और परीक्षक कोई भी अन्य व्यक्ति या लोगों का जमघट हो सकता है. ग़ैर मुस्लिमों की भांति अपर्याप्त 'मुसलमान' समझे जाने वालों पर भी प्रायः 'काफ़िर' का ठप्पा लगाया जाता है.
(एक 'मुसलमान' का दूसरे 'मुसलमान' को 'काफ़िर' क़रार देना 'तकफ़ीर' कहलाता है. 'काफ़िर' और 'तकफ़ीर' दोनों शब्द 'कुफ़्र' से बने हैं जिसका अर्थ लिया जाता है 'इस्लाम के ख़ुदा को ना मानना'.)
जमशेद इकबाल.
जमशेद इकबाल.

प्रस्तुत है जमशेद इक़बाल का उर्दू में लिखा यह लेख जो पाकिस्तान की 'हम सब' ऑनलाइन मैगज़ीन में 19 जुलाई 2018 को प्रकाशित हुआ. इस लेख का यहाँ देवनागरी में लिप्यंतरण मात्र किया गया है; उन शब्दों के अर्थ जो हिंदी पाठकों के लिए बहुत अजनबी हो सकते हैं कोष्ठकों में दिए गए हैं.
इस लेख का शीर्षक एक लोकप्रिय नज़्म के अंतिम शेर से लिया गया है जो इस प्रकार है.
"जाने कब कौन किसे मार दे काफ़िर कह के
शहर का शहर मुसलमान हुआ फिरता है"

यह नज़्म - जो एक पाकिस्तानी वेबसाइट के मुताबिक़ मुल्तान के शायर जलील हैदर लाशारी ने लिखी है - इस लेख के अंत में दी गई है.


जमशेद इक़बाल का आर्टिकल:

जब पहली बार मौजूदा 'हेअर स्टाइल' इख्तियार करने की ग़र्ज़ से नाई के पास गया तो वह मेरी हिदायात ग़ौर से सुनने के बाद फ़रमाने लगा कि अगर मैं मतलूबा (इच्छित) स्टाइल की बजाए उसकी मर्ज़ी का स्टाइल और दाढ़ी रख लूँ तो मुझे भी सवाब (पुण्य) होगा और उसे भी.
मैंने अर्ज़ की: 'अगर मुझे गुनाह और सवाब का मसला लाहिक़ होता (पाप और पुण्य की दुविधा होती) तो मैं किसी नाई के पास नहीं किसी मुफ़्ती साहब या आलिम-ए-दीन (दीन या मज़हब का विद्वान) के पास जाता. सर-ए-दस्त (फ़िल्हाल) मुझे 'बाल' बनवाने हैं; इसलिए आपके पास आया हूँ. आप वह कुछ करें जो मैं आपसे कह रहा हूँ. या फिर यह काम छोड़ें, किसी मदरसे में दाख़िला लें और मुफ़्ती बनने तक ऐसे मश्वरों से परहेज़ करें.'
नाई यह सुन कर ख़ामोश हो गया और मेरे सर पर फ़ोम लगाकर उस्तरा चलाने लगा. मगर ज्यूं ही मेरी उसके चेहरे पर नज़र पड़ी तो शदीद सर्दी के बावजूद ख़ौफ़ से मेरे पसीने छूट गए. मैं सामने शीशे में देख रहा था कि वह तेज़ धार उस्तरे से मेरे सर की शेव कर रहा है जबकि उसके चेहरे का रंग ग़ुस्से से लाल हो चुका है.
पाकिस्तानी सलून.
पाकिस्तानी सलून.

मुझे अपनी ग़लती का एहसास हो चुका था कि मैंने बात तो ग़लत नहीं की, मगर बात करते वक़्त ज़मान-ओ-मकान (समय और स्थान) से बेख़बर ज़रूर हो गया था.
वह जितनी देर मेरे सर पर उस्तरा चलाता रहा मेरा कलेजा हलक़ में अटका रहा. क्योंकि ऐन मुमकिन था कि वह उस्तरे के एक वार से मेरा सर दो टुकड़ों में काट देता, मेरा भेजा सामने शीशे पर जा गिरता, और तौहीन-ए-मज़हब के मुर्तकिब (मज़हब का अपमान करने वाले) किसी शख़्स का क़त्ल करके वह अमर हो जाता. यह सोच कर मैं मज़ीद (और अधिक) डर गया कि अभी तो दाढ़ी बनाते वक़्त उसने मेरे गले पर भी उस्तरा चलाना है.
मैंने फ़ौरन उसे एंगेज किया, बातों में लगाया, सामने पड़े मोबाइल पर मुल्क के मारूफ़ (जाने माने) उलमा-ए-कराम के साथ (मज़हब के विद्वानों के साथ) अपनी तसावीर (तस्वीरें) दिखाईं. उसके काम और सैलॉन की तारीफ़ की और एक आध हल्की-फुल्की बात की. तब कहीं जाकर उसका चेहरा मामूल पर आया.
इससे मिलता जुलता वाक़या, जिसका शिकार मैं नहीं कोई और हो सकता था उन दिनों पेश आया, जब मैं नौजवानों के हफ़्ता-वार तरबियती रेडियो प्रोग्राम (साप्ताहिक, प्रशिक्षण-सम्बन्धी रेडियो प्रोग्राम) में एक माहिर की हैसियत से शरीक हुआ करता था.
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मुझे याद है उस रोज़ मैं मुक़र्ररा वक़्त से कुछ पहले पहुँच कर रेडियो स्टेशन के किचन में रखे डिस्पेंसर से पानी पी रहा था, जहाँ एक नौजवान बावर्ची (रसोइया) चाय बनाने में मसरूफ़ था. सफ़ाई करने वाला लड़का - जो सिर्फ़ सुबह के वक़्त दिखाई देता था - उससे बातें कर रहा था.
मैंने पानी लेकर पीते हुए सुना कि सफ़ाई वाला लड़का बावर्ची को बता रहा है कि आज सुबह जब वह सफ़ाई करने के लिए पहुँचा है तो रेडियो स्टेशन का एक चपड़ासी - जो स्टेशन में ही रहता था - क़िब्ला (मक्का में स्थित काबा की दिशा -- जिस ओर मुसलमान मुँह करके नमाज़ पढ़ते हैं) की तरफ़ टाँगें किए सो रहा था.
यह सुनकर बावर्ची आग बगूला हो गया और कहने लगा: "पक्का जहन्नुमी और लानती है यह शख़्स! तुम्हें पता है क़िब्ला की तरफ़ टाँगें करके सोने की क्या सज़ा है? अहादीस (पैग़म्बर मुहम्मद के कथनों, कर्मों या आदतों का वर्णन जिससे मुसलमान मार्गदर्शन लेते हैं) में आया है कि जिसे भी क़िब्ला रुख़ टाँगें करके सोते देखो उसकी टाँगें काट दो."
उस निजी रेडियो स्टेशन के मालिक चूँकि मेरे अच्छे दोस्त हैं इसलिए मैंने गिलास रखकर हिम्मत करके बावर्ची-पेशा मुफ़्ती साहब से पूछ लिया कि क्या वह मुझे उस हदीस ('अहादीस' का एकवचन) के अल्फ़ाज़ और रेफ़रेन्स वग़ैरह देंगे जिसकी रौशनी में वह फ़तवा दाग़ रहे हैं.
इस पर वह आएँ बाएँ शाऐं करने लगा.
मैंने सफ़ाई वाले लड़के को समझाया कि आप मुहब्बत से उसे समझा दें कि क़िब्ला के रुख़ टाँगें करके ना सोया करे; सख़्ती और तशद्दुद (हिंसा) की कोई ज़रुरत नहीं.
इससे मिलता जुलता तीसरा वाक़या तब पेश आया जब मैं कराची से एक तरबियती प्रोग्राम में तरबियत-कार के फ़राइज़ सर-अंजाम देकर (प्रशिक्षक का दायित्व निभा कर) सह-पहर (तीसरे पहर) को घर पहुँचने के बाद थकावट की वजह से कुछ देर के लिए सो गया.
अभी आँख लगी ही थी कि घंटी से मेरी आँख खुल गई. उस वक़्त घर में और कोई नहीं था क्योंकि बेगम बच्ची को ट्यूशन छोड़ने जा चुकी थी.
मेरा घर बालाई मंज़िल (सबसे ऊपर वाली मंज़िल) पर था; इसलिए मैंने सामने के टेरेस से देखा तो एक माँगने वाला शी-मेल (ट्रांसजेंडर) दरवाज़े पर खड़ा मुझसे मदद की अपील कर रहा था.
मैंने निहायत एहतराम से (सम्मानपूर्वक) अर्ज़ की कि ‘एक रात से जागा हुआ हूँ; घंटी बजाकर माँगना कोई अच्छी बात नहीं'.
मैं हैरान रह गया कि यह सुनकर वह माज़रत करने की बजाए (खेद प्रकट करने की बजाए) चिल्ला चिल्ला कर, तालियाँ बजा बजा कर कहने लगा: "क़ुरआन पढ़ें - हदीस पढ़ें - ज़वाल के वक़्त सोना (सूरज के उतरते समय सोना) कोई अच्छी बात नहीं. ऐसा काम तो काफ़िर करते हैं, मुशरिक (ऐसे लोग जो - मुसलमानों के अनुसार - ख़ुदा के एकत्व में किसी और को शरीक करें; अर्थात काफ़िर) करते हैं, हिन्दू करते हैं, दीन के दुश्मन करते हैं."
यह सुनते ही मैं कमरे की तरफ़ दौड़ा और बटुए में क़ाबिल-ए-ख़ैरात (दान देने योग्य) जितनी नक़दी थी हाथ में ली और उस पर वार दी, जो अभी तक गली में खड़ा मेरे ख़िलाफ़ फ़तवे पर फ़तवा देने में मसरूफ़ था. मुझे ख़ौफ़ था कि उसके फ़तावा ('फ़तवा' का बहुवचन) सुनकर गली में किसी के ईमान ने भी आग पकड़ ली तो मेरी सारी तामीर (सारी बनी बनाई) राख का ढेर बन जाएगी.
यहाँ इससे मिलते जुलते वाक़यात हर-एक के साथ पेश आ रहे हैं क्योंकि यहाँ मज़हब और उसकी तशरीह (व्याख्या) पहले अमन-पसंद उलमा ('आलिम' का बहुवचन) के हाथ से निकाल कर फ़साद-पसंदों के हाथ में दी गई और फिर उन्होंने यह अमानत इतनी बेदर्दी से इतने अरज़ां निर्खों पर (सस्ते भावों पर) हर-एक में बाँटी है कि जो कुछ भी नहीं जानता वह मज़हब के सिलसिले में सब जानने का दावेदार हो गया है.
जो अपनी मर्ज़ी, इरादे और इम्कान (संभावना) से आगाह नहीं वह मशीयत-ए-ईज़दी (अल्लाह की मर्ज़ी) की कामिल तफ़्हीम का (पूरी समझ का) ज़ुअम (गुमान) रखता है.
मज़हब जिन सिफ़ली जज़्बात (नीच जज़्बात या भावनाएँ) और ख़बाइस-ए-बातिना (मन की मैल) के ख़िलाफ़ ढाल होने का दावेदार था, आज उन्हीं जज़्बात और ख़बाइस के हाथ में नंगी तलवार बन चुका है जो किसी वक़्त किसी की गर्दन पर चल सकती है.
कोई है जो हर एक के हाथ लगी इस तलवार को कौन-ए-नियाम (म्यान) में डाले?
कोई है जो इसे पिघला कर दोबारा ढाल में बदल दे?


नज़्म

कैसी बख़्शिश का ये सामान हुआ फिरता है
शहर सारा ही परेशान हुआ फिरता है

एक बारूद की जैकेट और नारा-ए-तकबीर
रास्ता ख़ुल्द का आसान हुआ फिरता है

कैसा आशिक़ है तेरे नाम पे क़ुर्बां है मगर
तेरी हर बात से अनजान हुआ फिरता है

हम को जकड़ा है यहाँ जब्र की ज़ंजीरों ने
अब तो ये शहर ही ज़िन्दान हुआ फिरता है

शब को शैतान भी माँगे है पनाहें जिससे
सुबह वही साहिब-ए-ईमान हुआ फिरता है

जाने कब कौन किसे मार दे काफ़िर कह के
शहर का शहर मुसलमान हुआ फिरता है



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