16 अक्टूबर, 1951. रावलपिंडी के कंपनी बाग में लियाकत अली खान की हत्या कर दी गई. लियाकत के बाद पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने ख्वाजा नजीमुद्दीन. वही ख्वाजा, जिन्हें जिन्ना की मौत के बाद पाकिस्तान का गर्वनर जनरल बनाया गया था. जब ख्वाजा PM बने, तब गर्वनर जनरल के सिंहासन पर गुलाम मुहम्मद की ताजपोशी हुई.
17 अप्रैल, 1953. गुलाम मुहम्मद ने ख्वाजा नजीमुद्दीन को बर्खास्त कर दिया. गुलाम मुहम्मद के पाकिस्तानी सेना के साथ बड़े अच्छे ताल्लुकात थे. ख्वाजा ने कहा, उनकी बर्खास्तगी गलत है. अवैध है. ख्वाजा ने तय किया कि वो लंदन फोन करके ब्रिटेन की महारानी ऐलिजाबेथ II से शिकायत करेंगे. उनसे कहेंगे कि वो गुलाम मुहम्मद को बर्खास्त कर दें. ख्वाजा ने फोन का रिसीवर उठाया. पाया कि डायल टोन गायब है. उनकी टेलिफोन लाइन काट दी गई थी. पुलिस ने उनके घर को चारों तरफ से घेर लिया था. आने वाले दिनों में पाकिस्तान के अंदर आए दिन ऐसे तमाशे होने वाले थे.

ए से जुड़ा है बी, बी से सी और यूं ही जुड़ी है पूरी डिक्शनरी ये एक वाकया आने वाले दिनों की झलक था. कि कैसे पाकिस्तान में लोकतंत्र को ठेंगा दिखाया जाएगा. कि कैसे वहां लोकतंत्र नौकरशाही और सेना के हाथों रेहन पड़ा रहेगा. कि नेता अपने विरोधियों को ठिकाने लगाने के लिए कुछ भी कर गुजरेंगे. इस घटना में एक और पते की बात थी. बंगाल बनाम पंजाब का मुकाबला. जिसने आगे चलकर पाकिस्तान के दो टुकड़े किए. इस आर्टिकल में उस दशक का जिक्र है, जिसने शायद पाकिस्तान को सबसे ज्यादा तबाह किया. इस दशक में पाकिस्तान की बागडोर जिस-जिसके हाथ में आई, वो सब जैसे इस दुधमुंहे देश को अफीम चटाकर मारने पर तुले थे.
पैदा होते ही पाकिस्तान को कई रोगों ने चांप लिया था जिसको हम लोकतंत्र कहते हैं, उसी को उर्दू में जम्हूरियत कहते हैं. आजादी के बाद भारत में लोकतंत्र आया. मगर पाकिस्तान में जम्हूरियत अव्वल तो देर तक आई ही नहीं, फिर जब आई, तो ऐसा आई मानो गर्भ के छठे महीने में पैदा होने वाला बच्चा. कमजोर, कुपोषित और अब मरा-तब मरा की हालत में. ऐसा क्यों हुआ, इसका जवाब 1950 के दशक में छुपा है. इसी दशक ने पाकिस्तान की तकदीर बनाई. ऐसा पाकिस्तान, जहां नेता और राजनैतिक पार्टियों की कोई औकात नहीं थी. जहां नौकरशाही और सेना बाकी सब चीजों पर हावी. हम पीछे की दो किश्तों में जिन्ना और लियाकत अली खान को निपटा आए थे. मगर अब फिर उनका जिक्र आएगा. क्योंकि पाकिस्तान और इसकी जम्हूरियत के साथ जो दिक्कतें थीं, वो इन दोनों सज्जनों की ही देन थी. हम आगे बढ़ें, इससे पहले आपको गिनकर बता दें. कि इस दौर के पाकिस्तान की सबसे बड़ी बीमारियां क्या थीं.
1. सत्ता का वन-मैन लव. मतलब एक वक्त में एक इंसान का सबसे ताकतवर हो जाना. 2. पंजाब बनाम बंगाल की लड़ाई. माने, पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान की होड़. 3. नौकरशाही और सेना के सर्वेसर्वा होने की शुरुआत. 4. राजनैतिक पार्टियों की लाचारी. उनकी कमजोर हालत. 5. एक पाकिस्तान में पांच समूह, जिनकी आपस में होड़ लगी थी. ये थे- पंजाबी, सिंधी, बलूच, पश्तून और बंगाली.
अब एक-एक करके इन बीमारियों के छिलके छुड़ाते हैं.

पाकिस्तान में ऐसा लगातार होता रहा. लगातार सरकारें बर्खास्त की जाती रहीं. जब मन किया, सरकार हटा दी. जब मन किया, प्रधानमंत्री हटा दिया. राष्ट्रपति के अधिकार इतने तानाशाही थे कि राजनैतिक विरोध की जगह ही नहीं बची. चुनौती मिल रही है, कुछ मुताबिक नहीं हो रहा है या ऐसा लग रहा है कि फलां नेता (या PM) ज्यादा ताकतवर हो रहा है, तो उसे बर्खास्त कर दो. इसकी शुरुआत लियाकत अली खान ने 1949 में की थी (फोटो: Getty)
जिन्ना और लियाकत ने ही लोकतंत्र को कमजोर करना शुरू कर दिया था
मिसाल के तौर पर... एक वाकया बताती हूं. 1949 का साल शुरू ही हुआ था. सर्दियां ढल रही थीं. 24 जनवरी की तारीख थी, जब लियाकत अली खान ने यकायक पंजाब की सरकार को बर्खास्त कर दिया. बोले, अव्यवस्था है. मिसमैनेजमेंट. पंजाब सरकार के पास प्रांत में ठोस बहुमत था. दो साल तक ये प्रांत केंद्रीय ताकतें चलाती रहीं. ये मुमकिन हो पाया था 1948 के एक कानून के कारण. जुलाई 1948 में लियाकत खान ने गर्वनमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट (चूंकि पाकिस्तान का संविधान नहीं बना था, तो इसी अधिनियम के मुताबिक सरकार चल रही थी) के सेक्शन 92 ए में एक संशोधन किया था. इसकी वजह से केंद्र (फेडरल सरकार) को ये छूट मिल गई थी कि वो जब चाहे, प्रांतीय सरकारों को बर्खास्त कर सकती है.
ये एक किस्म की तानाशाही थी कुछ-कुछ वैसे ही, जैसे हमारे यहां कई बार केंद्र सरकार राष्ट्रपति शासन के बहाने करती है. पाकिस्तान में शुरुआती सालों से ही ऐसा किया जाने लगा था. लोकतंत्र की मूल भावना क्या है? कि सरकार के सही-गलत का फैसला जनता करती है. उसके कामकाज के आधार पर उसे वोट देकर, या न देकर. इसके अलावा जब सरकार या उसका कोई मंत्री गलत काम करता है, तो न्यायपालिका उसके सही-गलत का फैसला करती है. इसके लिए जरूरी है कि जनता लोकतंत्र को लेकर जागरूक हो. उसे लोकतंत्र की आदत हो. और, न्यायपालिका ईमानदारी से, निष्पक्षता से अपना काम करे. पाकिस्तान में ये दोनों ही चीजें गायब थीं.

जिन्ना और लियाकत, दोनों के पास एक से ज्यादा प्रोफाइल्स थीं. जिन्ना की कैबिनेट में सारे लोग जिन्ना के पसंदीदा और उनके ही हाथों नियुक्त किए हुए थे. आगे लियाकत ने भी यही परंपरा चलाई (फोटो: Getty)
जैसे जिन्ना ने खूब सारी ताकत बटोर ली, वैसे ही औरों ने भी किया जिन्ना और लियाकत, दोनों ही लोकतंत्र के पक्षधर थे. मगर संसदीय प्रणाली में उनका यकीन बहुत कच्चा था. जिन्ना जब जिंदा थे, तब उन्होंने भी अपने हाथ में सारी ताकत जमा कर रखी थी. वो गर्वनर जनरल थे. साथ ही साथ, संविधान सभा के भी अध्यक्ष थे. इसी तरह लियाकत न केवल प्रधानमंत्री थे, बल्कि उनके पास दो और पोर्टफोलियो भी थे. एक- इवेक्यूएशन ऐंड रिफ्यूजी रिहैबिलिएशन. यानी वो विभाग जिसके जिम्मे शरणार्थियों के पुनर्वास की जिम्मेदारी थी. दूसरा- स्टेट ऐंड फ्रंटियर रीजन्स. जिसके जिम्मे प्रांतो की देखरेख का काम था. जिन्ना ने अपनी कैबिनेट में सारे अपनी पसंद के लोगों को भरा था. वो जब तक चल-फिर रहे थे, तब तक खुद ही इसकी बैठकों की अध्यक्षता करते रहे. उनके हाथ में इतनी ताकत थी कि जब चाहते, औरों के फैसले पलट देते. मतलब, बस उनकी चलती थी.

नेहरू का जनाधार बहुत मजबूत था. आजादी के बाद वो यकीनन कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा थे. मगर वो अकेले नहीं थे. सत्ता बस उनके हाथों में नहीं सिमटी थी. न ही नेहरू तानाशाह थे. ये 1945 की तस्वीर है. जब शिमला में नेहरू अपने घर के बाहर भीड़ को संबोधित कर रहे थे (फोटो: Getty)
नेहरू के अगल-बगल उन्हें खरी-खोटी सुनाने वाले मौजूद थे इसके उलट भारत को देखिए. नेहरू के आस-पास कई ऐसे मजबूत लोग थे, जो उनके आलोचक थे. जो बिना डरे विरोध जताते थे. ये लोग नेहरू के आभामंडल के आगे बिछते नहीं थे. राजेंद्र प्रसाद थे. सरदार वल्लभ भाई पटेल थे. और भी कई लोग थे. पहला चुनाव 1952 में हुआ. हालांकि कुछ बेहद ठंडे इलाकों में पहले ही (यानी अक्टूबर 1951 में) वोटिंग हो गई थी. नेहरू ने चुनाव में सत्ता पाई. उससे पहले भी नेहरू सत्ता की इकलौती सीट नहीं थे. कांग्रेस के प्रांतीय नेताओं, प्रदेश कांग्रेस कमिटियों को ही लीजिए. उनके पास भी ताकत थी. मतलब ताकत बंटी हुई थी. कई ऐसे लोग थे, जिन्हें नेहरू कतई पसंद नहीं करते थे. जैसे- गोविंद वल्लभ पंत. लेकिन वो सब बने रहे.
असल में जिन्ना ब्रिटिश राज के वायसराय की ताकतों से इतने प्रभावित थे कि पाकिस्तान बनने पर उन्होंने खुद के लिए भी वैसी ही जगह बनाई. वैसे ही बर्ताव किया. तभी तो माउंटबेटन के लाख कहने पर भी वो PM नहीं बने. गर्वनर जनरल बने. इन लोगों के कारण पाकिस्तान में सत्ता के केंद्रीकरण की ऐसी रवायत शुरू हुई, जिससे वो कभी उबर ही नहीं पाया. जिन्ना के जाने के बाद ख्वाजा नजीमुद्दीन को उनकी जगह गर्वनर जनरल बनाया गया. मगर लियाकत का कद उस वक्त तक इतना बड़ा हो गया था कि ख्वाजा की कभी चली ही नहीं. ख्वाजा ने अपनी चलाने की कभी कोशिश भी नहीं की. वो लियाकत की अधीनता मान चुके थे.

पाकिस्तान में अलग-अलग नस्लें थीं. उनके हित अलग थे. उनके बीच न तो तालमेल था, न भरोसा. सबसे ज्यादा झगड़ा था बंगाल और पंजाब का. ये झगड़ा आगे जाकर इतना बढ़ा कि पूर्वी पाकिस्तान अलग मुल्क बन गया (फोटो: Getty)
पंजाब और बंगाल में तो शुरुआत से ही ठन गई थी
कैसे? ऐसे... बंगाल, यानी पूर्वी पाकिस्तान. वो हिस्सा जो 1971 में बांग्लादेश बना. और पंजाब? पंजाब, जिसको पाकिस्तान की हर फील्ड में सबसे ऊपर की मलाई मिली. बंगाल को लोकतंत्र में दिलचस्पी थी. क्योंकि वो बहुसंख्यक था. तादाद के मामले में पाकिस्तान का सबसे बड़ा समूह था. अगर चुनाव होते और संसदीय प्रणाली होती, तो बंगाल को इसका सबसे ज्यादा फायदा मिलता. ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में जिस पहले प्रांत को जीता था, वो बंगाल ही था. 18वीं सदी के आखिर-आखिर तक वहां एक राजनैतिक सिस्टम विकसित हो गया था. गर्वनर जनरल अपनी काउंसिल के साथ मशविरा कर चीजें चलाता था. इस सिस्टम में धीरे-धीरे भारतीयों को भी जगह मिली. कुल मिलाकर वहां की व्यवस्था ज्यादा लोकतांत्रिक थी. दूसरी तरफ पंजाब था. एकदम उलट. अंग्रेजों ने सबसे आखिर में यहां जीत हासिल की. यहां नौकरशाह हावी थे. नौकरशाह, जो कि ज्यादातर जमींदार घरानों से निकलकर आते थे. आम लोगों को काबू में रखने के लिए इस वर्ग की मदद लेना अंग्रेजों को ज्यादा मुनासिब लगा था. तभी तो डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट गांवों में जाकर टैक्स जमा करता था. वही था, जो वहां लोगों के झगड़े-फसाद और बाकी विवाद निपटाता था. नतीजा ये कि पंजाब में नौकरशाही वर्ग बहुत मजबूत रहा. पंजाब और बंगाल के बुनियादी चरित्र में सबसे गंभीर अंतर यही था. दोनों ही गुट एक-दूसरे पर और इस तरह बाकी सभी पर हावी होने की होड़ में लगे थे.

ये 28 जनवरी, 1955 की तस्वीर है. भारत के छठे गणतंत्र दिवस के जलसे में शामिल होने दिल्ली पहुंचे थे गर्वनर जनरल गुलाम मुहम्मद. उन्हीं का स्वागत हो रहा है. साथ में खड़े दिख रहे हैं जवाहर लाल नेहरू (फोटो: Getty)
बेड़ा गर्क किया मलिक गुलाम मुहम्मद ने चीजें बदतर हुईं गुलाम मुहम्मद के आने से. हमने आपको बताया था. कि लियाकत की हत्या के बाद ख्वाजा नजीमुद्दीन ने उनकी जगह PM की कुर्सी संभाली. और गुलाम मुहम्मद बनाए गए गर्वनर जनरल. ख्वाजा थे बंगाल के. गुलाम मुहम्मद थे पंजाब से. ऊपर से नौकरशाही का बैकग्राउंड. ख्वाजा और गुलाम मुहम्मद में टकराव था. एक तो पंजाब के हित बनाम बंगाल के हित का टकराव. दूसरा ये कि गुलाम मुहम्मद (और पंजाब गुट) अमेरिका के साथ जाने के हिमायती थे. जबकि नजीमुद्दीन (और बंगाल गुट) सोवियत और अमेरिका से अलग मुस्लिम देशों का अपना एक तीसरा गुट बनाने के पक्ष में थे. नवंबर 1952 में ये टकराव और बढ़ गया. तब, जब नजीमुद्दीन ने संविधान सभा की फंडामेंटल प्रिंसिपल्स कमिटी के सामने एक नई रिपोर्ट रखी. उनसे पहले जो रिपोर्ट रखी गई थी, उसमें पंजाब का पलड़ा भारी रखा गया था. इस तरह कि उसमें सदन के अपर हाउस में पश्चिमी पाकिस्तान के प्रांतों को तवज्जो दी गई थी. नजीमुद्दीन ने इसे संतुलित किया और उसे पूर्वी पाकिस्तान के बराबर ला दिया. इस रिपोर्ट का विरोध किया पंजाब की मुस्लिम लीग ने. गुलाम मुहम्मद तो इसके खिलाफ थे ही.
दबाव में आकर नजीमुद्दीन ने 21 जनवरी, 1953 को ये रिपोर्ट वापस ले ली. मगर ये भी किया कि संविधान समिति का कामकाज अनिश्चित समय के लिए रोक दिया. इसके बाद ही तो गुलाम मुहम्मद ने नजीमुद्दीन को बर्खास्त किया था. ख्वाजा नजीमुद्दीन को बर्खास्त करने के पीछे गुलाम मुहम्मद ने एक और कारण गिनाया. पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच भाषा को लेकर छिड़ी जंग. पाकिस्तान ने उर्दू को राष्ट्रीय भाषा बनाया था. बंगाली बोलने वाला पूर्वी पाकिस्तान इससे नाराज था. विरोध शुरू हुआ. हिंसा हुई. फरवरी 1952 में ढाका के अंदर एक रैली निकाली गई. पुलिस ने ऐक्शन लिया. कई प्रदर्शनकारी मारे गए. इस हिंसा ने गुलाम मुहम्मद को ख्वाजा के खिलाफ मौका दे दिया. ख्वाजा को हटाकर गुलाम मुहम्मद ने मुहम्मद अली बोगरा को प्रधानमंत्री बनाया.

ये दिसंबर 1952 की तस्वीर है. लंदन में कॉमनवेल्थ इकॉनमिक कॉन्फ्रेंस था. उसमें शरीक होने पहुंचे थे राष्ट्रमंडल देशों के प्रधानमंत्री. दाहिनी तरफ खड़े हैं सर सी डी देशमुख. जो उस समय भारत के वित्तमंत्री थे. उनके ठीक बगल में अचकन पहने खड़े हैं ख्वाजा नजीमुद्दीन. जो उस समय पाकिस्तान के वजीर-ए-आजम थे. बीच में ब्रिटेन की महारानी भी हैं (फोटो: Getty)
बोगरा से जुड़ा एक किस्सा पढ़िए-
प्रधानमंत्री बनाए जाने से पहले बोगरा राजनयिक थे. अमेरिका में पोस्टिंग थी उनकी. उनके कर्मचारियों में लेबनन मूल की एक महिला भी थी. आलिया नाम था उसका. बोगरा ने उसको अपना स्टेनो बनाया था. फिर बोगरा का प्रमोशन हो हया. वो अमेरिका में पाकिस्तान के राजदूत बना दिए गए. तब भी आलिया उनके साथ रही. फिर जब बोगरा PM बन गए, तो उन्होंने आलिया को पाकिस्तान बुला लिया. उसको बनाया अपना सोशल सेक्रटरी. आलिया घंटों PM के कमरे में बैठी रहती. प्रधानमंत्री के पास जो फाइलें भेजी जातीं, उनको पढ़ती. फिर कुछ दिन बीते और दोनों ने शादी कर ली. ये बोगरा की दूसरी शादी थी. उनकी पहली पत्नी हमीदा को अपने पति की इस दूसरी शादी से बड़ी तकलीफ हुई. उधर बाकी नेताओं और मंत्रियों की बीवियां भी परेशान. कहने को तो इस्लाम ने चार शादियों तक की इजाजत है. लेकिन आमतौर पर ऐसा होता नहीं है. इन औरतों को लगा कि बोगरा की देखादेखी शायद उनके शौहर भी उनको होते दूसरी बीवी ले आएं. इसीलिए इन औरतों ने मिलकर आलिया का बायकॉट करना शुरू किया. जिन भी कार्यक्रमों में आलिया को न्योता भेजा जाता, वहां ये औरतें नहीं जाती थीं. ऐसा नहीं कि बस बीवियां न जाती हों. दूसरे नेताओं और मंत्रियों की बेटियों और मांओं ने भी आलिया का बहिष्कार कर दिया था.तानाशाही पर तानाशाही, इतनी तानाशाही... 1953 आते-आते पंजाब, खासतौर पर उसका नौकरशाह वर्ग हावी हो चुका था. अप्रैल 1954 में पूर्वी पाकिस्तान के अंदर चुनाव हुए. कभी जो मुस्लिम लीग यहां इतनी मजबूत थी, वो बड़े अंतर से हारी. जीत मिली यूनाइटेड फ्रंट को. इस गठबंधन में तीन दल थे- आवामी मुस्लिम लीग, कृषक श्रमिक पार्टी और नेजाम-ए-इस्लाम. इसके मुखिया थे फजलूल हक. वही मुख्यमंत्री बने. इस सरकार ने पाकिस्तान के बगदाद समझौते में शामिल होने का विरोध किया. इस आधार पर कि ये अमेरिका-परस्त समझौता था. जवाब में गुलाम मुहम्मद ने उसी गर्वनमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट के सेक्शन 92 ए का इस्तेमाल करके हक सरकार को बर्खास्त कर दिया. एक बार फिर पाकिस्तानी हुकूमत ने लोकतंत्र को ठेंगा दिखाया. और इससे न केवल लोकतंत्र कमजोर हुआ, बल्कि बंगाल का पाकिस्तानी हुकूमत पर से भरोसा भी कम हुआ.

गुलाम मुहम्मद ने जब इमरजेंसी लगाई, तो पूरा अंदेशा था कि पूर्वी पाकिस्तान में जमकर विरोध होगा. मगर वहां एक भी विरोध प्रदर्शन रैली नहीं हुई. इसकी वजह ये थी गुलाम मुहम्मद ने सुहरावर्दी जैसे बड़े बंगाली नेताओं को कैबिनेट ले आए. जो नेता साथ नहीं आए, उन्हें दरकिनार कर दिया गया. ये तस्वीर सुहरावर्दी की है (फोटो: Getty)
जो होने पर पाकिस्तान दुरुस्त होता, वो होने नहीं दिया गुलाम मुहम्मद के आगे बस एक चुनौती पेश आई. संविधान सभा के मुखिया थे तमीजुद्दीन खान. तमीजुद्दीन भी बंगाली. उनकी अध्यक्षता में 21 सितंबर, 1954 को संविधान सभा ने बुनियादी अधिकार की समिति वाली रिपोर्ट को मंजूरी दे दी. इस रिपोर्ट में बंगाल को थोड़ा सा फायदा दिया गया था. ये लागू हो जाता, तो पाकिस्तान में उसी समय एक संसदीय सिस्टम भी शुरू हो जाता. भला-चंगा संसदीय तंत्र. मगर पंजाब के लोग इसके खिलाफ थे. एक महीने बाद गुलाम मुहम्मद ने इमरजेंसी लगा दी. ये वो वक्त था, जब पाकिस्तान में संविधान आखिरकार मंजूर होना था. मगर गुलाम मुहम्मद ने ऐसा नहीं होने दिया. इतना ही नहीं, बल्कि गुलाम मुहम्मद ने प्रेस पर भी पाबंदियां लगा दीं. उसकी आजादी छीन ली. 28 अक्टूबर, 1954 से असेंबली का सत्र शुरू होना था. जिसमें सभी चुने गए जन प्रतिनिधि शामिल होते. जैसा कि संसदीय व्यवस्था में होता है. मगर गुलाम मुहम्मद ने ये भी नहीं होने दिया. जन विरोध दबाने के लिए बंगाल के बड़े नेताओं को लालच देकर साथ मिला लिया गया. जैसे फजलूल हक और सुहरावर्दी. जिनको गुलाम मुहम्मद ने नई सरकार में मंत्री बना दिया था. जो नेता राजी नहीं हुए, उन्हें किनारे धकेल दिया गया.

जैसा इस्कंदर मिर्जा ने गुलाम मुहम्मद के साथ किया, आगे चलकर अयूब खान ने उससे भी बुरा सलूक मिर्जा के साथ किया. ये जनवरी 1958 की तस्वीर है. इंडोनेशिया के लीडर सुकर्णो कराची आए थे. दाहिनी तरफ मिर्जा हैं, बाईं तरफ सुकर्णो (फोटो: Getty)
पाकिस्तान: जहां सत्ता वालों को उनके ही भरोसेमंदों ने बर्बाद किया वो गुलाम मुहम्मद ही थे, जिन्होंने सेना प्रमुख अयूब खान को रक्षा मंत्री बनाया. वही थे, जो इस्कंदर मिर्जा को अपना आंतरिक मंत्री बनाकर लाए. 1955 ही वो साल था, जब गुलाम मुहम्मद के शरीर ने जवाब दे दिया. उन्हें लकवा मार गया था. इलाज कराने के लिए लंदन गए. उनके पीछे सरकार कौन चलाएगा? गुलाम मुहम्मद को मिर्जा पर बड़ा भरोसा था. सो उन्होंने मिर्जा को कार्यकारी गर्वनर जनरल बनाया. मगर उनके जाने के बाद मिर्जा ने अपने आगे लगा 'कार्यकारी' शब्द हटा लिया. गुलाम मुहम्मद अब कुछ नहीं रह गए थे. मिर्जा ने जबरन उनकी जगह ले ली थी. पाकिस्तान के इतिहास में ऐसी कई मिसालें हैं. यहां लोग अपने भरोसेमंद लोगों के हाथों ही ठगे गए. बर्बाद हुए. 26 अगस्त, 1956. ये वो तारीख थी, जिस दिन गुलाम मुहम्मद कब्र में लिटाए गए. कहते हैं कि जब लाहौर में उनका जनाजा निकला, तो कुछ गिनती के ही लोगों ने शक्ल दिखाई वहां. उनके मरने से पहले, फरवरी की 29 तारीख को पाकिस्तान में पहला संविधान लागू हो चुका था.
बंगाल और पंजाब के बीच सीजफायर की सारी उम्मीदें खत्म हो गईं इस संविधान में राष्ट्रपति (ये गर्वनर जनरल के ही पद का नया नाम था) को तानाशाही अधिकार मिले थे. राष्ट्रपति के पास केंद्र सरकार को बर्खास्त करने की ताकत थी. वो प्रांतीय सरकारों को भी बर्खास्त कर सकता था. उसके पास अकूत ताकत थी. इस नई व्यवस्था में इस्कंदर मिर्जा पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति बने. मिर्जा खुद एक बंगाली थे. मगर वो नौकरशाह भी तो थे. सो उनकी पंजाब की तरफ ज्यादा झुकाव था. यहां तक आते-आते लगने लगा कि पंजाब और बंगाल के बीच ताकत हासिल करने की होड़ खत्म नहीं होने वाली. नौकरशाही और सेना कैसे सबसे ताकतवर हुए, ये तो हम बता ही चुके हैं. सो आगे बढ़ते हैं.

जिन्ना और लियाकत, दोनों का ही पार्लियामेंट्री सिस्टम में बहुत यकीन नहीं था. पाकिस्तान के लिए ये व्यवस्था जरूरी थी. क्योंकि इससे हर तबके को अपनी आबादी के मुताबिक प्रतिनिधित्व मिलने की उम्मीद थी. पाकिस्तान में तो शुरुआत से ही अलग-अलग गुट बने हुए थे. सबके बीच आगे बढ़ने की होड़ थी. सबको लगता था कि उनका हक मारा जा रहा है (फोटो: Getty)
पाकिस्तान में राजनैतिक पार्टियों की कोई औकात ही नहीं रही कभी इसके कई कारण थे. एक तो जिन्ना और लियाकत. जिनको लगता था कि बस मुस्लिम लीग ही देशभक्त है. बाकी सारी पार्टियां पाकिस्तान को खाने पर तुली हैं. कि वो मजबूत हुईं, तो पाकिस्तान को लील जाएंगी. इसीलिए इन दोनों ने अपने रहते-रहते किसी पार्टी को पनपने ही नहीं दिया. पाकिस्तान में संसदीय प्रणाली का कमजोर होना बहुत हद इसी वजह से हुआ. लोकतंत्र की ये शर्त होती है. कि जनता के पास कई विकल्प हों. हर तबके को राजनैतिक व्यवस्था में मुनासिब प्रतिनिधित्व मिले. मगर पाकिस्तान में तो ऐसा हुआ ही नहीं. पाकिस्तान में तब ज्यादातर राजनैतिक पार्टियां किसी न किसी प्रांत से जुड़ी थीं. वो किसी खास समुदाय (या नस्ल) का प्रतिनिधित्व करती थीं. हुकूमत को लगता था कि ये पाकिस्तान विरोधी पार्टियां हैं. पाकिस्तान को तोड़कर अलग होना चाहती हैं. फिर लियाकत के साथ एक और दिक्कत थी. उन्होंने राष्ट्रीय एकता के नाम पर पार्टियों से चिढ़ना शुरू किया. चाहे वो किसी एक खास वर्ग से न भी जुड़ी हो. लियाकत कहते थे कि पाकिस्तान तो मुस्लिम लीग का बच्चा है. बाकी सारे राजनैतिक दल पाकिस्तान के दुश्मन हैं.

ये एक विरोधाभासी संयोग था. 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ. ठीक उसी दिन लियाकत पाकिस्तान में पब्लिक ऐंड रिप्रेजेंटेटिव्स ऑफिसर्स (डिस्क्वॉलिफिकेशन) ऐक्ट लेकर आए. ये बड़ा अराजक कानून था. इसकी वजह से पाकिस्तान में नेताओं की छवि खूब खराब हुई. छवि खराब हुई, तो विश्वसनीयता भी खत्म हुई. नुकसान हुआ लोकतंत्र का (फोटो: Getty)
कानून बना: 5,000 रुपये दो और अपनी खुन्नस निकाल लो लियाकत ने इसी चिढ़ के मारे पब्लिक ऐंड रिप्रेजेंटेटिव्स ऑफिसर्स (डिस्क्वॉलिफिकेशन) ऐक्ट को लागू कराया. ये बड़ा खतरनाक कानून था. इसके सहारे गर्वनर जनरल या कोई भी नेता या आम लोग किसी नेता के खिलाफ शिकायत कर सकते थे. कि वो भ्रष्टाचार कर रहा है. भाई-भतीजावाद फैला रहा है. अव्यवस्था है उसके राज में. इन आरोपों की जांच का जिम्मा एक ट्राइब्यूनल के पास था. जिसमें दो जज होते थे. दोनों को गर्वनर जनरल चुनता था. ज्यादा से ज्यादा सजा ये मिलती कि उस नेता को 10 साल के लिए कोई भी पद संभालने के अयोग्य ठहरा दिया जाता. शिकायत करने के लिए शिकायत करने वाले को 5,000 रुपये जमा करने होते थे. इस कानून का खूब इस्तेमाल हुआ पाकिस्तान में. लोग अपने विरोधियों को निशाना बनाने के लिए इसका इस्तेमाल करने लगे. इस कानून में भी तानाशाही ताकतें गर्वनर जनरल के ही पास थीं. वो चाहता, तो बचाता. वो चाहता, तो डुबाता.
नेताओं की इज्जत तो तभी मिट्टी में मिल गई इस कानून की वजह से शुरुआती दिनों में भी नेताओं की जमकर भद्द पिटी. उनकी सारी विश्वसनीयता खत्म हो गई. वो आपस में ही एक-दूसरे पर इतना कीचड़ उछाल रहे थे कि जनता उनकी क्या ही इज्जत करती. 1954 में ये कानून खत्म कर दिया गया. मगर नुकसान तो हो चुका था. परंपरा सेट हो गई थी. बाकी कसर नौकरशाही और सेना के दबदबे ने पूरी कर दी. जिस लोकतंत्र में राजनैतिक पार्टियों की कोई वैल्यू नहीं, वहां क्या खाक लोकतंत्र आएगा. आप पाकिस्तान का इतिहास उठाकर देख लीजिए. वहां नेता, फिर चाहे वो बहुत लोकप्रिय ही क्यों न हो, हमेशा सेना और नौकरशाही की कृपा के मोहताज रहे हैं. इन दोनों के आगे सिर उठाने या चूं बोलने की हिम्मत पाकिस्तान में किसी की भी नहीं. सत्ता में कोई भी हो, चलती इन्हीं दोनों की है. पार्टी सिस्टम के कमजोर होने की वजह से एक और बड़ा नुकसान हुआ. जिसकी कोई भरपाई नहीं हो सकती. सिस्टम का जनता के साथ कनेक्शन कभी बन ही नहीं पाया. पाकिस्तान हमेशा ही एक निरंकुश स्टेट बना रहा.

ये जुलाई 2018 की तस्वीर है. पाकिस्तान के सिंध इलाके में लोग हुकूमत के खिलाफ सड़कों पर उतरे. सिंधी अलग सिंधुदेश की मांग कर रहे हैं. ऐसे ही बलोचों की भी मांग है. एक पंजाब छोड़कर कोई भी प्रांत ऐसा नहीं, जो पाकिस्तान के साथ रहना चाहता हो (फोटो: The Lallantop)
अब वो अलग-अलग नस्लों की होड़ का मसला समझिए इन समूहों का संघर्ष पाकिस्तान बनने के बाद से ही शुरू हुआ. अब तक चालू है. सिंधियों को अलग होना है. बलूच अलग होना चाहते हैं. पश्तूनों को अलग होना है. बंगाली तो अलग हो ही गए. कुल मिलाकर पाकिस्तान का शुरुआत से ही ये हाल रहा. कि एक पंजाब के सिवा कोई भी ग्रुप पाकिस्तान से जुड़ नहीं पाया. सबको जबरन पाकिस्तान में रखा गया है. वो खुद को अलग करने के लिए लगातार लड़ रहे हैं. मगर पाकिस्तानी हुकूमत और सेना उन्हें जोर-जुल्म से अपने साथ बांधे हुई है. ये सारे समूह अपने मन की पा जाएं, तो पाकिस्तान के नाम पर बस पंजाब बचेगा. वैसे बाकी सारे समूहों का सवाल भी यही है. कि पाकिस्तान ने उन्हें दिया ही क्या है कि वो उससे मुहब्बत करें. कि मुल्क में तो बस पंजाब की चली है. भुट्टो परिवार के आने के बाद थोड़ी-बहुत जगह सिंध को मिली. पंजाब और सिंध के बहाने बड़े-बड़े जमींदारों को सिस्टम में तवज्जो मिलती रही. आजादी के पहले भी वो ताकतवर थे. और आजादी के बाद, अलग मुल्क बनने के बाद भी ताकत उनके ही पास रही. बल्कि अगर आप एक शब्द में पाकिस्तानी राजनीति का चरित्र बताने को कहें, तो जवाब होगा- सामंती.

जिनके गले में हार है, वो ही हैं सुहरावर्दी. ये 24 जून, 1957 की तस्वीर है. सुहरावर्दी राष्ट्रमंडल देशों के प्रधानमंत्रियों के सम्मेलन में शामिल होने लंदन पहुंचे थे. लियाकत जब थे, तब उन्हें भी सुहरावर्दी से चुनौती मिलने का डर सालता था. वजह ये कि बंगाल में सुहरावर्दी की बड़ी लोकप्रियता थी (फोटो: Getty)
प्रधानमंत्री आते और बदल दिए जाते 1953 से 1958 के बीच पाकिस्तान में पांच प्रधानमंत्री आए. ख्वाजा नजीमुद्दीन को बर्खास्त किए जाने वाली बात तो बता ही दी थी. उनके बाद PM बने थे मुहम्मद अली बोगरा. फिर उनको हटाकर चौधरी मुहम्मद अली को प्रधानमंत्री बनाया गया. फिर गुलाम मुहम्मद की जगह इस्कंदर मिर्जा बने राष्ट्रपति. उन्होंने हुसैन शहीद सुहरावर्दी को प्रधानमंत्री बनाया. सुहरावर्दी ने इस्कंदर मिर्जा की ताकत को पलटने की कोशिश की. मगर इस्कंदर ने उन्हें ही हटा दिया. इस्तीफा देने के लिए मजबूर कर दिया. उनकी जगह आए कार्यकारी प्रधानमंत्री इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर. बमुश्किल दो महीने रहे वो. फिर उनकी जगह आए फिरोज खान नून. इस्कंदर मिर्जा की किसी से नहीं पटी. उन्हें जब भी चुनौती मिलती, वो प्रधानमंत्री ही बदल देते. फिर इस्कंदर मिर्जा ने फैसला किया. कि ये प्रधानमंत्री बदलने का भी झंझट क्यों रखना. इसके बाद मिर्जा ने ऐसा कदम उठाया, जो आगे चलकर पाकिस्तान की परंपरा बन गई. पाकिस्तान जितना बर्बाद है, उसकी करीब 70-75 फीसद जिम्मेदारी इस रवायत को जाती है. क्या किया था इस्कंदर मिर्जा ने? अगली किस्त में बताते हैं आपको.

तस्वीर में दाहिनी तरफ से दूसरे नंबर पर हैं अमेरिका के उपराष्ट्रपति रिचर्ड एम निक्सन. निक्सन पाकिस्तान पहुंचे थे. बस चार घंटे के लिए. हाथ मिलाकर उनका स्वागत करते नजर आ रहे हैं राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्जा. बाईं ओर हैं कार्यकारी विदेश मंत्री हबीब इब्राहिम रहिनतूला. सबसे दाहिनी तरफ खड़े हैं इस्माइल चुंदरीगर (फोटो: Getty)
जाते-जाते
हमने आपको पाकिस्तान की पांच बीमारियों के बारे में बताया. इनके अलावा एक और गंभीर बीमारी थी पाकिस्तान को. भारत से डरने की बीमारी. उसको हमेशा लगता कि भारत उसे बर्बाद करने पर तुला है. कि भारत उसे मिटाना चाहता है. भारत के नेताओं को बहुत बाद में चलकर हर बात पर पाकिस्तान का नाम लेने, अपनी जनता को उसके नाम पर मूर्ख बनाने का चस्का लगा. पाकिस्तान में ये आदत शुरुआत से थी. जिन्ना जब जिंदा थे, तब अक्सर अपने भाषणों में भारत को 'दुश्मन' का तमगा दिया करते थे. उनके बाद आने वाले तमाम हुक्मरानों को ये आदत विरासत में मिली. आप पाकिस्तान के शुरुआती बजट को उठाकर देखिए. कुल बजट का आधे से ज्यादा रक्षा के खाते में डाला जाता था. 1948 से 1950 के बीच ये हर साल 71 से 72 फीसद था.

अयूब खान थे लंबे-चौड़े. गठा हुआ शरीर. गोरा रंग. खैबर-पख्तूनख्वा में पैदा हुए थे. फिर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की. वहीं से ब्रिटिश सेना में चले गए. बांसुरी बड़ी अच्छी बजाते थे वो. एक बार इनाम में उन्हें चांदी की बांसुरी मिली थी. लोग कहते हैं कि बड़े मूडी थे वो (फोटो: Getty).
कश्मीर को लेकर हुई भारत के साथ पहली लड़ाई के बाद से ही पाकिस्तान ने अपनी सबसे ज्यादा ऊर्जा भारत को गरियाने और उससे लड़ने की तैयारियां करने में गंवाई. इसी वजह से उसकी सेना भी बहुत बड़ी थी. शायद ये भी एक बड़ी वजह थी. कि पाकिस्तान में सबसे ज्यादा पोषण सेना को मिला. बाकी सारी जरूरी संस्थाएं कुपोषित होती गईं. खुराक के अभाव में मरती गईं. मगर सेना का साइज बढ़ता रहा. साथ में बढ़ता रहा उसका कद. उसकी पूछ. उसकी दखलंदाजी. और लोकतंत्र? उसकी हालत घर के मंझले बच्चे जैसी थी. न इधर का, न उधर का. सबसे उपेक्षित. जिससे लाड़ करने का होश न मां को, न बाप को. इसीलिए सबसे कड़वा. जो बड़ा होकर अपने मां-बाप से सवाल करता है-
मुझसे कोई उम्मीद मत रखना? तुमने मेरे लिए किया ही क्या है?एक कहानी
मुहम्मद अली बोगरा शुरुआत में गुलाम मुहम्मद के आदमी थे. जब PM बन गए, तो आजाद होने की कोशिश में लग गए. उन्हें लगता कि अगर उन्होंने गुलाम मुहम्मद का इंतजाम न किया, तो उनका भी हाल पहले के प्रधानमंत्रियों जैसा होगा. क्या करें, क्या करें, सोचते हुए उन्हें आइडिया आया. कि इंडियन इन्डिपेंडेंस ऐक्ट, 1947 (पाकिस्तान में संविधान लागू नहीं हुआ था तब तक) में संशोधन करके गवर्नर-जनरल यानी गुलाम मुहम्मद के पर कतर दें. तय हुआ कि संविधान सभा के अंदर इस संबंध में एक प्रस्ताव पास करा लिया जाए. ऐसा हुआ भी. असेंबली में ये प्रस्ताव पास करा लिया गया. कोई चर्चा नहीं, कोई बहस नहीं, 10 मिनट के अंदर प्रस्ताव पास. अब गुलाम मुहम्मद के पास किसी सरकार को बर्खास्त करने का हक नहीं रह गया था. ये सब करके मुहम्मद अली बोगरा हो गए निश्चिंत और निकल गए अमेरिका. विदेशी दौरे पर. उनको अमेरिका से कनाडा रवाना होना था. लेकिन तभी गुलाम मुहम्मद का फोन आया उनको. कहा, तुरंत पाकिस्तान लौटो. अयूब खान ने अपनी किताब 'फ्रेंड्स नॉट मास्टर्स' में इस घटना का जिक्र यूं किया है-
पाकिस्तान वापसी के सफर की बात है. मैंने इस्कंदर मिर्जा और चौधरी मुहम्मद अली से कहा. कि पाकिस्तान पहुंचते ही PM बोगरा को गुलाम मुहम्मद के सामने ले जाना बड़ी बेवकूफी होगी. हमने तय किया कि वजीर-ए-आजम बोगरा को उनके घर भेज देंगे. फिर हम गवर्नर जनरल से मिलने जाएंगे. अगर गुलाम मुहम्मद का मूड ठीक लगा, तो हम बोगरा को वहां बुला लेंगे. गवर्नर जनरल गुस्से में थे. चौधरी मुहम्मद अली को डांटा. फिर इस्कंदर मिर्जा ने कुछ बोलने की कोशिश की. उनको भी डांट पड़ी. हम सब गुलाम मुहम्मद से गुजारिश कर रहे थे. कि वो बोगरा को एक और मौका दें. मगर गुलाम मुहम्मद गुस्से में भरे बैठे थे. वो बोगरा को बाहर करने का फैसला कर चुके थे. फिर हम तीनों (मिर्जा, चौधरी मुहम्मद अली और अयूब) गवर्नर जनरल के बेडरूम से बाहर निकले. मैं सबसे पीछे था. मैं बाहर निकलने ही वाला था कि गुलाम मुहम्मद की नर्स ने मुझे रोक लिया. अभी कुछ सेकेंड पहले तक गवर्नर जनरल बौखलाए हुए थे. उनके गुस्से का आर-पार नहीं था. और अब सबको बाहर करने के बाद वो हंस रहे थे. यहीं पर उन्होंने मुझे एक कागज थमाया. मुझे तीन महीने के अंदर एक संविधान तैयार करने को कहा गया था.हालांकि अयूब खान के लिखे को खारिज भी किया जाता है. कहते हैं कि गुलाम मुहम्मद ने बंदूक की नोक पर बोगरा को मजबूर किया था. कि वो कॉन्स्टिट्यूऐंट असेंबली को भंग करें. जब ये हुआ, तब अयूब भी वहां मौजूद थे. यहीं पर गुलाम मुहम्मद ने बोगरा पर दबाव डालकर अयूब को रक्षा मंत्री बनवाया. और बोगरा? गुलाम मुहम्मद का इंतजाम करने के चक्कर में उनका खुद का 'इंतजाम' हो गया.
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