ये आर्टिकल देवांशु झा के कीबोर्ड से निकला है. पत्रकार हैं, सियासत पर खूब लिखते हैं . लेकिन मन हिन्दुस्तानी संगीत और हिंदी कविता में बहुत रमता है. वह हमारे लिए पंडित भीमसेन जोशी और येसुदास पर भी लिख चुके हैं. कवि सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का 21 फरवरी को जन्मदिन होता है. इस मौके पर उन्होंने निराला से जु़ड़ी अपनी यादें साझा की थीं. आज निराला की बरसी है, इस मौके पर हम एक बार फिर से आपको ये पढ़ना परे हैं. अगर आपके पास भी कायदे का कंटेंट हो, तो हमें lallantopmail@gmail.com पर भेजिए. अच्छा लगा तो हम छापेंगे.
छठी कक्षा का छात्र था. उन दिनों समसामयिक विषयों पर हिन्दी में एक पन्ने का लेख लिखना होता था. बिहार में वचनदेव कुमार की किताब लोकप्रिय थी. उनकी किताब को पलटते हुए अचानक बाढ़ पर लिखे उनके लेख की पहली दो पंक्तियों में आंखें फंस कर रह गईं:
शत घूर्णावत तरंग भंग उठते पहाड़
जलराशि राशिजल पर चढ़ता खाता पछाड़
हमारे पाठ्य पुस्तक में कई कवियों की कविताएं थीं लेकिन मेरे जीवन पर इन दो पंक्तियों सा प्रभाव पहले नहीं पड़ा था. मैं देर तक, दिनों तक सोचता रहा, उन पंक्तियों के बारे में और इस बात को आज स्वीकार करता हूं कि कविता के प्रति मेरा अनुराग इन पंक्तियों से ही जागा. बाद में बारहवीं पास करने के बाद ही मैं जान सका कि उपरोक्त पंक्तियां निराला की बड़ी कविता, राम की शक्तिपूजा से ले गई थीं. ये उस प्रसंग में आती हैं जब हनुमान राम के आंसू देखकर विचलित हो जाते हैं और अपने प्रचंड वेग से समुद्र में उथल-पुथल मचा देते हैं. छठी में उन पंक्तियों को पढा़ तो हिंदी का ककहरा सीख रहा था, आज भी हिन्दी नहीं आती लेकिन तब भी उस शब्द-योजना,भाव-गांभीर्य और ध्वनि-सौन्दर्य से स्तब्ध रह गया था आज भी हूं. कॉलेज में जाने के बाद ही मैंने निराला को पढ़ा. उनकी बड़ी कविताएं और गीतों ने मेरे शब्द-संस्कार को धोया, नहलाया है. मैं गिनती नहीं कर सकता कि कितनी बार उनकी कविताओं से भाव और बिंब लेकर मैंने टीवी में भावनात्मक स्क्रिप्ट लिख डाली है. मेरे अवचेतन में वो डोलते रहते हैं. जैसे तुलसी राम से कहलवाते हैं- भरत भाई कपि से उरिन हम नाहीं वैसे ही मै कह सकता हूं कि महाकवि मैं तुमसे उऱिन नहीं हो सकता. 2001 में एक शूट के सिलसिले मैं मेरा इलाहाबाद जाना हुआ. तब बहुत व्यस्त कार्यक्रम होने के बावजूद सुबह-सुबह दारागंज पहुंच गया था. चक्करदार गलियों में कुकुरमुत्ता कविता की कई पंक्तियों का बिंब देखते हुए मैंने वो देहरी भी देखी थी, जहां उन्होंने जीवन के अंतिम वर्ष काटे थे. जहां से हमेशा के लिए जाते-जाते वो लिख गए थे:

खैर उस कमरे को देखकर क्षोभ हुआ कि हिन्दी का समाज कितना दरिद्र है. जिस घर में निराला ने वर्षों काटे उसके मालिक ने बाद में केस ठोंककर वहां दीवार खड़ी कर दी क्योंकि कुछ कवि लेखकों ने उस हिस्से को स्मारक बनाए जाने की पेशकश कर दी थी. वहां से बहुत अन्यमनस्क निकला था..उनकी ही कविता घुमड़ रही थी, मधुर स्वर तुमने बुलाया, छद्म से जो मरण आया, बो गई विष वायु पच्छिम, मेघ के मद हुई रिमझिम,रागिनी में मृत्यु द्रिम-द्रिम, तान में अवसान आया.. निराला की कविताएं मेरे जीवन का हिस्सा बन चुकी हैं. स्नेह निर्झर बन गया है...दुखता रहता है अब जीवन...ये दुख के दिन काटे हैं जिसने.. धीरे-धीरे हंस कर आई प्राणों की जर्जर परछाई.. मैं अकेला, देखता हूं आ रही मेरे दिवस की सांध्यवेला, बांधो न नाव इस ठांव बंधु. उनके गीतों में डूबकर मेरी आत्मा गलती है तो उदात्त कविताओं को पढ़कर निराशा के भाव भस्म हो जाते हैं. जब भी बादल राग या तुलसीदास पढता हूं तो एक ओर कालिदास तो दूसरी ओर भवभूति को पाता हूं..भवभूति की एक पंक्ति वो गाहेबगाहे बुदबुदाया करते थे --उत्पत्स्यते कोपि मे समानधर्मा, कालोह्यं निरवधि विपुला च पृथ्वी. अर्थात-कोई तो होगा मेरे जैसा, जो मुझे समझेगा, पृथ्वी बहुत बड़ी है और समय की कोई सीमा नहीं है. निराला बैसवाड़े के थे, ताउम्र बैसवाड़ी उनके व्यक्तित्व पर सवार रही लेकिन बचपन बंगाल में बीता इसलिए हिन्दी कविता को रवीन्द्र के साथ तौलते रहे. रामविलास शर्मा कहते हैं उन्होंने एक तरफ तुलसीदास की अवधी तो दूसरी ओर रवीन्द्र की बांग्ला से होड़ ली. प्रतिस्पर्धा के वो पक्षधर थे लेकिन हमेशा स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की बातें करते थे. हिन्दी के कवियों में ही जब भी उनकी तुलना पंत से हुई तो उन्होंने पंत जी को यथेष्ट सम्मान दिया लेकिन उतारने में बड़े निष्ठुर भी थे. रामविलास शर्मा कहते हैं कि एक बार हिन्दी का कोई पाठक निराला से बार-बार पूछ रहा था कि हिन्दी का सबसे बड़ा कवि कौन है. कई बार पूछने के बाद भी वो चुप रहे लेकिन जब महाशय वहां से उठकर चले गए तो उन्होंने रामविलास शर्मा से कहा- देख इ चूतिया के, हमहीं से पूछत है कि हिन्दी का सबसे बड़ा कवि को है.. अज्ञेय ने तीस के दशक के आखिरी वर्षों में एक बार कह दिया था कि निराला खत्म हो चुके हैं. साहित्यिक जमात में इस पर बड़ी तीखी प्रतिक्रिया भी हुई थी. बाद में जब अज्ञेय खुद उनसे मिले, जिसका जिक्र उन्होंने संस्मरण में किया है तो उन्हें ये अनुभव हुआ कि बड़ी भारी भूल कर दी थी. उनके साथ चर्चा करते हुए निराला ने बड़ी ही सूक्ष्मता से हिन्दी कविता में आ रहे परिवर्तन को रेखांकित किया था. अज्ञेय ने लिखा है कि कविताओं में बदलाव की जैसी समझ निराला की थी वैसी बड़े-बड़े आचार्यों की नहीं थी, वो भी ऐसे वक्त में जब लोगों ने उन्हें विक्षिप्त करार दे दिया था. निराला ने कहा था कि जानता हूं तुमलोग क्या लिख रहे हो, तुम्हारे लिए कविता में शब्द का स्वर प्रधान है और मेरे लिए संगीत का स्वर. बस एक पंक्ति में उन्होंने कविता में आए बदलाव को साफ कर दिया था. उनके जीवन से जुडे़ कई किस्से हैं उनकी फक्कड़ी के, उदारता के, सनक के, करुणा के लेकिन कुछ गढ़ दिये गए हैं, कुछ जबरन के उनके भक्तों ने फैलाए हैं ये ऐसे भक्त हैं जिन्हें उनकी एक कविता भी ढंग से याद नहीं, ऐसे किस्सों से उनकी छवि खराब ही होती है बनती नहीं. लेकिन उनके समकालीन कवि लेखकों के संस्मरण बड़े महत्वपूर्ण और दिलचस्प हैं. महादेवी लिखती हैं कि एक बार पंत के बारे में किसी ने खबर फैला दी कि वो नहीं रहे. निराला फौरन भागे हुए महादेवी के पास आए. रात हो गई थी तो महादेवी ने कहा कि तार करती हूं, सुबह तक पता चल जाएगा आप घर जाएं. पता चला निराला ने पूरी रात सामने पार्क में काट दी, सुबह-सुबह आंखों में आंसू लिए द्वार पर खड़े हो गए कि खबर बताओ. जीवन में उन्होंने कभी कुछ संचय नहीं किया. हमेशा देते रहे. इसलिए सरोज स्मृति में लिखा भी. क्षीण का छीना कभी अन्न, मैं लख न सका वे दृग विपन्न. आधुनिक हिन्दी को समर्थ बनाना और हिन्दी को उसका स्थान दिलाना उनके जीवन का ध्येय था. जिसके लिए उन्होंने कभी गांधी तो कभी नेहरू को रगेदा. प्रसाद और प्रेमचंद के प्रति उनके मन में अगाध स्नेह, सम्मान था. वो पूरे भारतवर्ष को बताना चाहते थे कि देखो, खड़ी बोली ने पिछले पचास सालों में कितनी प्रगति की है. एक बार किसी ने गालिब और रवीन्द्र की चर्चा की फिर मुस्कराते हुए कहा कि तराजू के एक ओर गालिब और रवीन्द्र को साथ-साथ और दूसरी ओर आपको रखें तब भी पलड़ा भारी आपका ही होगा, निराला ने हंस कर कहा तुलसीदास को क्यों भूल गए बर्खुरदार. दरअसल तुलसीदास ही उनके प्रिय कवि थे. अपनी लंबी कविता तुलसीदास में उन्होंने मुगलकालीन भारत का अदभुत सांस्कृतिक बिंब खींचा है और तुलसीदास को कल्चरल हीरो के तौर पर प्रस्तुत करते हुए लिखा है.

राजेश जोशी लिखते हैं कि आम तौर पर हर बड़ा कवि अपने जीवन में दो जन्म लेता है. लेकिन निराला के काव्य में जिस तरह का बदलाव और वापसी है उसे देखने के बाद लगता है जैसे उन्होंने तीन जन्म लिए. उनकी कविताओं पर कुछ लिखने या टिप्पणी करने की योग्य़ता मुझमे नहीं है. निराला मेरे लिए हव्वा नहीं हैं जिनका नाम लेकर मैं माहौल बनाऊं. मैंने उनकी कविताओं से बहुत कुछ सीखा है. उनके सुघड़ व्यक्तित्व ने मुझे अपनी ओर खींचा है...एक विकट ताप और दबाव ने हिन्दी के इस कवि को जन्म दिया था, जो कि अपनी संपूर्ण उपस्थिति के साथ हिन्दी कविता में दमकता है. वो अपने जीवन में कई बार गिरे,चोट खाई लेकिन हार नहीं मानी. जिजीविषा उनमें अपार थी इसलिए लिखा भी- जीवन चिरकालिक क्रंदन, मेरा अंतर वज्र कठोर. उनकी जिजीविषा के सभी कायल थे. केदारनाथ अग्रवाल ने लंबी बीमारी से उनके उबरने के बाद कहा.. हिन्दी का अपराजेय कवि ठीक हो रहा है, पाताल से सूरज की तरह उभर रहा है. उन पर कभी मैंने कुछ लिखा था:
जब नहीं सूझते शब्द
भाव हो जाते हैं भोथरे
और अर्थ के अथाह में
डूबने लगता है वाक्य विन्यास
तब अनायास ही तुम दे जाते हो
अपनी भरपूर संपदा से कुछ
नवीकरणीय ऊर्जा.
मैं कैसे उरिन हो सकता हूं तुमसे
क्या सरदी की कांपती सुबह
चुपचाप डूब नहीं जाती
वसंत की करुणा में?