दूसरी कथा के केन्द्र में एक नैतिक दुविधा है. कर्मठ किसान जोगिन्दर, जिसे 'कौम की अोर से लड़नेवालों' की अोर से आदेश हुआ है कि वो रात-बे-रात भौंकने वाले अपने कुत्ते को मार दे, क्योंकि उसकी आवाज़ रात के भयभीत सन्नाटे को भंग करती है. क्योंकि एक कुत्ते का आहट सुनकर भौंकना रात के गुप्प अंधेरे में निकलने वाले इन बंदूकधारी उग्रवादियों को परेशान कर रहा है. कहानी की यह नैतिक दुविधा बेल्जियन निर्देशक दार्देने बर्दर्स की पिछली फिल्म 'टू डेज़, वन नाइट' की, अौर आनंद गांधी की 'शिप अॉफ थीसियस' जैसी मौलिक नैतिक दुविधाअों पर खड़ी कहानियों की याद दिलाती है. लेकिन इससे भी ज़्यादा कहानीकार वरयाम सिंह का यह कथासूत्र गुरविंदर की सिनेमाई भाषा में प्रगट होकर हमारे दौर के सबसे उल्लेखनीय फिल्मकार नूरी बिल्जे चेलान के विजुअल नैरेटिव की याद दिलाता है, जहां इंसानी मनोजगत के सबसे अंधेरे कमरों के किवाड़ किसी टॉर्च की फ्लैशलाइट डालकर खोले जाते हैं.
गुरविंदर की पिछली फिल्म 'अन्हे घोड़े दा दान' की तरह ही, यहां 'चौथी कूट' में भी निर्णयकारी घटनायें परदे पर नहीं घटतीं. लेकिन उनकी एकाधिकारवादी छाया हमेशा मौजूद है. एक कमाल का बिम्ब रचते हुए गुरविंदर 'अॉपरेशन ब्लू स्टार' की खबर रेडियो पर चल रहे बीबीसी बुलेटिन के माध्यम से ब्रेक करते हैं. स्पष्ट है, यहां खबर सुनते सारे इंसानों की ज़िन्दगी की दिशा इस खबर की वजह से पूरी तरह बदल सकती है. लेकिन उनका हिस्सा इस घटनाक्रम में बस इतना भर है, जितना किसी कठपुतली के नाच में खुद कठपुतली का होता है. अौर फिर फौरन ये कठपुतली इंसान चंद अन्य ऐसे इंसानों को अपनी आंखों के सामने से गुजरते देखते हैं, जिन्होंने अभी-अभी कठपुतली होने अस्वीकार किया है. कांधे से कांधा मिलता है, चंद अौर कठपुतलियां अपनी नियति के धागे तोड़ने को बढ़ चलती हैं.
इसके फौरन बाद फिल्म के सबसे विहंगम एरियल दृश्य में गुरविंदर बिना शॉट का धागा तोड़े, सत्ता की अति के प्रतिपक्ष में खड़े हुए प्रतिरोध को साक्षात चेहरा देते हैं. गुरविंदर की फिल्म निर्णयकारी नहीं है. वो पंजाब में उग्रवाद के चरम पर खड़ी है, लेकिन इस क्रॉसफायर में अपना पक्ष नहीं चुनती. लेकिन इस निरपेक्षता को निर्लिप्तता ना समझा जाए. वो सत्ता के उस अन्यायपूर्ण चेहरे के बारे में बखूबी बताते हैं जिसके कांधे पर चढ़कर ऐसा उग्र आतंकवाद जन्म लेता है. उस विहंगम निरंतर एरियल दृश्य का अौचक विसर्जन एक गोली की आवाज़ से होता है, अौर फिल्म की कहानी फिर भयभरी आशंकाअों के गहरे कुएं में गिर जाती है.
निर्देशक गुरविंदर सिंह सिनेमाई भाषा के चित्रकार हैं. अौर गुरविंदर के सिनेमैटोग्राफर उनकी फिल्मों के समान भूमि पर खड़े रचयिता हैं. सत्य राय नागपाल ने 'अन्हे घोड़े दा दान' में हमें पंजाब की सर्द सुबहों पर उतरती अंधे कुहरे से भरी सर्दियाँ दिखाई थीं. 'चौथी कूट' में उन्होंने धान के कटोरे की मूसलाधार बरसातों को पकड़ा है. गेंहूं के जवान खेतों पर उतरती मौसम की पहली बरसातें. अमृत बरसात, भूखे मैदानों को सुख की वर्षा से पाट देने वाली बरसात. आदिम बरसात, इंसान के मन में भय भर देने वाली बरसात. रात के दृश्यों में खेतों में बसे खुली छतों वाले मकानों में सत्य किसान जीवन की बियाबान निर्जनता को पकड़ते हैं. 'चौथी कूट' फिल्म का चमत्कार उसकी दृश्यावली के साथ उसके ध्वनि प्रयोगों में निहित है, जो यहां कहानी को उद्धाटित करने के सबसे कारगर हथियार हैं. क्योंकि इस नैरेटिव में स्क्रीन स्वयं घटनाक्रम का प्रदर्शनकारी माध्यम नहीं, सुस्मित बॉब नाथ की ध्वनि कहानी के वैकल्पिक आयामों को उद्धाटित करने का माध्यम बनती है.
फिल्म का सबसे निर्णायक मौका ही उसका सबसे मार्मिक क्षण है, जहां जोगिन्दर दोनों अोर से आसन्न खड़े आतंक की गिरफ़्त में आकर अन्तत: अपने पालतू कुत्ते को ज़हर खिलाने की अोर बढ़ता है. सुबह का दृश्य है. भोर का सूरज फूट रहा है. घर के चौबारे में कुनबे के सारे बड़े इकठ्ठे कर लिए गए हैं. देखिए, जोगिन्दर कैसे ज़हर में मिठास घोल रहा है. जैसे अपने भीतर के सारे प्रतिरोध की चाशनी इस ज़हर के हवाले कर रहा है. घर के तमाम बूढ़ों के चेहरे पर मौत का सन्नाटा है. लेकिन वो पालतू को चाहकर भी ज़हर नहीं खिला पाता. वजह, उसकी संतान सामने खड़ी ये कृत्य देख रही है.
यह दृश्य एक किशोर बेटे की अांखों के सामने पिता की आत्मा की हत्या का बिम्ब है. सबसे कठोर, सबसे उदास.
'चौथी कूट' बाज़ मौकों को छोड़कर परदे पर प्रत्यक्ष हिंसा के प्रदर्शन से बचती है. लेकिन कितनी ही बार यह उस नुकीली प्रतिछाया को पकड़ती है, जिसे यह प्रत्यक्ष हिंसा इंसानी जीवन में भीतर तक गाड़ देती है. निहत्थे पति को बूटों अौर बन्दूक के बटों के नीचे पिटते देखती पत्नी, पालतू पशु को जहर खिलाते मालिक को देखता अबोध बेटा, अफ़सर के आदेश पर निहत्थे जीव पर गोली चलाते पुलिसिया जवान को सुनसान नज़रों से देखती बूढ़ी मां, हिंसा से घिरे एक शहर में लोहे की गाड़ी से उतर अंधेरे सुनसान में बढ़ते कुछ अकेले कदमों की आहट अौर अकेले छूट जाने का भय. ये तमाम हिंसा के वो रूप हैं जो सीधे जीव पर हमला नहीं करते, यह मनुष्य की भीतरी इंसानियत को बियाबान में ले जाकर मारते हैं.
गुरविंदर की 'अन्हे घोड़े दा दान' में कथासूत्रों का संदर्भ विरल था, लेकिन यहां 'चौथी कूट' में कथा के पीछे का ऐतिहासिक संदर्भ बहुत बज़बूत है. एक भिन्न अर्थ में वे भी टेरेंटीनो की तरह कहानी के नहीं, प्रसंगों के फिल्मकार हैं. लेकिन दोनों ही फिल्मों में गुरविंदर परदे पर प्रदर्शन के लिए कहानी के निर्णायक क्षणों को नहीं पकड़ते. उनकी कहानी दर्शक को निर्णायक क्षण के ठीक पहले तक लेकर जाती है, अौर फिर घटना के ठीक बाद उसकी दूर तक जानेवाली परछाइयां पकड़ती है. उतना ही गाढ़ा तनाव, उतना ही गहरा अपरिचय. अगर 'अन्हे घोड़े दा दान' गुरविंदर की 'पल्प फिक्शन' थी तो 'चौथी कूट' उनकी 'इनग्लोरिअस बास्टर्ड्स' है.
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