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'2 से ज्यादा बच्चे तो सरकारी नौकरी नहीं' वाला नियम कितना सही कितना गलत?

सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि ये नियम, स्थापित कानून के विरुद्ध नहीं है, इसमें किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं हो रहा है और इसलिए इसमें हस्तक्षेप की कोई ज़रूरत नहीं है.

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सुप्रीम कोर्ट ने 2 से ज़्यादा बच्चे तो सरकारी नौकरी नहीं, परिवार नियोजन पर एक बड़ा संदेश देने की कोशिश की है. (तस्वीर-आजतक)

“2 बच्चे हैं मीठी खीर, उससे ज़्यादा बवासीर...”

2022 की मई में आई थी वेब सीरीज़ पंचायत 2. उसमें गांव का पंचायत सचिव तमाम दीवारों पर परिवार नियोजन का ये नारा लिखवा देता है. गांव में जिसके-जिसके घर 2 से ज़्यादा बच्चे हैं, सब कसमसा जाते हैं. गिनने लगते हैं कि हमारे पहले दो बच्चे मीठी खीर हैं तो क्या तीसरा वाला बवासीर है. आख़िरकार सचिव जी को गांव में जिस-जिस दीवार पर ये नारा लिखा है, सब जगह चूना पुतवाना पड़ता है.

परिवार नियोजन. 1952 में जब देश में पहली बार चुनाव हुए, उसी साल सरकार ने जनता को इस शब्द से वृहद स्तर पर परिचित कराया. तब ये नया ही था. कइयों के लिए ये सोच पाना भी अजीब था कि क्या अब ये भी सरकार बताएगी कि बच्चे कितने पैदा करने हैं. लेकिन तब भारत परिवार नियोजन पर इतने बड़े स्तर पर बात करने वाले चुनिंदा देशों में से ही था. तबसे परिवार नियोजन को लेकर न जाने कितने नारे आए, जिन्हें हमने-आपने दीवारों पर पुते हुए देखा, ट्रेन-बस पर चस्पा देखा. बच्चे 2 ही अच्छे… छोटा परिवार, सुखी परिवार… क्यों इतनी बातें होती हैं परिवार नियोजन पर, क्या है वो फ़ैसला, जिससे ये मुद्दा एक बार फिर बहसों में ज़िंदा हो गया है, क्या आबादी कम होनी चाहिए वाला तर्क इतना ही सरल-सीधा है? और क्या भारत की आबादी वाकई इतनी तेज़ी से बढ़ रही है, कि तुरंत कदम उठाना ज़रूरी है? आज इन सारे सवालों पर बात करेंगे. 

दो से ज्यादा बच्चे तो सरकारी नौकरी नहीं

राजस्थान में जिन लोगों के 2 से ज़्यादा बच्चे हैं, वो सरकारी नौकरी नहीं कर सकेंगे. राज्य सरकार के इस नियम को सुप्रीम कोर्ट से भी हरी झंडी मिल गई है. सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि ये नियम, स्थापित कानून के विरुद्ध नहीं है, इसमें किसी के साथ कोई भेदभाव नहीं हो रहा है और इसलिए इसमें हस्तक्षेप की कोई ज़रूरत नहीं है. सुप्रीम कोर्ट के सामने 2003 में भी ऐसा मामला आया था, जब पंचायत चुनाव में उतर रहे उम्मीदवारों के आड़े ये नियम आया था. तब भी कोर्ट ने इसे बरकरार रखा था.

अब कोर्ट ने 21 साल पुराने उस फ़ैसले को भी रिवाइंड किया है. कोर्ट ने कहा, नियम दो से ज़्यादा जीवित बच्चे होने पर उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित करता है और ये नियम भेदभावपूर्ण नहीं है. कोर्ट ने साफ कहा कि इस प्रावधान के पीछे का उद्देश्य परिवार नियोजन को बढ़ावा देना है.

ये पूरा मामला उठा कहां से? दरअसल, 31 जनवरी 2017 को डिफेंस सर्विसेज़ से रिटायरमेंट के बाद रामजी लाल जाट ने 25 मई 2018 को राजस्थान पुलिस में कॉन्सटेबल के पद के लिए आवेदन किया. लेकिन उनकी उम्मीदवारी को ख़ारिज कर दिया गया. आधार- राजस्थान पुलिस अधीनस्थ सेवा नियम 1989. 

ये नियम क्या कहता है?

कोई भी उम्मीदवार सरकारी सेवा में नियुक्ति के लिए पात्र नहीं होगा, अगर उसके एक जून 2002 को या उसके बाद दो से अधिक बच्चे हों. चूंकि रामजी लाल के दो से अधिक बच्चे थे इसलिए वो राजस्थान में सरकारी नौकरी के लिए अयोग्य हो गए थे. रामजी लाल के इसी मामले पर हाई कोर्ट ने भी नियमों को सही ठहराया था. और अब सुप्रीम कोर्ट में भी जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस केवी विश्वनाथन की बेंच ने 12 अक्टूबर 2022 के राजस्थान हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा है. 

इन नियमों की ज़रूरत क्यों पड़ी?

पहले तो ये समझ लेते हैं कि ये पहला ऐसा मामला नहीं है, न ही राजस्थान पहला ऐसा राज्य है. पहले भी ऐसे मामले आते रहे हैं. कभी फ़ैसला इस पक्ष में रहा, कभी उस पक्ष में. दो से ज़्यादा बच्चे होने के कारण 2017 में मध्य प्रदेश में एक एडीजे मनोज कुमार को बर्खास्त कर दिया गया था. हालांकि इस केस में बाद में जबलपुर हाई कोर्ट ने उनकी नियुक्ति को बहाल कर दिया था. एडीजे मनोज कुमार ने अपने पक्ष में कहा था कि उन्होंने परीक्षा पास कर ज्वाइनिंग कर ली है इसलिए अब यह नियम उन पर प्रभावी नहीं होता.

वहीं ऐसे ही एक और केस में सुनवाई करते हुए उत्तराखंड की हाई कोर्ट ने 2019 में कहा था कि पंचायत चुनाव पर ये नियम लागू नहीं होते. हालांकि राजस्थान और हरियाणा में पंचायत चुनाव में ये नियम लागू हैं.

इस तरह के नियमों के पक्ष में सबसे बड़ा तर्क होता है जनसंख्या नियंत्रण का. कि इस तरह के नियम बनाकर लोगों को परिवार नियोजन के लिए प्रोत्साहित किया जाए. अब बात इस तरह के नियमों के काउंटर में जो तर्क दिए जाते हैं, उन पर. सबसे बड़ा तर्क दिया जाता है चीन मॉडल का. 1976 में भारत ने पहली बार राष्ट्रीय जनसंख्या नीति को लागू किया. इसी के 4 साल बाद चीन ने पूरे देश में वन चाइल्ड पॉलिसी लागू की. मकसद वही- आबादी कम करना. लेकिन तरीका अलग था, ज़्यादा सख़्त था.

2015 तक चीन ने इस पॉलिसी को देश में लागू रखा. दावा किया जाता है कि चीन ने इन करीब 35-36 सालों में 40 करोड़ की आबादी कम की. जब ये इतनी बड़ी उपलब्धि थी, तो क्यों चीन को वन चाइल्ड पॉलिसी से वापस टू चाइल्ड पॉलिसी पर आना पड़ा?

क्या आबादी कम करने के सख़्त प्रयास बैकफायर कर गए?

चीन ने जिस आक्रामकता के साथ जनसंख्या नियोजन किया, उससे बड़े पैमाने पर मानवाधिकारों का हनन हुआ. 2019 में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म आई -One Child Nation. इसे नान्फू वांग ने बनाया था. नान्फू चीनी मूल की एक अमेरिकी फिल्म मेकर हैं. उनके परिवार ने खुद वन चाइल्ड पॉलिसी के तहत दमन की मार झेली थी. उनकी बुआ को अपनी एक बेटी से अलग होना पड़ा. डॉक्यूमेंट्री बताती है कि कैसे जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर लाए गए एक सनकी कानून ने भ्रूण हत्या से लेकर ह्यूमन ट्रैफिकिंग को बढ़ावा दिया. कितने ही परिवार टूट गए.

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चूंकि भारत एक लोकतंत्र है, इसीलिए ऐसा दमन यहां संभव नहीं है. फिर 1980 के दशक में चले जबरन नसबंदी अभियान ने भविष्य के लिए ऐसी किसी पहल पर पूर्ण विराम लगा दिया. BBC से बात करते हुए लंदन स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स के जनसांख्यिकी विशेषज्ञ टिम डायसन कहते हैं- 

“जबरन नसबंदी ने भारत में परिवार नियोजन के ख़िलाफ़ लोगों के मन में एक किस्म की बग़ावत पैदा कर दी. भारत में प्रजनन दर ज़्यादा तेज़ी से घटती अगर इमरजेंसी नहीं लगाई जाती और अगर राजनेता इसको जबरन लागू कराने की कोशिश न करते. इसका एक नतीजा यह हुआ कि बाद की सरकारों ने परिवार नियोजन में हाथ जलाने से दूर रहना ही सही समझा.”

अब परिवार नियोजन को सख़्ती से या नियम बनाकर लागू करने के विरोध में जो दूसरा बड़ा तर्क दिया जाता है, वो है Population Replacement, जिसका ज़िक्र अभी हमारे एक्सपर्ट ने भी किया था.

क्या है Population Replacement?

जनसंख्या रिप्लेसमेंट रेट का मतलब होता है कि देश में जो बच्चे पैदा हो रहे हैं, क्या उनकी संख्या देश की ख़त्म हो रही या मृत हो रही आबादी का संतुलन बनाए रखने के लिए काफी है. चीन ने सख़्ती से 35 साल तक चाइल्ड पॉलिसी लागू रखी, नतीजा ये रहा कि Population Replacement गड़बड़ होने लगा. उनको लगा कि हमने हमारे जनसंख्या लक्ष्य हासिल कर लिए हैं, नतीजतन चाइल्ड पॉलिसी ख़त्म कर दी. 

क्या ये परिवार नियोजन को सख़्ती से लागू करने पर भारत में भी हो सकता है?

जानकार कहते हैं कि कुछ दशकों तक तो नहीं और इसीलिए परिवार नियोजन को कुछ दशक के लिए लागू करने की ज़रूरत है. ये भी कहा जाता है कि चीन, भारत की तुलना में क्षेत्रफल की दृष्टि से करीब 3 गुना बड़ा है, लिहाजा भारत में जनसंख्या घनत्व भी ज़्यादा बड़ी समस्या है.

हमने आपको परिवार नियोजन को लेकर बनाए गए नियमों को सख़्ती से लागू कराने के पक्ष और विपक्ष दोनों बताए. अब इसका ऐसा पक्ष बताते हैं, जो महत्वपूर्ण है.

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भारत को अगर परिवार नियोजन को बड़े स्तर पर लागू करना है तो 2 बातें ज़रूरी हैं. पहली- कमाऊ आबादी का रेशियो मेंटेन रहे. सीधी सी बात समझिए. अगर कमाने योग्य आबादी कम हो जाएगी और न कमाने वाली आबादी ज़्यादा तो अर्थव्यवस्था बुरी तरह लड़खड़ाएगी. और अगर कमाने योग्य आबादी अच्छी-ख़ासी रखनी है तो फिर ये भी ज़रूरी है कि उसी अनुपात में नौकरियां भी पैदा हों. कमाने योग्य लोग ज़्यादा हों और नौकरी कम तो अलग संकट पैदा होगा. लेकिन सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी यानी CMIE के अनुसार, फ़िलहाल भारत में काम करने की उम्र वालों में केवल 40 फ़ीसदी लोग या तो काम करते हैं या काम करना चाहते हैं. काम करने की उम्र मतलब 15 से 64 साल. और कमाऊ आबादी मतलब- वो आबादी, जो 15 से 64 साल के बीच हो और काम कर रही हो या काम करना चाहती हो.

कुल आबादी कम करके भी कमाऊ आबादी बरकरार रखनी है तो भारत में महिलाओं को भी नौकरी की ज़रूरत होगी. लेकिन यहां पर स्थिति और भी बुरी है. CMIE के ही अनुसार अक्टूबर 2022 के आंकड़े कहते हैं कि भारत में काम करने की उम्र हासिल कर चुकी महिलाओं में केवल 10 फ़ीसदी ही काम करती हैं. जबकि चीन में ये आंकड़ा 69 फ़ीसदी है.

राजस्थान वाले केस में सुप्रीम कोर्ट ने ‘2 से ज़्यादा बच्चे तो सरकारी नौकरी नहीं’ वाला फ़ैसला बरकरार रखकर परिवार नियोजन पर एक बड़ा संदेश देने की कोशिश की है. ये संदेश नीतिगत स्तर पर भी है और सामाजिक स्तर पर भी. लेकिन Slow and Steady wins the race की तर्ज पर सारी बातों का एंडनोट वही है कि कोई भी समाज जैसे-जैसे साक्षर होता जाएगा, परिवार नियोजन जैसी बातें वैसे-वैसे ही लोग स्वेच्छा से स्वीकार करते चलेंगे.

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