इन उम्र से लंबी सड़कों को, मंज़िल पे पहुंचते देखा नहीं. बस दौड़ती फिरती रहती हैं, हम ने तो ठहरते देखा नहीं.ये पंक्ति कभी गुलज़ार ने लिखी थी. उस मुंबई की शक्ल बताने को, जो बेपनाह भीड़ से भरी है. मुंबई राजधानी है. राजधानी में मौके होते हैं. शायद इसीलिए राजधानियां ऐसी ही भीड़-भड़ाका होती हैं. लेकिन क्या ऐसी कोई राजधानी होगी, जहां लोग ही न हों? जहां सड़कों पर राहगीरों के बदले केवल झाड़ू लगाने वाले कर्मचारी दिखें? सड़कें भी कैसी? 20-20 लेन की, जिनके आगे हाई-वे भी पानी मांगे. विशालकाय इमारतें. आलीशान होटेल्स. शॉपिंग मॉल्स. एयरकंडीशन्ड चिड़ियाघर, गोल्फ़ कोर्स, सफ़ारी पार्क. चौबीस घंटा बिजली, कोने-कोने में वाई-फ़ाई. पूरा शहर ऐसा, मानो किसी ने सुंदर सी पेंटिंग में प्राण फूंक दिए हों. सबकुछ हो इस राजधानी में, सिवाय लोगों के. कोई उत्सुक प्राणी ये डिस्क्रिप्शन सुनकर सिर खुजलाते हुए पूछेगा- जब पब्लिक ही नहीं, तो राजधानी कैसी? क्यों?
इस क्यों का सिंपल सा जवाब है- इरादा. इरादा किसका? तमडॉ का. तमडॉ, यानी म्यांमार की सेना का बर्मीज़ नाम. उसने 2005 में बड़ी प्लानिंग से पूर्व राजधानी रंगून की जगह एक नई राजधानी बसाई. धान और गन्ने के खेत पाटे. तकरीबन 30 हज़ार करोड़ रुपये ख़र्च किए. और तब जाकर बना लगभग 4,800 स्क्वैयर किलोमीटर में फैला, दिल्ली से करीब तीन गुना बड़ा एक आलीशान किलेनुमा शहर. इसका नाम रखा गया- नेप्याडॉ.

लाल घेरे में भारत का पड़ोसी देश म्यांमार. (गूगल मैप्स)
बर्मीज़ भाषा में इसका मतलब होता है- राजा की गद्दी. आप इस शहर में धड़ल्ले से नहीं घूम सकते. न नागरिक बनकर, न पर्यटक के तौर पर. ये इतना सुनसान है कि लोग इसे 'घोस्ट टाउन' कहते हैं. इतना रहस्यमय है कि 2006 में एक पत्रकार को बस इसलिए तीन साल की क़ैद हो गई कि उसने शहर की तस्वीरें खींच ली थीं. कहते हैं, इस शहर के नीचे भी एक शहर बसता है. जहां गुप्त सुरंगों का जाल है.
क्यों बसाई गई ऐसी राजधानी?
नेप्याडॉ को बनाने का इकलौता मकसद था, आर्मी लीडरशिप की सुरक्षा. उन्हें जनता की पहुंच से दूर रखना. ताकि जब वो इस आलीशान क़िले में बैठकर जनविरोधी फ़ैसले लें, तो विरोध करने वाली आवाम का साया भी उनसे दूर रहे. लेकिन जब आवाम बाग़ी हो जाती है, तो धूर्त हुक़्मरानों की सारी योजनाएं फ्लॉप रह जाती हैं. ऐसा ही हो रहा है, तमडॉ के साथ. 1 फरवरी को उसने म्यांमार की लोकतांत्रिक सरकार गिरा दी. रातोरात तख़्तापलट कर दिया.
उसे लगा था, जनता हद-से-हद फेसबुक पर पोस्ट लिखेगी. थोड़ी-बहुत आवाज़ें उठेंगी, जिन्हें ताकत के ज़ोर पर चुप करा दिया जाएगा. मगर ऐसा नहीं हुआ. पिछले कई रोज़ से वहां जनता सड़कों पर हैं. बग़ावत इतनी ज़्यादा है कि नेप्याडॉ, जहां किसी पब्लिक प्रोटेस्ट की कल्पना भी नामुमकिन थी, वहां भी जमकर प्रोटेस्ट हो रहे हैं. और क्या कुछ हो रहा है म्यांमार में? दुनिया का क्या रुख है उसपर? क्या है इस तख़्तापलट के पीछे का खेल? आज ये ही सब विस्तार से बताएंगे आपको.

म्यांमार की जनता तख्तापलट के खिलाफ़ सड़कों पर है. (तस्वीर: एपी)
शुरुआत करेंगे टेलिविज़न पर प्रसारित एक ख़बर से
तारीख़- 1 फरवरी, 2020. सुबह सवेरे का वक़्त. नींद के बिल्कुल आख़िरी पहर में पहुंची बर्मीज़ जनता उस रोज़ एक संगीत की आवाज़ से जगी. संगीत, भोंपुओं से गूंज रहे एक सैन्य धुन का. देखा, सड़कों पर सैनिक गश्ती कर रहे हैं. जनता अवाक, ये क्या हो रहा है? प्राइवेट न्यूज़ चैनल्स से भी कुछ साफ़ नहीं हो रहा था. और फिर लोगों की नज़र गई एक ख़ास टीवी चैनल पर. इसका नाम है- म्यावडी. इसकी मालिक है, म्यांमार की सेना. आमदिनों में इसे जनता तो क्या, ख़ुद प्रोग्राम बनाने वाले भी नहीं देखते. मगर उस रोज़ म्यांमार में क्या हो रहा था, इसका जवाब केवल म्यावडी के पास था. उसकी स्क्रीन पर नज़र आ रहे ऐंकर ने जनता को बताया-
म्यांमार में इमरजेंसी लगा दी गई है. अब आर्मी प्रमुख 'मिन ऑन्ग लाइंग' देश की कमांड संभालेंगे.भावार्थ ये कि रातोरात म्यांमार में लोकतंत्र बंद हो गया था. एयरपोर्ट्स बंद. शहरों में इंटरनेट बंद. सत्तारूढ़ 'नैशनल लीग फॉर डेमॉक्रसी' यानी, NLD के सैकड़ों नेता नज़रबंद. सभी 14 राज्यों के मुख्यमंत्री बंद. ऐक्टिविस्ट्स, लेखक, सब बंद. और सबसे बढ़कर, देश की सर्वोच्च सिविलियन लीडर, 'स्टेट काउंसलर' ऑन्ग सान सू ची भी बंद.

म्यांमार के आर्मी प्रमुख मिन ऑन्ग लाइंग. (तस्वीर: एपी)
मगर ये तख़्तापलट हुआ क्यों था?
इसकी ज़रूरत ही क्या थी? क्या म्यांमार की सेना को नागरिक सरकार से कोई ख़तरा था? इस जवाब के लिए आपको थोड़ी क्रोनोलॉजी समझनी होगी. म्यांमार में पहला तख़्तापलट हुआ 1962 के साल. इसके बाद आधी सदी तक सेना ने सीधे राज किया. ये व्यवस्था 2011 में बदली. इस साल काफी घरेलू और अंतरराष्ट्रीय दबाव में सेना ने लोकतंत्र के लिए जगह बनाई. मुख्य विपक्षी दल NLD के चुनाव में हिस्सेदारी का रास्ता खुला.
मगर सेना की लाई इस डेमोक्रसी में पर्याप्त धूर्तता बरती गई थी. सेना ने पावर ट्रांसफ़र करने से पहले ही अपनी पावर बनाए रखने का पक्का बंदोबस्त कर लिया था. कैसे? 2008 में सेना एक नया संविधान लाई थी. इसमें सेना के पास कई अभूतपूर्व पावर्स थीं. मसलन, लोकतांत्रिक सरकार के गठन के बाद भी रक्षामंत्री की नियुक्ति सेना करेगी. उसके पास डिफेंस मिनिस्ट्री, इंटीरियर मिनिस्ट्री की बागडोर होगी. स्टेट सिक्यॉरिटी पर पूरा कंट्रोल रहेगा. इसके अलावा, संसद की एक चौथाई सीटों पर भी उसे आरक्षण मिलेगा. ताकि उसकी मर्ज़ी के बिना सरकार कोई फ़ैसला न ले सके.

1962 में म्यांमार में पहला तख़्तापलट हुआ था. (तस्वीर: एएफपी)
इसके अलावा एक और बड़ा बंदोबस्त किया था सेना ने
उसे पता था कि चुनावी सिस्टम लाने के बाद देर-सवेर सू ची की पार्टी जीत जाएगी. ऐसा होता, तो सू ची राष्ट्रपति बन जातीं. मतलब, सेना के मुकाबले उनके पास देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद होता. ऐसा न होने पाए, इसके लिए सेना ने संविधान में एक 'टर्म ऐंड कंडीशन' लगा दिया.
इसके मुताबिक, अगर म्यांमार के किसी शख्स का कोई विदेशी रिश्तेदार है, तो वो राष्ट्रपति नहीं बन सकता. इस 'सकता' को आप 'सकती' समझ लीजिए. क्योंकि ये शर्त ख़ास ऑन्ग सान सू ची के लिए रखी गई थी. इसलिए कि उनके दोनों बेटे ब्रिटिश नागरिक हैं.
इन्हीं शर्तों के चलते सू ची ने 2010 के चुनाव का बहिष्कार किया. सेना ने उन्हें मनाने की कोशिश की. सू ची मान गईं. उन्होंने 2012 का उपचुनाव लड़ा. संसद में विपक्ष की नेता बनीं. फिर 2015 के इलेक्शन में उनकी पार्टी को बड़ा बहुमत भी मिल गया. सू ची राष्ट्रपति तो बन नहीं सकती थीं. सो उन्होंने अपने लिए ख़ास पद बनवाया- स्टेट काउंसलर. इसे प्रधानमंत्री के समतुल्य समझ लीजिए.

म्यांमार की स्टेट काउंसलर ऑन्ग सान सू ची. (तस्वीर: एपी)
क्या इसके बाद सेना का वट्ट कम हुआ?
नहीं. पक्षपाती संवैधानिक व्यवस्था के चलते सू ची गवर्नमेंट सेना की सबऑर्डिनेट होकर रह गई. इसके अलावा, ख़ुद सू ची भी बदल गई थीं. अब वो पहले जैसी बाग़ी और मानवाधिकार प्रेमी नहीं रही थीं. वो बचते-बचाते, बिना आर्मी को कन्फ्रंट किए सरकार चलाने पर फ़ोकस कर रही थीं.
इसकी सबसे बड़ी मिसाल दिखी, 2017 में. ये घटना है, रखाइन प्रांत की. वहां एक आर्मी बेस है. 25 अगस्त, 2017 को यहां एक हमला हुआ. हमला किया, रोहिंग्या समुदाय के कुछ दर्जन चरमपंथियों ने. सरकार के मुताबिक, इस हमले में 59 चरमपंथी मारे गए. साथ ही, 12 पुलिसकर्मी और सैनिक भी मारे गए. इस हमले के बाद आर्मी ने बौद्ध बहुसंख्यकों के साथ मिलकर आम रोहिंग्या नागरिकों का नरसंहार शुरू कर दिया. हज़ारों रोहिंग्या मारे गए, ज़िंदा जला दिए गए. सात लाख से ज़्यादा रोहिंग्या को देश छोड़कर भागना पड़ा.
सू ची देश की सिविलियन लीडर थीं. उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार मिला हुआ था. बतौर मानवाधिकार कार्यकर्ता दुनिया में उनकी साख थी. इस नरसंहार पर उन्होंने क्या कहा? उन्होंने इसका समर्थन किया. कहा, आर्मी सही कर रही है. उन्होंने इंटरनैशनल कोर्ट ऑफ़ जस्टिस में खड़े होकर नरसंहार करने वाली बर्मीज़ सेना का बचाव किया. दुनिया में सू ची की ख़ूब थू-थू हुई. मगर म्यांमार की बहुसंख्यक आबादी के बीच उनका कद बढ़ गया.

2017 में रखाइन प्रांत में हज़ारों रोहिंग्या मुस्लिम मारे गए थे. (तस्वीर: एएफपी)
यहीं से शुरू हुई सेना की चिंता
नवंबर 2020 में म्यांमार का अगला चुनाव होना था. पांच साल के कार्यकाल में सू ची सरकार कुछ ख़ास हासिल नहीं कर पाई थी. इकॉनमी चौपट, माइनॉरिटी नाराज़, अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा भी गर्त में. सेना को उम्मीद थी कि 2020 के चुनाव में सू ची हार जाएंगी. सू ची की हार का मतलब होता, USDP, यानी 'यूनियन सॉलिडेरिटी ऐंड डिवेलपमेंट पार्टी' का फ़ायदा.
ये USDP सेना की पार्टी है. इसके डि-फ़ैक्टो मुखिया हैं, म्यामांर के आर्मी चीफ़ मिन ऑन्ग लाइंग. उन्हें जुलाई 2021 में रिटायर होना है. मिन लाइंग का सपना था, रिटायरमेंट के बाद राष्ट्रपति बनना. चुनाव में सू ची को नुकसान होता, तो उनके राष्ट्रपति बनने की संभावना मज़बूत होती.

यूनियन सॉलिडेरिटी ऐंड डिवेलपमेंट पार्टी के सपोर्टर हाथ में पार्टी का झंडा लिए हुए. (तस्वीर: एएफपी)
मगर यहीं पर खेल हो गया
सू ची ने पूरे कार्यकाल में और कुछ भले न किया हो, मेज़ॉरिटी को ख़ुश रखा था. नवंबर 2020 के इलेक्शन में उन्हें इसका फल मिला. उनकी NLD पार्टी ने सेना के लिए आरक्षित सीटों से इतर संसद की 83 फीसदी निर्वाचित सीटें जीत लीं. USDP को मिलीं मात्र सात पर्सेंट सीटें. उसने हल्ला मचाया. कहा, चुनाव में धांधली हुई है. मगर चुनाव आयोग ने उसकी शिकायतों को खारिज़ कर दिया. इसके साथ ही जनरल मिन लाइंग का राष्ट्रपति बनने का सपना भी टूट गया.
इसी टूटे सपने का नतीजा है, म्यांमार का हालिया तख़्तापलट. कई जानकार मानते हैं कि इसके पीछे चीन का सपोर्ट था. ये अनुमान थोड़ा संदिग्ध है. सू ची गवर्नमेंट चीन की गुड बुक्स में थी. 2020 में चीन के प्रीमियर शी चिनफिंग उनके प्रति सपोर्ट दिखाने म्यांमार भी आए थे. ये 2001 के बाद किसी भी चाइनीज़ राष्ट्रपति की पहली म्यांमार यात्रा थी. उन्होंने म्यांमार में बड़ा निवेश किया. रेलवे, ऑइल, गैस पाइपलाइन, बंदरगाह. करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपए से ज्यादा की योजनाओं का करार किया म्यांमार के साथ. चीन इस निवेश का रिटर्न चाहता था. वो सू ची सरकार का हिमायती था.
इसके उलट म्यांमार की सेना के साथ उसके रिश्ते थोड़े गड़बड़ थे. आज से नहीं, पिछले कई सालों से. इसकी सबसे बड़ी वजह थी, सीमांत इलाके. म्यांमार की सेना ने इन सीमांत इलाकों में चाइनीज़ माइनॉरिटी ग्रुप्स को कई बार निशाना बनाया. जवाब में, चीन ने भी म्यांमार में इनसर्जेंसी भड़काई. म्यांमार की सेना को अपने यहां चीन के बढ़ते दखल से भी शंका थी. ये तब की बात है, जब डिक्टेटरशिप के कारण म्यांमार दुनिया में अलग-थलग हो गया था. आइसोलेशन के चलते उसकी अपने पड़ोसी चीन पर निर्भरता बढ़ गई थी. आर्मी को चीन की ज़रूरत भी थी. और ये डर भी था कि कहीं चीन उन्हें भी तो नहीं लील जाएगा. जानकारों के मुताबिक, 2010 में डेमोक्रसी के लिए रास्ता बनाने के पीछे ये डर भी एक बड़ी वजह थी.

चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ म्यांमार की स्टेट काउंसलर ऑन्ग सान सू ची. (तस्वीर: एपी)
हालांकि अब जो स्थिति बनी है, उसमें म्यांमार आर्मी के लिए सबसे सटीक मुहावरा है- आसमान से गिरे, खज़ूर पर अटके. उनका तख़्तापलट वाला गोला अपने ही पाले में दग गया है. पब्लिक सड़क पर घमासान मचा रही है. कल तक म्यांमार की जनता सेना से डरती थी. अब वही जनता सुबह-शाम थाली-बरतन पीट रही है. कह रही है कि बर्तन पीटने से बुरी शक्तियां भागती हैं. सेना भी बुरी है, उसको भी थाली पीटकर भगाएंगे. लोग गोलियों से भी नहीं डर रहे हैं. कई जगहों पर पुलिस और सरकारी अधिकारी भी विरोध में उतर आए हैं.
म्यांमार एकबार फिर आइसोलेट हो गया है
कई देशों ने उसके साथ डिप्लोमैटिक रिश्ते तोड़ लिए. 10 फरवरी को अमेरिका का भी ऐलान आया. वहां बाइडन प्रशासन ने म्यांमार की सेना के खाते सील कर दिए. इसके चलते आर्मी जनरल अमेरिकी बैंकों में रखा अपना करीब सात हज़ार करोड़ रुपए से ज़्यादा का फंड गंवा बैठे हैं. इसके अलावा अमेरिका ने उसपर आर्थिक प्रतिबंध लगाने का भी ऐलान किया. कहा, तख़्तापलट में शामिल सैन्य अफ़सरों पर सेंक्शन लगाया जाएगा.
बाकी देश ऐक्शन ले रहे हैं. वहीं चीन म्यांमार की सेना को रिझा रहा है. बाकी देशों ने तख़्तापलट की निंदा की. मगर चीन चुप रहा. उसकी मीडिया ने तख़्तापलट को कहा- मेजर कैबिनेट रिशफल. माने, कैबिनेट में बदलाव. ये बयान चीन द्वारा म्यांमार की सेना को पुचकारने की कोशिश है. क्योंकि उसे अपनी ऐंटी-इंडिया प्लानिंग के लिए म्यांमार चाहिए. ये उसके लिए बंगाल की खाड़ी में पहुंचने, भारत को और करीब से घेरने का आसान रूट है. आशंका है कि कहीं म्यांमार का आइसोलेशन चीन को फिर से वहां एकछत्र राज न दिला दे.

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन. (तस्वीर: एपी)
म्यांमार के इस प्रकरण का एक और बड़ा हासिल रहा
इस तख़्तापलट के पहले इंटरनैशनल समुदाय के लिए सू ची खलनायिका थीं. लोग अफ़सोस करते थे कि उन्हें नोबेल प्राइज़ क्यों दिया. ख़ूब छीछालेदर होती थी उनकी. तख़्तापलट के चलते वो एकबार फिर नायिका बन गई हैं. पब्लिक तो सपोर्ट में है ही उनके. इंटरनैशनल कम्यूनिटी भी उनके पीछे लामबंद हो गई है.
कुल मिलाकर, म्यांमार आर्मी ने कमाया धेला नहीं और गंवा सब दिया. सेना के लिए परदे के पीछे से सब कंट्रोल करना ज़्यादा फ़ायदेमंद था. जनता ने भी इस अजस्टमेंट से साम्य बना लिया था. लेकिन इस हालिया तख़्तापलट से लोगों को आधी सदी लंबी डिटेक्टरशिप का अतीत याद आ गया. उन्हें प्रत्यक्ष तानाशाही की क्रूरताएं याद आ गईं. यही वजह है कि वो सब दांव लगाकर सड़क पर उतर आए हैं. कह रहे हैं, हमने पांच साल लोकतंत्र का स्वाद चखा. अब हम तानाशाही पर नहीं लौट सकते.