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क्या सरकार 2027 तक डीज़ल गाड़ियां पूरी तरह बंद कर देगी?

प्रस्ताव मंजूर हो गया तो बड़ी गड़बड़ हो जाएगी?

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डीज़ल कारों की जगह गैस और इलेक्ट्रिक कारें ले लेंगी (फोटो सोर्स- आज तक)

सरकार के एक पैनल ने दस लाख से ज्यादा आबादी वाले शहरों में साल 2027 से चार पहिया डीज़ल गाड़ियों पर पूरी तरह बैन लगाने की बात कही है. पेट्रोलियम और नैचुरल गैस मिनिस्ट्री के इस पैनल ने अपनी इन सिफारिशों में डीजल के बजाय इलेक्ट्रिक और गैस बेस्ड व्हीकल्स की बात कही है. पूर्व पेट्रोलियम सेक्रेटरी तरुण कपूर की अध्यक्षता वाले इस पैनल ने ये भी कहा है कि साल 2030 के बाद शहरों में ट्रांसपोर्ट के लिए डीज़ल बसें चलाने की अनुमति नहीं होगी. इनकी जगह शहरों में ट्रांसपोर्ट पूरी तरह मेट्रो ट्रेन और इलेक्ट्रिक बसों पर निर्भर होगा. कमर्शियल वाहनों माने ट्रक वगैरह को भी गैस पर शिफ्ट करने की बात कही गई है. ये सब कवायद नेट जीरो गोल के लिए है. सरकार पूरी तरह कार्बन एमिशन को शून्य तक ले जाना चाहती है. लेकिन डीजल का इस्तेमाल पूरी तरह बंद करने का ये सरकारी प्लान कामयाब कैसे होगा?

आज की मास्टरक्लास में बात सरकार के जीरो डीज़ल यूज़ के प्लान की. हमारे देश में पेट्रोलियम प्रॉडक्ट्स का जितना इस्तेमाल होता है, उसमें से 40% खपत सिर्फ डीज़ल की है. ऐसे में 4 सालों में चार पहिया डीज़ल गाड़ियों पर कंप्लीट बैन की बात हो या कमर्शियल वाहनों को नेचुरल गैस से चलाने का लक्ष्य? क्या ये आसान काम है? और अगर है तो क्या कुछ सालों में ही देश डीज़ल वाहनों से मुक्त हो जाएगा? क्या दूसरे दूसरे देशों में हर तरह की गाड़ियां डीज़ल का इस्तेमाल बंद कर चुकी हैं? और क्या BS-6 का फेज़-2 लागू होने के बाद ऑटो कंपनियों के लिए नई मुसीबत खड़ी होने वाली है? विस्तार से इन सब सवालों के जवाब तलाशेंगे.

पहले तो ये जान लें कि सरकार ने क्या सिफारिशें की हैं-

सरकार क्या चाहती है?

पूर्व पेट्रोलियम सेक्रेटरी तरुण कपूर की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी. एनर्जी ट्रांजीशन एडवाइजरी कमेटी. कमेटी ने अपनी सिफारिशों को लेकर एक रिपोर्ट तैयार कर ऑयल मिनिस्ट्री को सौंपी थी. मिनिस्ट्री ने ये रिपोर्ट जारी की है. इसमें जो कुछ कहा गया है उसे संक्षिप्त में जान लेते हैं-

-डीज़ल से चलने वाले चार पहिया वाहन जितनी जल्दी हो सके बंद किए जाएं. 
-अगले पांच सालों में यानी साल 2027 तक 10 लाख से ज्यादा आबादी वाले सभी शहरों और उन कस्बों में, जहां ज्यादा प्रदूषण है, डीज़ल वाले सभी चार पहिया वाहनों पर बैन लगाया जाए.
-कमर्शियल व्हीकल्स को भी शॉर्ट टर्म में लिक्वीफाइड नैचुरल गैस पर लाया जा सकता है.
-अगले दस सालों के वक़्त में क्लीन फ्यूल पब्लिक ट्रासंपोर्ट के लक्ष्य को पाने के लिए शहरों में डीज़ल वाली सिटी बसें नहीं जोड़नी चाहिए.
-रिपोर्ट में साल 2035 तक इंटरनल कंबशन इंजन वाले मोटरसाइकिल, स्कूटर और थ्री व्हीलर ऑटो को भी हटाने का सुझाव दिया गया है.
-चार पहिया गाड़ियों को भी धीरे-धीरे इलेक्ट्रिक पावर और एथेनाल वाले पेट्रोल की तरफ शिफ्ट करने का आग्रह किया गया है.
-गाड़ियों को इलेक्ट्रिक मोड में लाने के लिए 10 से 15 साल तक CNG को बतौर ट्रांजीशन फ्यूल (कार्बन उत्सर्जन करने वाले ईंधनों के लिए वैकल्पिक ईंधन) इस्तेमाल करने पर जोर दिया गया है.
-रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि हाइब्रिड और फ्लेक्स-फ्यूल वाले व्हीकल्स को प्रमोट करने के लिए टैक्स लागू करने जैसे तरीकों का इस्तेमाल किया जा सकता है.
-रिपोर्ट में सुझाव दिया गया है कि साल 2024 से शहरों में सिर्फ उन्हीं डिलीवरी व्हीकल्स यानी छोटे ट्रक वगैरह का रजिस्ट्रेशन किया जाए जो इलेक्ट्रिक बेस्ड हैं.
-कार्गो ट्रांसपोर्ट यानी माल की सप्लाई वगैरह के लिए रेलवे या फिर गैस से चलने वाले ट्रकों के ज्यादा इस्तेमाल का सुझाव दिया गया है.

यानी सरकार का इरादा साफ़ है. वो पेट्रोल-डीज़ल का ईंधन की तरह इस्तेमाल बंद करना चाहती है. लेकिन क्यों?

सरकार का इरादा क्या है?

चीन, अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के बाद भारत कार्बन डाई-ऑक्साइड का चौथा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है. हालांकि भारत की आबादी के लिहाज से देखा जाए तो प्रति व्यक्ति हमने अमेरिका से छह गुना और चीन के मुकाबले 3 गुना कम कार्बन डाई-ऑक्साइड का उत्सर्जन किया है. ये आंकड़े 2019 के हैं. लेकिन स्थापित कर देते हैं कि भारत अमेरिका, चीन या दूसरे औद्योगिक देशों की तुलना में बहुत कम प्रदूषण पैदा करता है.

फिर भी भारत सरकार का इरादा नेट जीरो एमिशन एमिशन का है. माने जितना प्रदूषण आपने पैदा किया, उतना ही वायुमंडल से सोख भी लिया. आपने प्रदूषण के स्तर को बढ़ाया कतई नहीं. सरकार साल 2070 तक ये लक्ष्य पाना चाहती है. और इसके लिए सरकार ने कुछ टारगेट तय किए हैं जैसे- साल 2030 तक देश की 50 फीसद ऊर्जा जरूरतों को रिन्यूएबल एनर्जी सोर्सेज जैसे कि सोलर एनर्जी वगैरह से पूरा करना और इसी साल यानी 2030 तक सौ करोड़ टन कार्बन एमिशन कम करना आदि. और इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए पेट्रोल और डीजल बेस्ड फ्यूल के इस्तेमाल को कम करने और नेचुरल गैस का इस्तेमाल बढ़ाने की जरूरत है. सरकार चाहती है कि फ्यूल के इस्तेमाल के मामले में साल 2030 तक नेचुरल गैस की हिस्सेदारी बढ़कर 15 फीसद हो सके. जो कि अभी करीब 7 फीसद ही है.

रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2040 तक देश में डीजल की मांग अपने चरम पर होगी. और उसके बाद ये कम होने लगेगी. क्योंकि तब तक सड़कों पर इलेक्ट्रिक व्हीकल चलने लगेंगे. ये भी कहा गया है कि साल 2030 के बाद घरेलू रसोई गैस की मांग घटने लगेगी और साल 2070 तक ये पूरी तरह ख़त्म हो जाएगी क्योंकि तब तक खाना बनाने के लिए पूरी तरह इलेक्ट्रिक एनर्जी का इस्तेमाल होने लगेगा.

लेकिन रिपोर्ट कहती है कि जीवाश्मीय ईंधन का इस्तेमाल कितनी जल्दी कम होगा ये मूल रूप से इस बात पर निर्भर है कि ऑटो सेक्टर कितनी तेजी से इलेक्ट्रिक व्हीकल्स पर शिफ्ट होता है. रिपोर्ट में लिखा है,

"नीतिगत आदेशों के जरिए तेजी से इलेक्ट्रिक वाहनों की तरफ ट्रांजीशन किया जाएगा. और रिफाइनरीज को बंद करने, उनके दूसरे उदेश्यों में इस्तेमाल को गति मिलेगी. बायोफ्यूल और रिन्यूएबल एनर्जी का प्रोडक्शन करके कार्बन उत्सर्जन को कम किया जाएगा."

तो, पेट्रोल, डीजल कम जले और कार्बन वाला काला धुआं हवा में कम घुले ये अच्छी बात है. लेकिन ये कितना आसान है? वो भी तब, जबकि हम डीज़ल के इस्तेमाल में सबसे आगे हैं. एक अनुमान के मुताबिक, हम सभी कार्बन बेस्ड यानी पेट्रो प्रोडक्ट्स में से सबसे ज्यादा डीज़ल का ही इस्तेमाल करते हैं. डीज़ल की हिस्सेदारी करीब 40 फीसद है. और भारत के वो शहर और कस्बे जिनकी आबादी 10 लाख से ज्यादा है, उनकी भी तादाद कम नहीं है. इसीलिए इन शहरों और कस्बों में साल 2027 तक डीज़ल कारों को बंद कर देने की योजना आसान नहीं है.

हालांकि डीज़ल कार बनाने वाली कंपनियों ने भी प्रोडक्शन के मामले में अब हाथ खींचना शुरू कर दिए हैं. मिसाल के तौर पर, देश की सबसे बड़ी कार कंपनी मारुति सुजुकी ने 1 अप्रैल, 2020 से डीजल गाड़ियां बनाना बंद कर दिया है. ये भी संकेत दिया है कि फिर से डीज़ल सेगमेंट की गाड़ियां बनाना शुरू करने का उसका कोई इरादा नहीं है. इसी तरह टाटा मोटर्स, महिंद्रा और होंडा ने भी  1.2-लीटर डीजल इंजन वाली गाड़ियां बनाना बंद कर दिया है. ये कंपनियां सिर्फ बड़े डीज़ल इंजन वाली गाड़ियां बना रही हैं. कुल मिलाकर आंकड़ों में बात करें तो साल 2013 में डीज़ल गाड़ियों की मांग 28 फीसद से ज्यादा थी जो कि अब घट कर करीब 16 फीसद हो गई है.

अब बात उन चुनौतियों की जो डीज़ल गाड़ियों को बंद करने के रास्ते में आ सकती हैं.

डीज़ल गाड़ियां कैसे बंद होंगी?

डीज़ल गाड़ियों के बैन पर अभी सिर्फ प्रस्ताव आया है. अगर ये लागू हुआ तो कितना व्यावहारिक होगा. ये बड़ा सवाल है. और खास तौर पर हैवी और मीडियम व्हीकल्स के बारे में ये सवाल और जटिल हो चलता है. देश भर में सामान के ट्रांसपोर्ट के लिए डीज़ल बेस्ड कमर्शियल व्हीकल्स जैसे ट्रक वगैरह का इस्तेमाल सबसे ज्यादा होता है. इंडियन एक्सप्रेस में छपी अनिल सासी की रिपोर्ट के मुताबिक देश भर में डीज़ल की करीब 87 फीसद खपत ट्रांसपोर्ट सेगमेंट में होती है. और ट्रांसपोर्ट सेगमेंट में ट्रक और बसों की हिस्सेदारी करीब 68 फीसद है. और देश का करीब 40 फीसद डीज़ल उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और हरियाणा में बिकता है.
अब रिपोर्ट के मुताबिक, जैसा सरकार का इरादा है, अगर डीज़ल ट्रकों को CNG में बदला भी जाए तो उसमें कुछ चुनौतियां हैं. जैसे- CNG का इस्तेमाल लंबी दूरी के लिए कैसे करेंगे? ट्रकों में लंबी दूरी के लिए पर्याप्त CNG कैसे ले जाएंगे? ट्रकों में कितना बड़ा गैस टैंक लगाया जा सकता है. 
एक और बात, डीज़ल यूं ही हैवी व्हीकल्स के लिए पसंदीदा ईधन नहीं बना. पेट्रोल इंजन पावर भले ज़्यादा पैदा करें, लेकिन उनकी एफिशिएंसी डीज़ल इंजन से बहुत कम होती है. इसीलिए बड़े इंजन्स के लिए डीज़ल पसंदीदा फ्यूल है.  डीज़ल इंजन में हाई-वोल्टेज स्पार्क प्लग का इस्तेमाल नहीं होता, इसलिए प्रति किलोमीटर कम डीज़ल की खपत भी होती है. डीज़ल इंजन टॉर्क भी अच्छा देते हैं, माने घूमने की ताकत अच्छी होती है. इसलिए भारी वजन ढोने में डीज़ल से चलने वाले ट्रकों को आसानी रहती है.

डीज़ल कारों की बात करें तो इन्हें बनाने वाली कंपनियों का तर्क है कि हाल ही में BS-6 नॉर्म्स के तहत इंजन बनाने के लिए वो बड़ा निवेश कर चुकी हैं. और कार्बन एमिशन कम हो इसके लिए वो BS-6 नॉर्म्स फॉलो कर ही रहे हैं, जिसका फेज़ टू भी आ गया है. इसके अमल के लिए भी निवेश हुआ और इसके चलते वाहनों की कीमत बढ़ी. ऑयल कंपनियों का भी कहना है कि   BS-6 नॉर्म्स के चलते, रिफाइनरीज के लिए डीज़ल में सल्फर की मात्रा कम करना जरूरी हो गया है. भारतीय मानक ब्यूरो (BIS) ने भी डीज़ल को 7 फीसद बायोडीज़ल मिलाकर बनाने का निर्देश दिया है. जिससे डीज़ल पहले से कम प्रदूषण करता है.  BS-6 नॉर्म्स के तहत गाड़ियों के इंजन बनाने की अनिवार्यता के चलते ऑटो सेक्टर पर फर्क पड़ा है. कई कारों को इसके चलते डीज़ल सेगमेंट से बाहर जाना पड़ा. नए एमिशन नॉर्म्स के तहत जो डीज़ल गाड़ियां बन भी रही हैं उनकी कीमतें काफी बढ़ी हैं. इस बारे में हम पहले ही मास्टरक्लास में चर्चा कर चुके हैं. अगर आप वो शो देखना चाहें, तो लिंक डिस्क्रिप्शन में मिल जाएगा.

और डीज़ल सेगमेंट की गाड़ियों की खरीदारी की बात करें तो साल 2013 तक पैसेंजर व्हीकल की रेंज में डीज़ल कारों की हिस्सेदारी करीब आधी थी. हालांकि डीज़ल गाड़ियों का मेंटीनेंस पेट्रोल गाड़ियों की तुलना में कुछ ज्यादा रहता है लेकिन फिर भी डीज़ल की कीमत का पेट्रोल की तुलना में कम होना लोगों को लुभाता रहा. लेकिन धीरे-धीरे कीमतों का ये फर्क कम होने लगा. नतीजतन डीज़ल गाड़ियां भी सड़कों से गायब होने लगीं. आंकड़ों में बात करें तो साल 2021-22 में डीज़ल कारों की कुल हिस्सेदारी 20 फीसद से भी कम रह गई.  

ऑटोमोटिव सेक्टर के जानकारों का मानना है कि डीज़ल व्हीकल्स पर कम्प्लीट बैन में मोटा-माटी दो दिक्कतें हैं. एक कि कार बनाने वाली कंपनियों और ऑयल कंपनियों ने BS-5 से BS-6 नॉर्म्स के मुताबिक़ इंजनों को ढालने में भारी पैसा खर्च किया है. जिसका नुकसान होगा. दूसरी दिक्कत कमर्शियल सेक्टर से जुड़ी है. जो पूरी तरह डीज़ल इंजन वाले हैवी व्हीकल्स पर निर्भर है. जिन्हें LNG, CNG और हाइड्रोजन जैसे वैकल्पिक ईंधन पर शिफ्ट किया जाना आसान नहीं है. हालांकि पेट्रोलियम मिनिस्ट्री की रिपोर्ट का कहना है कि हैवी व्हीकल्स में LNG, डीज़ल और CNG दोनों को रिप्लेस कर सकता है. जिससे ग्रीनहाउस गैसों का एमिशन कम होगा.

कुल मिलाकर बहस यही है कि प्रदूषण कम करने, जीरो कार्बन एमिशन का लक्ष्य पूरा करने के लिए नियमों में सख्ती लाना भार काफी नहीं है तो फिर एक उद्यम को ही पूरी तरह बंद कर देना भी कितना व्यावहारिक होगा.