अध्यापक हिंसा करते हैं क्योंकि बिना हिंसा और अनुशासन के बच्चों को सिखाया नहीं जा सकता. बच्चे हिंसा करते हैं क्योंकि हिंसा के बिना समाज सुनने को तैयार नहीं है. तो इस उलटबांसी को हम आत्मसात किए बैठे हैं. और, केवल हम ही नहीं सारी दुनिया आत्मसात किए बैठी है कि अहिंसा मजबूरी का प्रमाण है और हिंसा ताकत का. मुझे लगता है बात उलटी है. असल में स्वयं हिंसा करने वालों पर अगर आप ध्यान दें, चाहे वे सरकारी अफ़सर के तौर पर हिंसा करते हों, चाहे वे विचार में हिंसा को सही ठहराते हों, चाहे वे राज्यसत्ता के रूप में हिंसा करते हों. स्वयं हिंसा करने वालों पर अगर आप ध्यान दें, तो आप पाएंगे कि हर हिंसक व्यक्ति और विचार अपने आपको परिस्थितियों के मजबूर दास के रूप में प्रस्तुत करके ही अपने नैतिक संकट का समाधान कर पाता है.
मुझे इस बात का अहसास बहुत देर से हुआ. इस अहसास को उपलब्ध कराने में बहुत सी चीजों का, बहुत से व्यक्तियों का योगदान था. हिंसा का सम्बन्ध गहरी नैतिक मजबूरी बल्कि अपंगता से है, इस बात का गहरा बोध मुझे अपने जीवन में कराया मेरे मित्र और सिखावनहार दिलीप सीमियन ने. इस अल्पता और अल्पज्ञता के साथ मैं इस यात्रा को आपके सामने बांटना चाहता हूं.- 'मजबूरी का नाम महात्मा गांधी' से 'मज़बूती का नाम महात्मा गांधी' तक की यात्रा. जाहिर है यह यात्रा गांधी की नहीं है. यह यात्रा मेरी है. इसलिए संकोच दूर हो सकता है कि 'वामपंथी होने के बावजूद' मुझे बुला लिया. आख़िरकार ऐसी यात्रा करने का अधिकार तो वामपंथियों को भी है ही!

ये तस्वीर 2 मार्च, 1938 की है. हरिपुरा में आयोजित कांग्रेस बैठक के दौरान पशु फॉर्म खोले जाने के मौके पर मौजूद महात्मा गांधी.
मित्रों! 1989 में मैं, दिलीप और हमारे एक मित्र जुगनु रामास्वामी पंजाब गए थे. सड़क के रास्ते, कार से. पंजाब में दो अनुभव ऐसे हुए जिन्हें मैं जीवन भर नहीं भूल सकता. दोनों ही एक अर्थ में आध्यात्मिक अनुभव थे. एक अनुभव था बटाला क़स्बे के चौक पर. पहली बार मुझे मालूम पड़ा कि 'रीढ़ की हड्डी में ठण्डक दौड़ जाने' के मुहावरे का वास्तविक अर्थ क्या होता है. हम लोगों के सामने जा रही एक कार एकाएक रुकी, उसमें से तीन-चार हट्टे-कट्टे नौजवान हाथ में बन्दूकें लिए हुए उतरे और मुझे लगा कि बस हम अभी शहीद होते हैं. दूसरे का शहीद होना बहुत रोमांचक होता है. खुद के शहीद होने की आशंका रीढ़ की हड्डी में ठण्डक दौड़ा देती है. यह अनुभव मुझे उस समय पहली बार हुआ.
दूसरा और इतना ही मार्मिक अनुभव दमदमी टकसाल में हुआ. हम लोग जानते हैं कि दमदमी टकसाल खालिस्तानी आंदोलन का नैतिक और बौद्धिक केंद्र था. हम लोग वहां गए. हमारी उस पंजाब यात्रा का उद्देश्य था, गांधीजी से बहुत ही तुच्छ, अपने जीवन में, अपने विचार में, बहुत छोटी-छोटी सी प्रेरणा लेते हुए, यह समझने की कोशिश करें कि लोग मरने और मारने पर क्यों उतारू हो जाते हैं. इसलिए हम पंजाब में तरह-तरह के लोगों से मिले. कम्युनिस्टों से, कांग्रेसियों से, भाजपाइयों से और स्वयं उनसे जो स्वतंत्र खालिस्तान के आंदोलन को चला रहे थे.दमदमी टकसाल ऐसे लोगों का केंद्र था. वहां जब हम गए, हमें विस्तार से खालिस्तानी आंदोलन के तर्क को समझाने के लिए लम्बे-लम्बे भाषण पिलाए. हम लोग काफी डरे हुए थे, काफी घबराहट थी लेकिन दिलीप अपनी आदत के मुताबिक़ बहस पर उतारू थे और बहस चल रही थी.

ये ऐतिहासिक डांडी मार्च के समय की तस्वीर है, जब गांधी अपने समर्थकों के साथ नमक कानून तोड़ने जा रहे थे.
उस बहस के बीच एकाएक, उस बैठक में जो सबसे ज्यादा मुखर, जो सबसे ज्यादा व्यवस्थित रूप से अपनी बातों को कह रहे थे और बहुत सलीके से हमें यह समझाने की कोशिश कर रहे थे कि खालिस्तानी आंदोलन की सफलता के लिए हिंसा और आतंकवाद क्यों अपरिहार्य हैं. वे एकाएक बिना किसी वजह के, बिना किसी पूर्वापर क्रम के बोले,
"वैसे जी एक बात है, अगर गांधीजी होते तो पंगा सुलट जाता."
हमें यह बात समझ में नहीं आई. पूछा कि आपके कहने का मतलब क्या है? कैसे सुलट जाता पंगा, गांधीजी के होने से? वे बोले
"देखो जी ऐसा है कि अगर वे होते तो सारे आतंकवाद और सारी गोलाबारी के बावजूद आते और अमृतसर में भूख हड़ताल पर बैठ जाते."
मेरे लिए यह एक आध्यात्मिक अनुभव था. मैं ऐसा कुछ नहीं कह रहा हूं कि यह कहने वाला व्यक्ति हिंसा का विरोधी हो गया. मैं यह भी नहीं कह रहा हूं कि ऐसा कहने वाला व्यक्ति गांधी-मार्ग का पथिक या गांधीवादी हो गया. लेकिन गांधी की राजनीति, गांधी का सामाजिक जीवन, गांधीजी का राजनैतिक जीवन उनके घोर विरोधी के मन में भी संवाद के प्रति आस्था उत्पन्न करता था और करता है. मित्रों! ध्यान देने की बात यह है जिस भय की चर्चा मैंने अपनी डायरी के अंशों के हवाले से की, वह भय सबसे पहले संवाद की संभावना को ही समाप्त करता है. उस भय का यह केवल एक अनौपचारिक या अनायास काम नहीं है. ऐसा भय, संवादहीनता को संभव करने वाला भय है. हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि यह जानबूझकर और प्रयत्नपूर्वक उत्पन्न किया जाता है. यह केवल संयोग नहीं है.

इस तस्वीर में गांधी जेल की अपनी कोठरी के अंदर सो रहे हैं.
दमदमी टकसाल का जो संस्मरण मैंने सुनाया, उससे ऐसा लग सकता है कि गांधी की महत्ता केवल उनके आत्मबलिदान में है. ऐसा नहीं है. गांधी की महत्ता उनके आत्मबलिदान में, उनके साहस में निश्चित रूप से है, लेकिन वह महत्ता उससे कहीं आगे जाती है. गांधी की महत्ता है उनके विचार में, उनकी अंतर्दृष्टि में और उनके विवेक में. हमें इस बात को समझना चाहिए. आज के व्याख्यान का जो विषय मैंने चुना 'मज़बूती का नाम महात्मा गांधी' उस पर थोड़ा-सा हम ध्यान दें. मज़बूत शब्द ज़ब्त से बनता है-- धीरज, सहन करना, धैर्य के साथ खड़े रहना. मज़बूत अनिवार्यतः आक्रामक व्यक्ति को नहीं कहते हैं. मज़बूत उस व्यक्ति को कहते हैं जिस व्यक्ति में धीरज हो, जिसमें विवेक हो. इस अर्थ में गांधीजी की मज़बूती प्रेरणाप्रद है और शिक्षाप्रद भी.

ये तस्वीर 23 अप्रैल, 1930 की है. गांधी अपने आश्रम के लोगों को 'द टाइम्स' अखबार पढ़कर देश-दुनिया की खबरें सुना रहे हैं.
मित्रों, हमारा समय क्रूर हिंसा के साधारणीकरण और विकेंद्रीकरण का समय है. दूसरी चीजों का विकेंद्रीकरण हुआ हो या न हुआ हो जैसे सत्ता का, धन का, उद्योग का, लेकिन आप अपने आसपास के समाज को देखें तो क्रूरता और हिंसा का अभूतपूर्व विकेंद्रीकरण हुआ है. अब क्रूरता और हिंसा पर केवल राजसत्ता का एकाधिकार नहीं है. आज के क्रांतिकारी भी केवल सफाया नहीं करते. विधिवत और व्यवस्थित रूप से यातनाएं भी देते हैं. वे केवल वर्ग शत्रुओं का सफाया नहीं करते, वे स्कूली बच्चों से भरी हुई बस को भी बमों से उड़ा देते हैं. वह मुखबिरों के हाथ-पांव काटकर उन्हें जीवन भर तड़पने के लिए छोड़ देते हैं. हिंसा और क्रूरता का विकेंद्रीकरण और हिंसा का ऐसा अभूतपूर्व साधारणीकरण मार्टिन लूथर किंग की उस प्रसिद्ध चेतावनी की याद दिलाता है. यह एक करुण विडम्बना है कि जिस भाषण में मार्टिन लूथर किंग ने ये बात कही थी, वह उनका अंतिम भाषण था.
मार्टिन लूथर किंग ने कहा था
"जिस मोड़ पर हम पहुंच चुके हैं उस मोड़ पर दुनिया के लिए चुनाव अब नॉन- वायलेंस और वायलेंस के बीच में नहीं है. अब चुनाव नॉन-वायलेंस और नॉन-एग्ज़िस्टेन्स के बीच में है. आप हिंसा और अहिंसा में से एक को नहीं चुन सकते. आपको अहिंसा और सर्वनाश के बीच में से एक को चुनना है. गांधीजी यह बात बार-बार कहा करते थे कि सत्य और अहिंसा, मैं कोई नई बात नहीं कर रहा हूं. सत्य और अहिंसा तो शाश्वत हैं. ट्रुथ एंड नॉन वायलेंस आर एज ओल्ड एज हिल्स."
मैं सत्य के बारे में अभी नहीं कहना चाहता कुछ भी. विषय और समय दोनों की सीमा है. लेकिन अहिंसा के प्रसंग में मैं यह दृढ़तापूर्वक कहना चाहता हूं कि उनका कहना कि "अहिंसा का विचार शाश्वत है, मैं कुछ नया नहीं कह रहा." यह गांधीजी की विनम्रता है और इसे शब्दशः नहीं लिया जाना चाहिए. जिस अर्थ में गांधीजी अहिंसा की बात करते हैं वह मानवीय विचार के इतिहास में सर्वथा अभूतपूर्व और मौलिक है. गांधीजी की अहिंसा केवल परंपरा से चली आ रही धार्मिक अहिंसा का विस्तार भर नहीं है. इस बात को अच्छी तरह हमें समझना चाहिए.

नोआखाली में महात्मा गांधी.
हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि संसार के सभी धर्मों में अहिंसा अंततः एक आदर्श है, एक आइडियल है. जिसे पाने का आपको प्रयत्न करना चाहिए. और जिसको न पाने की स्थिति के जस्टिफिकेशन हमेशा आपके पास तैयार रहते हैं. गांधीजी के लिए अहिंसा केवल आदर्श नहीं है. गांधीजी के लिए अहिंसा आपके दैनंदिन जीवन की सार्वजनिक और व्यक्तिगत जीवन की बुनियादी कसौटी है. गांधीजी के लिए अहिंसा केवल आइडियल नहीं है. गांधीजी के लिए अहिंसा बुनियादी जीवन मूल्य है. इस दृष्टि से गांधीजी की अहिंसा पारम्परिक धार्मिक अहिंसा से कहीं आगे की चीज है...
संसार का हर धर्म पवित्र और अपवित्र हिंसा के बीच अंतर करता है. संसार का हर धर्म वध और हत्या के बीच अंतर करता है. हत्या अस्वीकार्य है, वध न केवल स्वीकार्य है बल्कि कई स्थितियों में करणीय है. गोडसे के बयान का अर्थ समझना चाहिए. गोडसे जब भी हिंदी या मराठी बोलता था, कभी वो हत्या शब्द का प्रयोग नहीं करता था. गोपाल गोडसे की पुस्तक का शीर्षक ही है 'गांधी वध आणि मी'. वध नैतिक रूप से स्वीकृत, नैतिक रूप से मान्य प्राणहरण की चेष्टा है, जो कि कई बार जरूरी हो जाती है. इसलिए अहिंसा वहां तक ठीक है जहां तक कि वह हमारे विचारों, हमारी अवधारणाओं, हमारी आस्थाओं के अनुकूल हों. अहिंसा अपने आप में कसौटी नहीं है. बल्कि अहिंसा ऐसी प्राविधि है, ऐसी मान्यता है, जिसे हमें आस्था की कसौटी पर कसना है.

जनसभा को संबोधित करते गांधी.
हिंसा गहरे विचार की मांग करने वाला विषय है. संगठित और सोद्देश्य हिंसा की असल में एक प्रतीकात्मक शक्ति होती है. हमारे एक मित्र बहुत ही रोचक चुटकुला सुनाते हैं. बड़ा मानीखेज चुटकुला है. मजिस्ट्रेट की अदालत में थानेदार साहब ने एक चोर को पेश किया. कहा- "हुज़ूर मैंने इसको पकड़ा है." चोर था एकदम छरहरा, फुर्तीला और थानेदार साहब थे खूब मोटे, थुलथुल. मजिस्ट्रेट को यह देखकर हंसी आ गई. उन्होंने कहा कि "चोर को आपने पकड़ा है! यह जो भागने लगे तो कहीं का कहीं पहुंचेगा और आपके लिए एक कदम भी उठाना भी मुश्किल है. आपने कैसे पकड़ लिया इसको?" तो थानेदार साहब ने कहा-- "हुज़ूर हुकूमत दौड़कर नहीं चलती, इकबाल से चलती है. मैंने एक बार कह दिया खबरदार! खड़े रहना, हिलना नहीं. इसकी मजाल थी कि हिल जाता अपनी जगह से."
संगठित और सोद्देश्य हिंसा असल में इकबाल का मामला है. हिंसा की सजेस्टिव पावर महत्वपूर्ण होती है. और, गांधीजी की मज़बूती की बात जब हम करते हैं तो बहुत सीधी सी बात हमारे सामने है, गांधीजी की और लाखों असफलताओं की चर्चा की जा सकती है. गांधीजी के बहुत सारे काम विवादस्पद रहे हों. इतने लम्बे सार्वजनिक जीवन में विवाद होना स्वाभाविक है लेकिन इस बात से तो संभवतः गांधीजी का घोर विरोधी, घोर आलोचक भी इनकार नहीं करेगा कि गांधीजी ने इंपीरियल पावर की हिंसा की सजेस्टिव ताकत को, उसके इकबाल को ख़त्म कर दिया. तोड़ दिया उन्होंने हिंसा की उस ताकत को.

महात्मा गांधी अपने इंग्लैंड ट्रिप के दौरान एक बच्चे के साथ.
उन्होंने (गांधीजी) ने बारम्बार दो बातों को स्पष्ट किया है. एक, यह कि अहिंसा और कायरता पर्यायवाची नहीं हैं. कायरता की मूल प्रेरणा वस्तुतः वही है, जो हिंसा की मूल प्रेरणा है. आक्रामकता किसी भी कीमत पर अपने आपको बचाए रखने की प्रेरणा से उत्पन्न होती है और इसी प्रेरणा से कायरता उत्पन्न होती है. जब आप दूसरे को ध्वस्त करके अपने आपको नहीं बचा सकते तो भाग करके अपने आपको बचा लें! हिंसा इस अर्थ में कायरता की सहधर्मी है. हिंसा और कायरता परस्पर विरोधी नहीं हैं. हिंसा और कायरता परस्पर पूरक हैं. गांधीजी गहरे में इस बात को जानते थे. बिलकुल ठीक जानते थे कि अहिंसा और कायरता पर्यायवाची नहीं हैं बल्कि दोनों परस्पर कतई विरोधी नैतिक मनोदशाएं है.
गांधीजी की महत्ता इस बात में है कि यह सारी चीजें जो अधिक से अधिक व्यक्तिगत आदर्श के रूप में समाज से दूर, पहुंचे हुए महात्माओं की साधना के रूप में प्रचलित थीं, इन सारी चीजों को गांधीजी ने एक व्यापक जनांदोलन का बुनियादी दार्शनिक आधार बना दिया. करुणा की बात गांधीजी के पहले बहुत लोगों ने की है. संयम की बात गांधीजी के पहले बहुत लोगों ने की है लेकिन करोड़ों लोगों से एक साथ मांग करने वाला व्यक्ति पहला था यह मोहनदास करमचंद गांधी, जिसने करोड़ों लोगों से मांग की कि आप केवल परमात्मा के साथ नहीं बल्कि अपने साथी मनुष्यों के साथ, अपने साम्राज्यवादी शोषकों के साथ भी करुणा और संयम का सम्बन्ध रखें. गांधीजी की अहिंसा इस अर्थ में अभूतपूर्व है. इसलिए मैंने कहा कि यह उनकी केवल विनम्रता है.

अपनी एक प्रार्थना सभा में गांधी.
एक छोटे-मोटे विद्यार्थी के तौर पर, इतिहास और समाज और साहित्य के बारे में कुछ सोचने समझने वाले एक निहायत हकीर इंसान के तौर पर मैं महसूस करता हूं कि गांधीजी का यह कहना कि सत्य और अहिंसा शाश्वत हैं, बिलकुल सही है, लेकिन गांधीजी की अहिंसा परंपरा से चली आ रही अहिंसा का विस्तार नहीं है वह उनकी मौलिक जीवन दृष्टि है. इस अर्थ में मौलिक जीवन दृष्टि है गांधीजी की अहिंसा कि वह बुनियादी तौर से टिकी हुई है करुणा और संयम पर. गांधीजी के सारे जीवन को किताब की तरह पढ़ें, आजकल प्रचलित, फैशनेबल शब्दावली के मुहावरे में कहें कि एक टेक्स्ट की तरह पढ़ें तो उसका सबटेक्स्ट यही है, करुणा और संयम.
गांधीजी का जीवन सफल हो या असफल उस पर फैसला देने का अधिकार कम से कम मुझे नहीं है. बड़े इतिहासकार, बड़े विचारक यह फैसला देंगे. लेकिन गांधीजी का जीवन एक बहुत ही सार्थक प्रयत्न है हर तरह की मोरल डाईकॉटमी के पार जाने का और इस अर्थ में वह हम सबके लिए कम से कम मेरे लिए एक सतत प्रेरणा के भी स्रोत हैं और सतत चुनौती के भी.

मैं उन लोगों में से नहीं हूं जो यह माने कि मैं गांधी नहीं हो सकता लेकिन कम से कम इतना तो जान ही सकता हूं कि किसी भी मनुष्य की तरह मेरे भीतर सतत उपस्थितियां हैं एक गांधी की, एक गोडसे की. और सतत चुनौती है सही चुनाव की. सही जगह खड़े होने की. गांधीजी के शब्दों में सत्य का आग्रह करने की. गांधीजी ने सत्याग्रह को परिभाषित किया था, सत्याग्रह का मतलब ही है कि अपने घोर विपक्षी के सत्य में भी, उसकी सम्भावना में भी आस्था रखना. इस बात में आस्था कि किन्ही कारणों से कोई व्यक्ति कितना भी पतित क्यों न हो गया हो, अंततः घोर पतित, घोर पापी, घोर हिंसक मनुष्य भी मनुष्य है. और जब तक उसकी मनुष्यता है तब तक संभावना है.
उस निपट मानव को, जैनेन्द्र के शब्दों में, उस 'निपट मानव' को अपने भीतर खोजना, उस मज़बूती को इसका एक नाम गांधी है, वो मज़बूती जो हमें इस बात की लगातार याद दिलाती है, हम उस याद को सुन पाएं या न सुन पाएं, गांधीवादी मुहावरे में कहें तो परमात्मा की आवाज़ जो मेरे, आपके, सबके मन में कहीं न कहीं कौंधती है. बिना संयम और करुणा के मैं मनुष्य नहीं हो सकता. वह आवाज़ जो हम सबके मन में कौंधती है और हमें प्रेरित करती है, विवश करती है कि हम सही वक़्त पर सही फैसला करें. हम कर नहीं पाते वह एक अलग मसला है लेकिन वह संभावना सदा बनी रहती है. वह संभावना जिसका नाम मज़बूती है और दूसरा नाम महात्मा गांधी.
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