आज से दो-चार हजार साल साल पहले न दवाइयां होती थीं, न मॉडर्न सुख-सुविधा वाले हॉस्पिटल. ऐसे में अगर आदमी को चोट लगती या दर्द होता होगा, तो क्या किया जाता रहा होगा? सालों के अनुभव से ज्ञानी वैद्य जड़ी-बूटी, पेड़-पौधों का लेप लगाने, शायद करेले का जूस पीने को बोलते रहे होंगे. सालों के तजुर्बों से पता चला होगा कि हल्दी-दूध पीने से घाव जल्दी भरते हैं या फिर खांसी-जुकाम में अदरक और काली मिर्च का काढ़ा फायदा करता है. हमारे घरों में दादी-नानी के नुस्खे आए दिन काम आते हैं. आज भी बोलीविया और इथियोपिया के आदिवासी इलाकों में पारंपरिक तरीकों से ही इलाज किया जाता है.
माना कि आज हमने मेडिसिन की दुनिया में काफी तरक्की कर ली है और ज्यादातर दवाइयां केमिकल तरीकों से बनती है. अगर इन दवाइयों के बनने का इतिहास देखा जाए, तो बहुत सारी दवाएं पेड़-पौधों की छाल, फूल-पत्तियों के अर्क से ही उत्पन्न हुई है. जैसे सिनकोना (हिंदी में कुनैन) पेड़ की छाल को पेरू में सदियों से मलेरिया की रोकथाम के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. 1860 में ब्रिटेन के Clements Markham सिनकोना के बीज और पौधे तस्करी करके भारत लाए और पहले ऊटी, फिर दार्जिलिंग में बड़े स्तर पर इसकी खेती शुरू हुई.

वैज्ञानिकों ने इन जड़ी बूटियों का रस निकालकर बहुत से पदार्थ पाए और हर एक पदार्थ को अलग करके वो रसायन या केमिकल तत्व खोजा, जो वाकई फायदेमंद हो. उदाहरण के तौर पर, अदरक के अर्क में एक-दो नहीं, बल्कि कई सौ केमिकल होते हैं. उसमें से कौन सा खांसी रोकने के काम आता है, वैज्ञानिक ये खोज करते हैं. हर एक केमिकल मॉलिक्यूल को एक-दूसरे से अलग करके, उसे शुद्ध रूप में लाकर उसका स्ट्रक्चर और एक्टिविटी की जांच की जाती है.
Chance discovery
कभी-कभार गलती से भी दवाई की खोज हो सकती है. जैसे प्रथम विश्व युद्ध से ही सल्फर मस्टर्ड (लहसुन जैसी गंध वाली पीले रंग की गैस) रॉकेट और हवाई बम से लोगों को मारने के लिए इस्तेमाल होती आई है. इसका इस्तेमाल जापान, इजिप्ट, इटली समेत अन्य कई देशों ने किया है. इसके पड़ते ही छाले पड़ जाते हैं और लंबे समय में इससे कैंसर भी हो सकता है. करीब 1919 में पेंसिलवेनिया यूनिवर्सिटी में देखा गया कि यह रोग प्रतिरोधक क्षमता देने वाले वाले सेल्स को बनने नहीं देती. येल यूनिवर्सिटी ने रिसर्च में दिखाया कि इसका इस्तेमाल एक प्रकार के खून के कैंसर जैसे हॉजकिंसलिंफोमाया ल्यूकेमिया को ठीक करने के लिए किया जा सकता है. मरीजों पर पहली टेस्टिंग दिसंबर 1942 में की गई. इसके कुछ सालों बाद ही इसका इस्तेमाल कैंसर की कीमोथेरेपी के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है.
जैसे ड्रग Cyclophosphamide.
तमाम तरह की बीमारियां!
बीमारी में दुश्मन पहचानना सबसे ज़रूरी होता है. एक तरफ कीटाणु हैं, जो बाहर से हमला करते हैं, तो दूसरी तरफ कैंसर सेल्स हैं, जो हमारे अपने ही दुश्मन बन जाते हैं और इन दोनों बीमारियों में दवाई ऐसी होनी चाहिए, जो सिर्फ कीटाणु या कैंसर सेल्स को मारे और हमारी तमाम जैविक प्रक्रियाओं पर कोई बुरा असर न करें. लेकिन, कैंसर आसान बीमारी नहीं है, क्योंकि आपको जिन कोशिकाओं को मारना है, वो आपके स्वस्थ अंगों में भी मौजूद होती हैं. कीमोथेरेपी के बाद जो भी सेल्स विभाजित हो रहे होते हैं, चाहे कैंसर के हो या नाखून-बाल बनाने वाले, सब मारे जाते हैं. इसीलिए कैंसर इलाज के बाद मरीज़ गंजे हो जाते हैं.

मॉडर्न मेडिसिन
तो सबसे पहले बीमारी की समझ होनी जरूरी है. वैज्ञानिक रिसर्च करते हैं, ताकि पता चल पाए कि शरीर के कौन से मॉलिक्यूल गड़बड़ हैं. जैसे डायबिटीज में इंसुलिन की कमी होना. तो यहां प्राकृतिक रूप से हमारी कोशिकाएं इंसुलिन नहीं बनातीं. इस कमी को पूरा करने के लिए इंसुलिन के इंजेक्शन लेने पड़ते हैं. इसी तरह अगर कोई प्रोटीन अत्यधिक मात्रा में बन रहा है (जैसे की भूलने की बीमारी अल्ज़्हेइमेर में) तो उसे रोकने की जरूरत होती है.
बीमारी की ध्यान से जांच पड़ताल करने पर एक टारगेट ढूंढा जाता है, जिसे ब्लॉक करने पर बीमारी ठीक हो सकती है. अब इस टारगेट के हिसाब से हजारों केमिकल खोजे/बनाए जाते हैं, जो एक तरह से वह चाभी है, जो टारगेट ताले को लॉक कर सकें. इन सभी हजारों केमिकल्स को कीटाणु या कैंसर सेल्स पर चेक किया जाता है, जो टारगेट को ब्लॉक कर सकें और कीटाणु या कैंसर सेल्स को मार दें.
एनिमल टेस्टिंग
चूहों या अन्य जीवों पर पहले उस बीमारी को स्थापित किया जाता है, फिर देखते हैं कि क्या चुनिंदा केमिकल बीमारी को रोकने में समर्थ हैं? कॉस्मेटिक्स जैसे कि रोजमर्रा काम आने वाली क्रीम, लोशन, तेल इत्यादि की भी टेस्टिंग लैब और तमाम जीवों से होकर आपके घर तक पहुंचती है. (ये प्रक्रिया मेरे लिए करना पर्सनली बहुत दुखदायी है!)
जो दवाइयां कम से कम मात्रा में बीमारी ठीक कर दें और जिनसे कम से कम साइड इफेक्ट्स हों, उन्हें चुना जाता है. 6 से 8 साल तक लैब में और ऐनिमल टेस्टिंग करने के बाद पेटेंट के लिए आवेदन भरते हैं.
नैदानिक परीक्षण (Clinical Trial)
पेटेंट के साथ ही इंवेस्टर्स और बड़ी फार्मा कंपनियों को इंप्रेस करने और उनसे निवेश करवाने की प्रक्रिया शुरू होती है. ये पैसा क्लीनिकल ट्रायल के लिए चाहिए होता है. इसमें डॉक्टर, वैज्ञानिक, हॉस्पिटल्स, सरकारें साथ आती हैं, लेकिन सबसे जरूरी होते हैं वो मरीज, जो वालंटियर करते हैं क्लीनिकल ट्रायल में भाग लेने के लिए! बहुत से बीमार वैज्ञानिक और डॉक्टर भी मरते-मरते इस प्रक्रिया में भाग लेते हैं, क्योंकि अगर उनके जीवनोपरांत नई दवाई की खोज हो जाए, तो बहुत सी जानें बचाई जा सकती हैं! ये रिस्क से भरा होता है, जिसमें मरीज़ को फायदा भी हो सकता है, नुकसान भी!

ये मूलतः तीन चरणों में किए जाते हैं. पहले चरण में केमिकल के साइड इफेक्ट चेक करते हैं. ये चरण स्वस्थ लोगों के ऊपर किया जाता है, ताकि पता चल सके कि कितनी मात्रा में इस दवा को देना सुरक्षित है. दूसरे चरण में 100 से ऊपर बीमार मरीजों पर ये तय करते हैं कि केमिकल कितनी मात्रा में, कब-कब और कैसे (टैबलेट या इंजेक्शन) देना है. तीसरे चरण में इसी बीमारी के हजार या उससे ज्यादा मरीज लेते हैं. कंट्रोल ग्रुप में कोई दवा नहीं दी जाती और टेस्ट ग्रुप में टेस्ट केमिकल दिया जाता है. अगर कोई दवा इस बीमारी को ठीक करने के लिए मार्केट में हो, उसे भी तीसरे ग्रुप को दिया जाता है, ताकि ये पता चल सके कि नई टेस्ट केमिकल पिछली दवा से बेहतर है या नहीं.
अगर टेस्ट केमिकल पुरानी दवाइयों से अच्छी निकली, तभी अप्रूवल मिलता है और अब उसे केमिकल नहीं, बल्कि दवाई कहा जाता है और वह आप तक पहुंचती है. इसके बाद भी पोस्ट-मार्केट ट्रायल चलते रहते हैं, जो देखते हैं कि इन दवाइयों से एलर्जी वगैरह तो नहीं हो रही.
कुल-मिलाकर हज़ारों वैज्ञानिक, डॉक्टरों और केमिस्ट की 12 से 15 सालों की मेहनत के बाद एक दवाई तैयार होती है, जिसकी लागत तकरीबन 7,000 करोड़ के आसपास होती है. वैसे ये बता दिया जाए कि लैब टेस्टिंग के बाद करीब 8 से 10 हजार मॉलिक्यूल, जो क्लीनिकल ट्रायल पहुंचते हैं, उनमें से सिर्फ एक अप्रूव होता है और मार्केट पहुंचता है.
चूंकि इन दवाइयों की टेस्टिंग में बहुत पैसा लगता है, इसलिए पेटेंट के वजह से करीब 20 साल तक कंपनी मुनाफा लेती है. पेटेंट खत्म होते ही इनके केमिकल एनालॉग यानी एक जैसे दिखने वाले केमिकल्स भी बिकने लगते हैं, जो सस्ते होते हैं. इन्हें जेनेरिक ड्रग्स कहा जाता है. (वैसे चौंकिए मत, दवाइयों को हम वैज्ञानिकों की भाषा में ड्रग ही कहते हैं).
बायो टेक्नॉल्जी का योगदान
डायबिटीज ठीक करने के लिए इन्सुलिन नाम के प्रोटीन का इंजेक्शन दिया जाता है. 1980 के पहले तक सुअर या गाय के 2 टन मांस से करीब 226 ग्राम इंसुलिन निकाला जाता था. अब बायो टेक्नॉल्जी की वजह से इंसुलिन बनाने वाली जीन को बैक्टीरिया में डाल दिया है और इस बैक्टीरिया की खेती करके उनसे इंसुलिन इकट्ठा किया जाता है. ये इंसुलिन जानवरों से निकाले गए इंसुलिन से कहीं सस्ता और आसानी से बनने वाला है और इसमें जानवरों को मारा भी नहीं जाता.
एक्स-विवोइम्यूनोथेरेपी एक नई तकनीक है, जिसमें कैंसर पीड़ित के रोगप्रतिरोधी और कैंसर सेल्स को बाहर निकालकर लेबोरेटरी में मीटिंग करवाते हैं. ताकि रोग प्रतिरोधी सेल्स, कैंसर को पहचान जाए. डॉक्टर मरीज़ में इनको वापस डालते हैं, तो ये कैंसर को मार भागते हैं! हालांकि, ये बहुत महंगी तकनीक है और कम ही अस्पतालों में ऐसी सुविधाएं उपलब्ध हैं. ऊपर से ये कुछ ही प्रकार के कैंसरों पर कारगर है.
अंत में यही आशा करूंगी कि फल-खाना ताजा और बढ़िया खाएं, चुस्त-दुरुस्त रहें, ताकि औषधि लेने की नौबत कम आए या न आए. केमिकल्स से दूर और प्रकृति के पास रहें, खुश रहें, ईष्यालु नहीं. शरीर स्वस्थ रहेगा और एक्सरसाइज पर पहले ही लंबा लेक्चर दे चुकी हूं, जो आप यहां पढ़ सकते हैं: सिर्फ मिल्खा सिंह ही नहीं, आप भी थोड़ी हरकत फरमाएं
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