'प्रोफेसर यश पालः जन्म - 26 नवंबर, 1926, झांग, पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान में). मृत्यु- 24 जुलाई, 2017, नोएडा, यूपी. बड़े वैज्ञानिक, शिक्षाविद्. पद्म विभूषण मिला.'
कुर्ते में ही साइंस लैब पहुंच जाते थे प्रो. यश पाल
आईआईटी कोचिंग को स्टूडेंट्स के लिए अच्छा नहीं मानते थे महान वैज्ञानिक
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प्रोफेसर यशपाल (यूट्यूब स्क्रीनग्रैब)
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घर-घर केबल लगने के पहले जिन लोगों ने टीवी देखा है, उनके पास एक धुंधली याद है एक बूढ़े की, जो कभी-कभार दूरदर्शन पर शनिवार-रविवार आने वाले सीरियलों में साइंस समझा के जाता था. माने गैस पर पतीला रखो, तो उस पर हल्की ओस सी क्यों जमती है या ये कि चिरैया बिजली के नंगे तार पर बैठ जाती है, फिर भी उसे करंट काहे नहीं लगता. ये प्रोफेसर यश पाल थे - हमारे आस-पास के माहौल में पैदा होने वाले बेसिक सवालों के पीछे का साइंस समझाने वाले, वो भी आसान भाषा में.

प्रोफेसर यश पाल (फोटोःविकिमीडिया कॉमन्स)
'तेरा सिर मोटा है'
मैंने और मेरी पीढ़ी ने उन्हें हमेशा बूढ़ा ही देखा. लेकिन यश पाल की ज़िंदगी में बचपन और जवानी भी थी. उनका जन्म हुआ था 26 नवंबर 1926 को - पाकिस्तान के हिस्से में रह गए पंजाब में चेनाब के किनारे झांग नाम का एक शहर है - वहीं. जब 9 साल के थे, तो एक बड़ा भूकंप आया था उस इलाके में. मगर यश पाल बच गए. स्कूल जाते तो खूब सवाल पूछते थे. उन दिनों क्वेटा का रहने वाला उनका दोस्त हबीब उनसे कहता था कि तेरा सिर बहुत मोटा है, इसलिए इतने सवाल पूछता है. लेकिन हबीब उन्हें ज़्यादा दिन नहीं चिढ़ा पाया. 1947 में बंटवारा हुआ और यश पाल को बीएससी की पढ़ाई छोड़कर हिंदुस्तान आना पड़ा.हिंदुस्तान आए तो कॉलेज में जगह नहीं थी. कहा गया कि नया कॉलेज खुल रहा है, उसमें दाखिला देंगे. लेकिन यश पाल को रुकना नहीं था. उन्होंने कहा कि जो दो-तीन कमरे आपके काम न आ रहे हों, उसी में हमें बैठने दें, हम उसी को कॉलेज मान लेंगे. इस तरह फिज़िक्स में एमएससी की पढ़ाई पूरी की.
ज़िंदादिल भी, अड़ियल भी
यश पाल पढ़ाई में तेज़ थे, तो बंबई के टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) के कॉस्मिक रेज़ ग्रुप में शामिल कर लिए गए. यहीं से पीएचडी करने के लिए मैसाचुसेट्स इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी गए. वापस आकर फिर TIFR जॉइन किया. TIFR के दिनों में यश पाल कुर्ता पहनकर ही लैब चले जाते थे. जब उन्हें टोका गया, तो उन्होंने कहा कि मुझसे कॉन्ट्रैक्ट साइन कराते वक्त नहीं कहा गया था कि ड्रेस कोड होगा. तो अगले ने भाभा के नाम का डर दिखाया. (होमी जहांगीर भाभा, जिनके नाम पर भाभा एटॉमिक रिसर्च सेंटर बना है.) बोला, मिस्टर भाभा को ये पसंद नहीं. यश पाल ने जवाब दिया, तो कह दो मिस्टर भाभा से कि मुझे आकर ये खुद बता दें. कुल जमा बात ये कि खुशरंग मिज़ाज के यश पाल न लोड लेते थे, न हीट. इसी एटीट्यूड में यश पाल 35 साल तक TIFR में रहे.
'टर्निंग पॉइंट' में गिरीश कर्नाड. इस विज्ञान धारावाहिक के पीछे भी यश पाल की टीम की सोच थी.
नर्ड ही नहीं थे, स्मार्ट भी थे
साल 1972 में भारत सरकार ने अंतरिक्ष विज्ञान विभाग बनाया. इसके तहत 1973 में अहमदाबाद में स्पेस एप्लिकेशन सेंटर खोला गया. इसके हेड बनाए गए यश पाल. तब भारत स्पेस रिसर्च की दुनिया में नया था. संसाधन भी कम थे. तो यश पाल ने दिमाग लगाया. उन्होंने (और साथी वैज्ञानिकों ने) तय किया कि भारत हाई एनर्जी पार्टिकल फिज़िक्स में शोध करेगा. इसके पीछे कारण ये कि भारत इक्वेटर के करीब है. यहां हाई एनर्जी कॉस्मिक किरणें यूरोप और अमरीका के बनिस्बत सीधे आती हैं. तो भारत को इस किरणों की रिसर्च में स्वाभाविक बढ़त मिली. साल 1976 में उन्हें पद्म भूषण दिया गया और 2013 में पद्म विभूषण.यश पाल को उस साइंस के लिए याद नहीं किया जाता, जो लैब में बंद रहता है और रिसर्च जर्नल में छपता है. यश पाल को याद किया जाता है साइंस को लोगों के बीच ले जाने के लिए. माना जाता है कि साइंटिस्ट घुन्ने होते हैं, ज़्यादा बातचीत में उनकी रुचि नहीं होती. यश पाल खुले दिल से लोगों से मिलते थे और चाहते थे कि विज्ञान भी लोगों से लोगों की भाषा में बात करे. ये लोगों में वैज्ञानिक चेतना पैदा करने का उनका अपना तरीका था. 1987 में 'भारत जन विज्ञान जत्था' देश भर की सड़कों पर निकला. ग्रहण जैसी एक साधारण चीज़ के बारे में कुछ नया जान कर जो गुदगुदी होती है, वो इस जत्थे ने पांच करोड़ लोगों तक पहुंचाई. जत्थे की प्लानिंग में यश पाल भी थे. यश पाल ही थे, जिन्होंने सामूहिक रूप से सूर्य ग्रहण/ चंद्र ग्रहण लोगों को दिखाने के लिए कैंप लगाए, ताकि ग्रहण को लेकर लोगों में भ्रांतियां कम हों.
दूरदर्शन पर आने वाले साइंस शो टर्निंग पॉइंट में यश पाल नियमित रूप से आते और स्पेस और फिज़िक्स की बातें लोगों को आम बोलचाल की भाषा में समझाते. वो बस साइंटिस्ट नहीं थे, वो साइंस कम्युनिकेटर थे.
स्कूली शिक्षा पर यश पाल के खयाल इस वीडियो में देखे जा सकते हैंः
यश पाल की ऐसी ही ताज़ा सोच लोगों ने तब देखी, जब यश पाल को भारत के स्कूलों में पढ़ाई सुधारने के लिए बनी नेशनल एडवाइज़री कमिटी का चेयरमैन बनाया गया. यश पाल ने अपनी रिपोर्ट लर्निंग विदाउट बर्डन नाम से बनाई. उनका मानना था कि हर बच्चा स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु होता है. तो उसके अंदर एक वैज्ञानिक छिपा होता है. यही मानव स्वभाव है. लेकिन हम बेकार की जानकारी लादकर उसे खत्म कर देते हैं. उनके लिए समझना रटे हुए को दोहरा देना नहीं था. उनके लिए समझना वो था, जिसके बाद मज़ा आए.
बंद कर दो IIT कोचिंग
यश पाल आईआईटी (और इस तरह की) कोचिंग के सख्त खिलाफ थे. उनका मानना था कि इस तरह की ट्रिक-मैथड वाली पढ़ाई और प्रतियोगिता से पैदा होने वाला स्ट्रेस आपको एक कमतर इंसान बना देता है. अपनी इस अलहदा सोच के चलते यश पाल को जब-जब यूजीसी या किसी और संस्था की ज़िम्मेदारी दी गई, उन्होंने लोगों की उम्मीद से बढ़कर काम किया. हर जगह लोग उनके मुरीद रहे. वो जेएनयू के चांसलर भी रहे.शिक्षा के मामले में स्कूल जितने यश पाल के कर्ज़दार हैं, उतने ही कॉलेज भी. भारत में हायर एजुकेशन में सुधार पर लिखी उनकी रिपोर्ट के लिए उन्हें हमेशा याद किया जाएगा. यूनिवर्सिटी की पढ़ाई को लेकर उनका मानना था कि सभी यूनिवर्सिटी बंद कर दी जाएं. और सभी प्रोफेसर और छात्र लोगों के बीच जाकर पढ़ें-पढ़ाएं. ये आइडिया यश पाल के दिमाग में ही आ सकता था. वो कहते थे कि इंसान-इंसान से ही सीख सकता है. वरना समय के साथ स्कूल खत्म हो जाते, सिर्फ लाइब्रेरी बचतीं.

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने साल 2013 में प्रो. यश पाल को पद्म विभूषण से सम्मानित किया.
यश पाल ने अपनी 90 साल की ज़िंदगी में इतने काम किए कि उनका ज़िक्र एक बार में करना मुश्किल है. कोई एक खास किस्सा चुनना भी मुश्किल है. मेरे दिमाग में रह-रहकर यश पाल की वो बातें कौंध जाती हैं, जो मैंने साइंस का एक निहायत घोंचू छात्र होकर भी पसंद की, मिसाल के लिए उनका ये कहना कि हम सब उस चीज़ से बने हुए हैं, जो कभी सितारों में जला करती थी. तो इस हिसाब से हम सब स्टार्स की संतान हैं. बचपन में जब कभी रात के वक्त लाइट चली जाती थी तो आंगन में चारपाई पर आसमान की ओर मुंह करके पड़े-पड़े ये सोचना जिस रोमांच से भर देता है, उसका बयान यहां मुमकिन नहीं.
यश पाल शायद अब उन्हीं तारों के बीच हैं, जिनकी बातें वो करते थे. तो मैं थोड़ा वक्त निकाल कर अपने बचपन के उस बूढ़े को याद कर लेना चाहता हूं, जिसकी ज़बान से साइंस खेला लगता था, बोझा नहीं.
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