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लैंसडाउन कैंटोनमेंट का नाम जिन जसवंत सिंह पर रखा जा रहा है, उनकी वीरता देश भूल नहीं पाएगा

लैंसडाउन कैंटोनमेंट बोर्ड ने इसका नाम बदलकर जसवंतगढ़ किए जाने का प्रस्ताव पारित किया है. लैंसडाउन का ये नया नाम 1962 के भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए जवान जसवंत सिंह रावत के सम्मान में रखा जा रहा है.

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लॉर्ड लैंसडाउन (बाएं) के नाम पर बसे लैंसडाउन (मध्य में एक प्रतीकात्मक चित्र) का नाम बदलकर शहीद जसवंत सिंह (दाएं) के नाम पर रखा जाएगा. (फोटो सोर्स- wikimedia, इंडियन आर्मी, आज तक)

उत्तराखंड का पौड़ी-गढ़वाल जिला. यहां एक खूबसूरत पहाड़ी कस्बा है. नाम है- लैंसडाउन. दिल्ली से करीब 280 किलोमीटर दूर बसा ये कस्बा सेना का छावनी इलाका है. अब लैंसडाउन कैंटोनमेंट बोर्ड ने इसका नाम बदलकर जसवंतगढ़ किए जाने का प्रस्ताव पारित किया है. लैंसडाउन का ये नया नाम 1962 के भारत-चीन युद्ध में शहीद हुए जवान जसवंत सिंह रावत के सम्मान में रखा जा रहा है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, इस प्रस्ताव को लखनऊ में सेना के सेंट्रल कमांड और फिर उसके बाद रक्षा मंत्रालय भेजा जाएगा.

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लैंसडाउन का इतिहास क्या है, इसका ये अंग्रेजी नाम कैसा पड़ा, और जसवंत सिंह रावत कौन थे, जिनके सम्मान में ये इसे नया नाम दिया जा रहा है, सारे सवालों के जवाब विस्तार से बताते हैं.

कालूडांडा से लैंसडाउन तक का सफर

पौड़ी-गढ़वाल जिले के बीच में लैंसडाउन है. इसका इतिहास पुराना है और रोचक है. आज लैंसडाउन कैंटोनमेंट में सेना की गढ़वाल राइफल्स रेजिमेंट का ट्रेनिंग सेंटर है. खुद में एक टूरिस्ट स्पॉट होने के अलावा लैंसडाउन, कई बड़े टूरिस्ट स्पॉट्स के रास्ते में पड़ता है. मसलन- बद्रीनाथ, केदारनाथ, हेमकुंड साहिब और कॉर्बेट नेशनल पार्क वगैरह. लैंसडाउन कैंटोनमेंट बोर्ड की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक, करीब  6 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित इस इलाके का नाम कालूडांडा हुआ करता था. ये इलाका ओक और रोडोडेंड्रोन के जंगलों से घिरा हुआ है. रोडोडेंड्रोन को भारत में बुरांस कहते हैं. इसमें पर्याप्त मात्रा में रंगीन फूल आते हैं. कोहरे के मौसम में (जो कि यहां ज्यादातर रहता है) इस जंगल के इलाके को दूर से देखने पर ये डार्क ग्रे (गहरे भूरे) रंग का नजर आता है. इसीलिए इसका नाम कालूडांडा पड़ा था.

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साल 1886 में फील्ड मार्शल सर एफएस रॉबर्ट्स की सिफ़ारिश पर गढ़वाल के लोगों के लिए सेना में एक अलग रेजिमेंट बनाने का निर्णय लिया गया. इसके लिए कालूडांडा के जंगली इलाके को चुना गया. इसको मंजूरी दी तत्कालीन रोहिलखंड इलाके के GOC यानी जनरल कमांडिंग ऑफिसर, ब्रिगेडियर जनरल जीआई मुरे ने. और 21 सितंबर 1890 को  भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड हेनरी लैंसडाउन के सम्मान में कालूडांडा का नाम बदलकर लैंसडाउन कर दिया गया. लैंसडाउन साल 1888 से 1894 तक भारत के वायसराय रहे थे. इन्हीं के शासनकाल के दौरान 1891 में एंग्लो-मणिपुर युद्ध हुआ था. इस युद्ध में मणिपुर की सेना के कमांडर बियर टिकेंद्रजीत और जनरल थंगल को सरेआम फांसी पर लटका दिया गया था और कई लोगों को कालापानी भेज दिया गया था.

लेफ्टिनेंट कर्नल ईपी मेनवेरिंग के नेतृत्व में गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन 4 नवंबर, 1887 को कालूडांडा पहुंची थी. बटालियन के जवानों ने यहां शुरुआती बैरकें बनाईं. इन्हें पहले कमांडिंग ऑफिसर मेनवेरिंग के सम्मान में 'मेनवेरिंग लाइन्स' नाम दिया गया.

लैंसडाउन का नाम जिन जसवंत सिंह रावत के सम्मान में बदला जा रहा है, अब उनकी कहानी जानते हैं.

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कौन थे जसवंत सिंह रावत?

जसवंत सिंह पौड़ी जिले में  बीरोंखाल इलाके के बैरिया गांव के रहने वाले थे. साल 1962 में जब भारत-चीन युद्ध हुआ तब जसवंत, गढ़वाल राइफल्स की चौथी बटालियन में सर्व कर रहे थे. युद्ध के दौरान उनकी बटालियन अरुणाचल प्रदेश के तवांग में तैनात थी. ये 17 नवंबर 1962 की तारीख थी. जसवंत सिंह और उनकी कंपनी ने चीनी सेना, 'पीपुल्स लिबरेशन आर्मी' के दो हमले विफल कर दिए थे. लेकिन तीसरी बार भी चीनियों ने हमला किया. इस बार उनकी एक MMG (मीडियम मशीन गन) भारतीय सैनिकों के एकदम करीब आ गई थी. भारतीय सैनिक इसकी सीधी जद में थे. और उन पर लगातार मशीनगन के फायर झोंके जा रहे थे.

ऐसे में जसवंत सिंह आगे बढ़े. लांस नायक त्रिलोक सिंह नेगी और राइफलमैन गोपाल सिंह गुसाईं ने उन्हें कवर फायर दिया. इंडियन एक्सप्रेस अखबार की एक खबर के मुताबिक, जसवंत मशीनगन के इतना पास पहुंच गए थे जहां से ग्रेनेड फेंका जा सकें. उन्होंने 5 चीनी सैनिकों का खात्मा कर दिया और मशीनगन को अपने कब्जे में ले लिया. लेकिन जसवंत के वापस आते समय चीनियों की फायरिंग में उन्हें कवर दे रहे नेगी और गुसाईं शहीद हो गए और जसवंत गंभीर रूप से घायल हो गए. जसवंत ने आखिरी सांस तक अपनी पोस्ट नहीं छोड़ी. जसवंत सिंह शहीद हो गए. स्थानीय लोग कहते हैं कि इस लड़ाई में दो स्थानीय लड़कियों ने भी जसवंत की मदद की थी. इनके नाम थे- सेला और नूरा. इनमें से एक की जान चली गई जबकि दूसरी को चीनी सेना ने बंदी बना लिया.

जसवंत को उनके शौर्य और पराक्रम के लिए देश के दूसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार, महावीर चक्र से सम्मानित किया गया. उनके सम्मान में, तवांग से लगभग 25 किलोमीटर दूर एक युद्ध स्मारक भी बनाया गया है.

टाइम्स ऑफ़ इंडिया की खबर के मुताबिक, रक्षा मंत्रालय ने अंग्रेजों के समय के कैंटोनमेंट बोर्ड के नाम बदलने का निर्णय लिया है. इसी के तहत लैंसडाउन कैंटोनमेंट बोर्ड ने इसका नाम बदलने का प्रस्ताव पारित किया है. एक अधिकारी ने TOI को नाम न लेने की शर्त पर ये भी बताया है कि कुछ स्थानीय लोग लैंसडाउन का नाम बदलने के विरोध में हैं. वो चाहते हैं कि इसका वर्तमान नाम ही रहने दिया जाए.

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