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वो फ़िल्म, जिसमें अनिल कपूर ने मूंछें नहीं रखी थी

यश चोपड़ा की डायरेक्ट की हुई लोगों को हिला कर रख देने वाली फ़िल्म.

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1991 में रिलीज़ हुई फ़िल्म 'लम्हे' के लिए अनिल कपूर ने मूंछे मुंडवा ली थी.
अनिल कपूर को उनकी मूंछों के लिए जाना जाता है. मेरा मतलब है, कोई उन्हें बिना मूंछों के इमेजिन नहीं कर सकता. लेकिन क्या आपको पता है उन्होंने एक फ़िल्म के लिए अपनी मूंछें उड़वा ली थीं? इस फ़िल्म का नाम है 'लम्हे'. लम्हे 1991 में रिलीज़ हुई थी, ये वो साल है जब मैं पैदा हुई थी. इस फ़िल्म की दो बातें ख़ास हैं:
1. बिना मूंछों के अनिल कपूर
2. गाना- 'मोरनी बागा मा', जिसमें श्रीदेवी राजस्थान के रेगिस्तान में नाच रही थीं.

मैं वो हूं जो अनिल कपूर की फ़िल्मों के गाने सुनकर बड़ी हुई है. ऐसे में उन्हें बिना मूंछों के देखना, मेरे लिए थोड़ा डिस्टर्बिंग था. दरअसल कुछ लोगों के लिए इस फ़िल्म का कॉन्टेंट 'परेशान' करने वाला था. 'लम्हे' यश चोपड़ा ने डायरेक्ट की थी, वही जिनकी आखिरी फ़िल्म थी 'जब तक है जान (2012)'. यश चोपड़ा को उनकी रोमेंटिक फ़िल्मों के लिए जाना जाता है. उन्होंने सामाजिक मुद्दों पर भी फ़िल्में बनाईं जो कमर्शियली हिट भी रहीं. लेकिन ऐसी फ़िल्में बड़े पैमाने पर भुला दी गई हैं. चोपड़ा की पहली फ़िल्म थी 'धूल के फूल(1959)', ये एक हिंदू लड़के की कहानी थी, जिसे एक मुस्लिम आदमी ने पाला था.
फ़िलहाल बात फ़िल्म 'लम्हे' की जिसमें अनिल कपूर की मूछें गायब थीं.
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'लम्हे' फ़िल्म में श्रीदेवी और अनिल कपूर

1991 में 'लम्हे' फ़िल्म काफ़ी हलचल लेकर आई. वो लोग, जिन्होंने ये फ़िल्म नहीं देखी, उनको बता दूं कि ये मूवी वीरेंद्र प्रताप सिंह के एक कैरेक्टर के बारे में है. वो राजस्थान का एक रॉयल आदमी है और उसे पल्लवी नाम की अपने से बड़ी उम्र की महिला से प्यार हो जाता है. पल्लवी का किरदार श्रीदेवी ने निभाया था. हालांकि पल्लवी को किसी और से प्यार होता है, जिससे वो शादी भी कर लेती है. जल्द ही उसका पति मर जाता है. पति की मौत के कुछ वक़्त बाद ही पल्लवी की भी डिलीवरी के समय मौत हो जाती है. उसकी बच्ची वीरेंद्र को सौंप दी जाती है, जिसे पल्लवी अपना दोस्त मानती थी.
दिक्कत तब शुरू होती है जब वीरेंद्र को एहसास होता है कि पल्लवी की बेटी पूजा, बिलकुल अपनी मां की तरह दिखती है. और जिस वक़्त वीरेन्द्र को ये अहसास होता है, पूजा उम्र में वीरेंद्र की आधी होती है. पूजा वीरेन्द्र की निगरानी में ही बड़ी भी होती है. इस दौरान पूजा को वीरेन्द्र पर क्रश हो जाता है.
चीज़ें तब बिगड़ने लगती हैं, जब अपने कल से अंजान पूजा, वीरेंद्र से अपनी मांग भरने के लिए कहती है. तब वीरेंद्र उसे सारी कहानी सुना देता है. पूजा उसकी बात ये कहते हुए काटती है कि उसकी मां और वीरेंद्र के बीच तो असल में कोई रिश्ता था ही नहीं. अगर वो पूजा से शादी करेगा तो इसमें कुछ गलत नहीं होगा. साथ ही वो उससे पूछती है कि क्यों एक वयस्क महिला को अपना पति चुनने का हक़ नहीं दिया जा रहा?
यही वो वजह थी, जिसके कारण भारतीय दर्शक चौंक गए थे.

एक ही आदमी मां और बेटी दोनों के प्यार में पड़ जाता है? कैसा ठरकी है?
वीरेंद्र के मन में जो संघर्ष चलता है, वो शायद इसी मानसिकता की वजह से चल रहा होता है. कभी-कभार समाज हमें गलत समझे, उससे पहले हम खुद को गलत समझ लेते हैं. आखिर में हीरो और हीरोइन, वीरेंद्र और पूजा, अनिल कपूर और श्रीदेवी एक तो हो जाते हैं लेकिन ये फ़िल्म कुछ परेशान कर देने वाले सवाल छोड़ जाती है.
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मिलिंद सोमन और उनकी गर्लफ्रेंड अंकिता कोनवर

'लम्हे' फ़िल्म समाज को आइना दिखाती है. वो समाज जहां अपनी बेटी की उम्र की लड़की से शादी करना कोई आम बात नहीं है. लेकिन हर बार ऐसा ज़ोर-ज़बरदस्ती से नहीं होता. आज, लम्हे के 27 साल बाद भी 52 साल के मिलिंद सोमन का 26 साल की लड़की अंकिता कोनवर से रिलेशनशिप लोगों से पच नहीं रहा, तो हम कैसे उस वक़्त के लोगों से इस फ़िल्म को समझ पाने की अपेक्षा रख सकते हैं?
लड़की इनीमून पर जाए, या शादियों के बीसियों फंक्शन हों, वो लाल चूड़ा ज़रूर पहनती है. इस लाल चूड़े के पीछे बॉलीवुड का बड़ा हाथ है. फ़िल्में सामाजिक बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाती हैं. इसका हालिया उदारहण है 2016 में आई फ़िल्म 'दंगल'. इस फ़िल्म की वजह से वाराणसी के एक अखाड़े ने अपनी 450 साल पुरानी परंपरा को तोड़ा और लड़कियों को अखाड़े में आने की अनुमति दे दी.

ये आर्टिकल टीना दास ने 'ऑड नारी' के लिए लिखा है, इसे रुचिका ने 'दी लल्लनटॉप' के लिए हिंदी में ट्रांसलेट किया है.




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