विजय सिंह ने अपनी किताब 'जया गंगा' में गंगा में तैरती लाशों के बारे में क्या लिखा?
"ज़र और ज़मीन के झगड़ों में जो लोग मारे जाते हैं, उन्हें रात को नदी में फेंक देते हैं."
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'जया गंगा' पहली बार फ्रेंच भाषा में वर्ष 1985 में प्रकाशित हुई थी. लगभग 35 वर्ष बाद यह पुस्तक हिंदी में प्रकाशित हुई है.
लेखक, फिल्मकार और पटकथा लेखक विजय सिंह का उपन्यास ' जया गंगा' हाल ही में हिंदी में प्रकाशित हुई है. अंग्रेजी और फ्रेंच में प्रकाशित होते ही इस किताब ने इन भाषाओं के पाठकों के बीच जबरदस्त लोकप्रियता हासिल की थी. इस पर बनी फिल्म भी फ्रांस और इंग्लैंड में पसंद की गई, जबकि करीब 40 देशों में प्रदर्शित हुई. गौरतलब है कि वीडियो - किताबवाला: पुलवामा हमले पर लिखी इस किताब के कवर पर उमर फ़ारुख़ की तस्वीर क्यों छापी गई? इस किताब में लेखक विजय सिंह ने गंगा में तैरती लाशों का भी वर्णन किया है जो हाल ही में न्यूज़पेपर्स की हेडलाइन बना था. आइए पढ़ते हैं इस उपन्यास का एक अंश और जानते हैं उन्होंने अपनी किताब 'जया गंगा' में इसके बारे क्या लिखा था -
जया गंगा विजय सिंह गंगा में लाशें हमारी नाव में एक नई सवारी आ गई थी. चश्मा लगाए हुए और चेचक के दाग वाला एक नौजवान जिनका नाम गोविंद नारायण चतुर्वेदी था. मल्लाहों ने बताया कि वे भी नरौरा गांव जा रहे हैं जो हमारा आज का पड़ाव भी था. चतुर्वेदी ख़ुद को कॉमरेड कहते थे और भारी पढ़ाकू क़िस्म के लगते थे. हम दो घंटे नाव में रहे, लेकिन हमारे बीच कोई बातचीत नहीं हुई. लेनिन की किताब ‘व्हाट इज़ टु बी डन?’ के हिन्दी अनुवाद में हमारे कॉमरेड इस क़दर खोए हुए थे जैसे गंगा के दूसरे किनारे पर क्रान्ति उनका इन्तज़ार कर रही हो. ‘भैया, भैया.’ राम ने कहा, ‘ज़रा उधर देखिए.’ सफ़ेद कपड़े में लिपटी एक लाश पानी में उतरा रही थी. वह धीरे-धीरे बह रही थी जैसे धूप सेंक रही हो. यात्रा की शुरुआत से ही हमें बहुत-सी सड़ी - गली और फूली हुई लाशें तैरती दिखाई दी थीं. गंगा के आसपास रहनेवाले लोग जानते हैं कि गांवों के ग़रीब अक्सर अपने मृतकों को गंगा की गोद में सौंप देते हैं. गंगा के मैदानों में रहनेवाले ग़रीबों के पास गुज़र-बसर के साधन इतने कम होते हैं कि वे अपने मृतकों का अन्तिम संस्कार भी अच्छी तरह नहीं कर पाते. लेकिन इस लाश को देखना कुछ ज़्यादा ही रहस्यमय और डरावना था. कफ़न बिलकुल नया था और लाश भी ताज़ा और जवान लगती थी. लगता था, उसे हाल ही में एक भारी पत्थर बांधकर फेंका गया है. पत्थर निकल गए थे और शव सतह पर उतराने लगा था. उसका कफ़न भी पूरी तरह भीगा नहीं था. दो कुत्ते नदी में कूदे और तेज़ी से शव की ओर जाने लगे. पुलिसया कुत्तों जैसे अचूक ढंग से उन्होंने शव को दोनों तरफ़ से पकड़ा और धीरे से तट पर खींच लाए. तट पर आकर वे घबरा गए और कुछ दूर जाकर भौंकने लगे. वे फिर शव की ओर गए, फिर पीछे हटे और भौंकने लगे. वे बेचैनी के साथ लाश के इर्द-गिर्द चक्कर लगाने लगे. कहीं लाश ज़िन्दा तो नहीं है? कहीं हम कुछ ग़लत तो नहीं कर रहे हैं? कहीं वह भूत तो नहीं है? फिर एक कुत्ता हिम्मत करके लाश के पास गया, उसने पंजे से कफ़न हटाया और फिर पीछे हट गया. इसके बाद दूसरे कुत्ते ने आकर अपने दांतों से कपड़ा उठाया और एक़दम पीछे हटा. उनकी जांच पूरी हो गई थी. लाश ने कोई हरकत नहीं की. कुत्ते लाश पर टूट पड़े. फिर गिद्ध आ गए. ‘हमारे खानदानी साम्राज्य में कुत्तों का क्या काम है?’ पल भर में ही पांच गिद्ध मंडराने लगे. कुत्ते उन पर भौंके. ‘हमारे शिकार को मत छूना!’ गिद्धों ने भी जैसे पलटकर जवाब दिया, ‘ख़बरदार, अगर हमारे शिकार को छुआ!’ कुत्तों के भौंकने और गिद्धों के पंख फड़फड़ा ने का युद्ध चल ही रहा था कि दस और गिद्ध उतर आए. दोनों टीमें बराबरी पर थीं. खेल शुरू हो गया. कुत्ते गिद्धों से लड़ रहे थे और गिद्ध कुत्तों से.
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