6 सिंतंबर को एक लड़का पैदा हुआ. मां भगवती देवी ने नवजात को गले से लगाया तो मानों चमत्कार हो गया. भगवती देवी ठीक हो गई थीं. लड़के का नाम ईश्वरचंद्र रखा गया. वही ईश्वरचंद्र जिन्होंने आगे चलकर न जाने कितनी महिलाओं को नरकीय जीवन से बाहर निकाला. आज ईश्वरचंद्र विद्यासागर की बरसी है.
# कौन थे विद्यासागर?
ईश्वरचंद्र विद्यासागर का असली नाम ईश्वरचंद्र बंदोपाध्याय था. जिस समय महिलाओं का घर से बाहर निकलना भी 'पाप' माना जाता था. उस समय उन्होंने महिलाओं को पढ़ाई लिखाई के लिए लड़ाई लड़ी. उन्हें चहारदीवारी से बाहर निकाला और उनके अधिकारों के लिए आंदोलन किया. विद्यासागर ने विधवा महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए संघर्ष किया. विधवा पुनर्विवाह एक्ट पास कराया और अपने बेटे की शादी भी एक विधवा महिला से कराई. ईश्वरचंद्र संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे. वे कलकत्ता के संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल रहे. 1872 में उन्होंने मेट्रोपॉलिटन इंस्टीट्यूट की स्थापना की. यह पहला प्राइवेट कॉलेज था. जिसमें भारतीय पढ़ाते थे, भारतीय ही चलाते थे और भारतीय ही फाइनेंस करते थे. 29 जुलाई, 1891 में विद्यासागर का निधन हो गया. 1917 में मेट्रोपॉलिटन कॉलेज का नाम विद्यासागर कॉलेज कर दिया गया.
विद्यासागर कॉलेज के 125 साल पूरे होने पर 1998 में जारी डाक टिकट.
जब से पढ़ना सीखा. कहानियां पढ़ने में खूब मन लगता. स्कूली किताबों में भी जिनमें कहानी होती वो सबसे पहले पढ़ता. ऐसी ही एक किताब थी. भारत के महान व्यक्तित्व. नैतिक शिक्षा में इसे पढ़ाया जाता. इसी किताब में एक कहानी थी. मील का पत्थर. जहां पहली बार ईश्वर चंद्र विद्यासागर से परिचय हुआ. नाम थोड़ा अजीब लगा, लेकिन दिमाग में बैठ गया. कुछ महीनों पहले जब विद्यासागर कॉलेज में भारत के इस महान व्यक्तित्व की मूर्ति पर हमला किया गया और तोड़ा गया. तो विद्यासागर का नाम एक बार फिर गूंजने लगा. तो पढ़िए विद्यासागर के जीवन के 5 किस्से. जो उनकी सादगी, मेधा और उनके संघर्ष को प्रदर्शित करते हैं.
1. मील का पत्थर-
ईश्वरचंद्र के पिता ठाकुरदास कलकत्ता में नौकरी करते थे. वे ईश्वरचंद्र को अच्छी शिक्षा के लिए अपने साथ ले जाना चाहते थे. ठाकुरदास और ईश्वरचंद्र के साथ एक शिक्षक और नौकर भी थे. उन दिनों लोग पैदल यात्रा करते थे. रात होने पर किसी गांव में रुक जाते. गांव-देहात से निकल कर काफिला मुख्य सड़क पर पहुंचा. सड़क किनारे एक पत्थर था. ईश्वरचंद्र ने पूछा, ये पत्थर क्या है?पिता ने बताया कि ये मील का पत्थर है. कुछ दूर चलने के बाद दूसरा पत्थर आ गया. फिर ईश्वरचंद्र ने पूछा. इस बार पिता ने बताया कि पत्थर तो वही है. लेकिन उस पर लिखा अंक दूसरा है. साथ ही ये भी बताया कि कलकत्ता तक ये पत्थर मिलते रहेंगे. लेकिन इन पर लिखे अंक घटते रहेंगे. बालक ईश्वरचंद्र का कौतुहल शांत नहीं हुआ था. उसने पूछा, इस पर लिखे अंक कैसे हैं? पिता ने बताया, ये अंग्रेजी में लिखे अंक हैं. यहां उन्नीस लिखा है. एक और नौ.
इसके बाद ईश्वरचंद्र ने चुप्पी साध ली. काफी देर तक कुछ नहीं बोले. पिता को कुछ संशय हुआ. उन्होंने पूछा, इतने चुप क्यों हो, कुछ चाहिए तो नहीं?
ईश्वरचंद्र ने जवाब दिया. नहीं, मैं तो अंग्रेजी के अंक सीख रहा हूं.
पिता ने पूछा, अच्छा तो बताओ हम कलकत्ता से कितनी दूर हैं. ईश्वरचंद्र ने बताया. सामने पत्थर पर 10 लिखा है. हम अब तक 9 मील की यात्रा कर चुके हैं. सारे लोग चकित थे. और पिता अपने बच्चे की मेधा पर खुश. एक कहावत है.
होनहार बिरवान के होत चिकने पात. ईश्वरचंद्र इसी को सच साबित कर रहे थे. ईश्वरचंद्र को आगे चलकर विद्यासागर की उपाधि मिली. ये इसलिए कि लोग उन्हें विद्या का सागर मानते थे.
2. अटैची वाला युवक-
ईश्वरचंद्र दूसरे शहर में व्याख्यान देने गए थे. स्टेशन पर उतरे तो देखा, एक युवक अटैची लिए खड़ा है. काफी समय तक कुली को आवाज लगाने के बाद भी कोई कुली नहीं आया. ईश्वरचंद्र ने अटैची उठा ली. युवक ने सोचा कुली है. आगे-आगे चलने लगा. गंतव्य पर पंहुचा तो ईश्वरचंद्र को पैसे देने लगा. लेकिन उन्होंने मना कर दिया. अगले दिन ईश्वरचंद्र का भाषण था. काफी भीड़ आई थी. अटैची वाला युवक भी आया था. ईश्वरचंद्र को देखा तो शर्म से लाल हो गया. सभा के बाद उनके पास गया. माफी मांगी. ईश्वरचंद्र ने कहा, तुम देश के भविष्य हो. अगर अटैची का बोझ अपने कंधों पर नहीं उठा सकते तो देश की भावी जिम्मेदारियों को कैसे उठाओगे?युवक ने अपनी गलती मानी. और आगे से ध्यान रखने का संकल्प लिया.
3. नवाब का जूता-
ईश्वरचंद्र कॉलेज की स्थापना के लिए चंदा जुटा रहे थे. इसके लिए वे देश भर में घूम रहे थे. चंदे के लिए अयोध्या के नवाब के पास पहुंचे. नवाब ने ईश्वरचंद्र का उपहास किया. उनके थैले में अपना जूता डाल दिया. नवाब की उद्दंडता पर ईश्वरचंद्र चाहते तो कड़ा प्रतिकार कर सकते थे. लेकिन उन्होंने कुछ नहीं कहा. कोई प्रतिक्रिया नहीं दी. अगले दिन नवाब के महल के सामने ही जूते की नीलामी करने लगे. काफी भीड़ जुटी. जूता 1000 रुपए में नीलाम हुआ. ये खबर नवाब तक पहुंची तो उसने इतनी ही रकम ईश्वरचंद्र को दान में दी.4. जैसे को तैसा-
ईश्वरचंद्र संस्कृत कॉलेज के प्रिंसिपल थे. एक बार वे किसी अंग्रेज अफसर से मिलने उसके ऑफिस गए. वो अफसर मेज पर पैर रखकर बैठा था. ईश्वरचंद्र सामने बैठे थे. उस अफसर के जूते विद्यासागर की ही तरफ थे. उन्होंने बातचीत की और फिर लौट आए. संयोग से उस अंग्रेज को विद्यासागर से कोई जरूरत पड़ी. वह कॉलेज में उनसे मिलने आया. अब विद्यासागर का पैर मेज पर था और सामने अफसर बैठा था. अंग्रेज ने अपनी बेइज्जती महसूस की. नाराज होकर चला गया. और सीनियर अधिकारी से इसकी शिकायत की. विद्यासागर से जब इसके बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, मैं जब इनसे मिलने गया था तो ये भी ऐसे ही बैठे थे. मुझे लगा यह अंग्रेजों के अभिवादन का तरीका है. इसलिए मैंने भी इसी तरह से इनका अभिवादन करना चाहा.
विद्यासागर कॉलेज: ईश्वरचंद्र के अथक प्रयासों का जीवंत स्मारक.
5. विधवा विवाह-
विद्यासागर के एक शिक्षक थे. शंभूचंद्र वाचस्पति. उनकी पत्नी का निधन हो गया था. उनके मित्रों ने उन्हें फिर से विवाह करने की सलाह दी. वाचस्पति विद्यासागर को अपने पुत्र तुल्य मानते थे. उन्होंने विद्यासागर से सलाह ली. विद्यासागर ने स्पष्ट मना कर दिया. कहा इस आयु में विवाह करने का मतलब है किसी लड़की का जीवन बर्बाद करना. उन्होंने वाचस्पति को काफी समझाया. लेकिन वाचस्पति ने एक गरीब लड़की से शादी कर ली. विद्यासागर को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने वाचस्पति को अंतिम प्रणाम कर लिया. कहा, मैं आपके यहां अब कभी नहीं आउंगा. कुछ समय बाद वृद्ध वाचस्पति का निधन हो गया. उस लड़की के सामने पूरा जीवन पड़ा था. जो उस समय की मान्यताओं के मुताबिक नरकीय था. विद्यासागर पर इस घटना का गहरा प्रभाव पड़ा.उन्होंने विधवा विवाह के लिए जंग छेड़ दी. उन्हें पता था कि समाज उनके खिलाफ खड़ा हो जाएगा. लेकिन उन्होंने इसका भी समाधान ढूंढ लिया. जाने कितने दिन उन्होंने संस्कृत कॉलेज में ही बिता दिए. ईश्वरचंद्र शास्त्रों में विधवा विवाह के समर्थन में कुछ ढूंढ रहे थे. अथक परिश्रम के बाद अंतत: पराशर संहिता में वह तर्क मिला जो कहता था कि 'विधवा विवाह धर्मसम्मत है.'
इसी तर्क को आधार बनाकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने हिंदू विधवा पुनर्विवाह एक्ट की की लड़ाई शुरु की. 19 जुलाई 1856 को यह एक्ट पास हुआ. और चार महीने बाद 7 दिसंबर 1856 को कानून पहला विधवा विवाह हुआ. इस शादी को देखने इतनी भीड़ उमड़ी कि पुलिस बुलानी पड़ी. शादी थी कालीमती की. कालीमती 10 साल की उम्र में ही विधवा हो गई थी. ईश्वरचंद्र ने अपने मित्र श्रीचंद्र विद्यारत्ना से कालीमती की शादी कराई. बहुत सारे लोगों ने इस विवाह का विरोध किया. लेकिन दूसरी तरफ ऐसे लोग भी थे, जो ईश्वरचंद्र के साथ मजबूती से खड़े रहे. विद्यासागर को रुढ़िवादियों के कड़े विरोध का सामना करना पड़ा. लेकिन कुछ ऐसे भी थे जो उन्हें अपना मसीहा मानते थे. उनके साथ कदम से कदम मिलाकर खड़े रहते थे. ऐस ही कुछ साड़ी बुनकरों ने उनके प्रति अपना सम्मान व्यक्त करने के लिए साड़ियों पर बंगाली में कविता बुनना शुरु कर दिया.
बेचे थाको विद्यासागर चिरजीबी होए (जीते रहो विद्यासागर, चिरंजीवी हो)
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