शुरुआत इन शब्दों से,
“सिद्धांतों के लिए लड़े गए युद्ध सबसे विनाशकारी होते हैं क्योंकि सिद्धांत के साथ कभी समझौता नहीं हो सकता. इसके बनिस्बत लालच के लिए किया गया युद्ध कम हानिकारक होता है क्योंकि व्यक्ति तब ये ध्यान रखेगा कि जिस चीज़ को पाने के लालच में वो युद्ध कर रहा है, वो कहीं नष्ट ना हो जाए. तर्कसंगत व्यक्ति हमेशा समझौता कर सकते हैं लेकिन किसी ऐब्स्ट्रैक्ट आइडिया को पूजने वाला एक कट्टरपंथी सब कुछ नष्ट करने के लिए तैयार रहता है.”इंग्लिश राइटर एंड स्पीकर ‘ऐलन वॉट्स’ का ये कथन एक ऑक्सीमोरोन है. वस्तुतः ये माना जाता है कि सिद्धांतों पर अडिग रहना इंसान का गुण है. और लालच एक अवगुण. लेकिन तब क्या हो जब यही सिद्धांत एक सनकी, क्रूर तानाशाह के पागलपन से उपजा हो?
तब उपजता है नाज़ीवाद और फ़ासीवाद. और इसी नाज़ीवाद ने 1930 के दशक के अंत में एक भयानक युद्ध को जन्म दिया. जर्मनी में नाज़ीवाद का उदय हुआ यूं कि 1937 तक हिटलर जर्मनी पर अपना वर्चस्व जमा चुका था. नाज़ी सलाम करती हुई भीड़ के सामने फ़्यूरर ने ऐलान किया, ‘यहूदी हमारे सबसे बड़े दुश्मन हैं’. और जर्मनी ने यहूदियों को कॉन्सेंट्रेशन कैम्प में भेजना शुरू कर दिया. मकसद था, एक मास्टर रेस का वर्चस्व स्थापित करना. एक थर्ड राइक. जो हज़ार साल तक क़ायम रहने वाला था.

हिटलर और मुसोलिनी की मुलाक़ात (तस्वीर: Wikimedia commons)
नाज़ी साम्राज्य को फैलाने के लिए हिटलर ने सबसे पहले चेकोस्लोवाकिया और ऑस्ट्रिया पर क़ब्ज़ा किया. प्रथम विश्व युद्ध के बाद हुई वर्साय संधि में ये दोनों जर्मनी के अधिकार से बाहर हो गए थे. यूरोप की दूसरी बड़ी ताक़तें फ़्रांस और ब्रिटेन चुप रहे. उन्हें लगा हिटलर केवल पुराने जर्मनी को स्थापित करना चाहता है. लेकिन इतने से हिटलर कहां चुप बैठने वाला था.
आज ही के दिन यानी 1 सितम्बर 1939 को हिटलर ने पोलैंड पर आक्रमण किया और दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत हो गई. इसके तीन दिन बाद ब्रिटेन और फ़्रांस ने भी युद्ध का ऐलान कर दिया.
1941 तक ऐक्सिस पावर्स युद्ध जीत रहे थे. जर्मनी का वेस्टर्न यूरोप पर लगभग क़ब्ज़ा हो चुका था. जर्मन एयरफ़ोर्स लुफ़्टवाफ़ा के जहाज़ दिन-रात लंदन पर बम गिरा रहे थे. अमेरिका ब्रिटेन को टेक्नॉलाजी और आर्थिक मदद दे रहा था. लेकिन चर्चिल की लाख कोशिशों के बावजूद अमेरिका अभी तक युद्ध के मैदान पर नहीं उतरा था. जर्मन सेना अपनी उच्च तकनीक वाले विमानों और ब्लिट्जक्रीग युद्ध शैली के लिए जानी जाती थी. ब्रिटेन किसी तरह खुद को बचाए रखने की कोशिश में था. अमेरिका की आर्थिक मदद के बावजूद उसके साधन कम पड़ रहे थे. दिसम्बर 1941 में जापान ने पर्ल हार्बर पर हमला किया और मजबूरन अमेरिका को युद्ध में उतरना पड़ा. ऐक्सिस पावर्स vs मित्र राष्ट्र इसके बाद दुनिया दो गुटों में बंट गई. एक तरफ़ थे ब्रिटेन, फ़्रांस, सोवियत संघ और अमेरिका. जिन्हें मित्र-राष्ट्र कहा गया. दूसरी तरफ़ से जापान, इटली और जर्मनी. इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने कहा, दुनिया अब रोम और बर्लिन की ऐक्सिस (धुरी) पर घूमेगी. इसलिए इन देशों का एलायन्स कहलाया, ऐक्सिस पावर्स.
अमेरिका के एंटर करने से मित्र राष्ट्रों की स्थिति थोड़ी मज़बूत हुई. नॉर्थ अफ़्रीका में उन्होंने ऐक्सिस सेना को पीछे खदेड़ दिया. इसके बावजूद यूरोप में स्थिति जस की तस बनी हुई थी. मित्र राष्ट्र किसी तरह पश्चिम यूरोप में घुसना चाह रहे थे. फ़्रांस में दाखिल होना सम्भव नहीं था. हिटलर किसी भी हालत में पेरिस को अपने हाथ से निकलने देना नहीं चाहता था. इसलिए जर्मनी ने वहां एक ज़बरदस्त सुरक्षा कवच बना रखा था. इसके अलावा एक बड़ी सेना लेकर इंग्लिश चैनल को पार करने की चुनौती भी थी.
दूसरी तरफ़ स्टालिन की रेड आर्मी जर्मन सेना के हाथों बुरी तरह पिट रही थी. स्टालिन ने चर्चिल और अमेरिकी राष्ट्रपति रूज़वेल्ट से कहा कि वो यूरोप में नया फ़्रंट खोलें ताकि उसकी रेड आर्मी पर प्रेशर कुछ कम हो सके.

6 जून 1944 को डी-डे के दिन ओमहा बीच पर उतरते हुए अमेरिकन 16th इन्फ़ंट्री के सैनिक (तस्वीर: NAID)
प्रथम विश्व युद्ध का सबसे बड़ा दिन माना जाता है 6 जून 1944. इसे डी-डे के नाम से जाना जाता है. जब मित्र राष्ट्रों की सेना फ़्रांस में घुसने के लिए नॉरमेंडी के तटों पर उतरी. लेकिन इससे पहले भी एक दिन आया था. जब मित्र राष्ट्रों ने पहली बार ऐक्सिस पावर्स के खेमे में सेंध लगाई थी. ये थी 3 सितम्बर 1943 की तारीख़. इसी दिन मित्र राष्ट्रों की सेना ने इटली के मेनलैंड में एंटर किया. सिसली का द्वीप पहले ही कब्जे में आ चुका था. इस मिशन में ब्रिटिश 8th आर्मी को लीड कर रहे थे फ़ील्ड मार्शल बर्नार्ड मांटगमरी. इन्वेज़न की रात अपने टेंट में एक सैनिक अपने घर एक पत्र लिख रहा था,
‘इस युद्ध के इतिहास में शायद ये सबसे बड़ी रात हो. मुझे यक़ीन है जब तक तुम्हें ये पत्र मिलेगा, तुम समझ जाओगी मैं कहां हूं. मैं तुमसे शर्त लगा सकता हूं कि तुम यहां एक पल भी ना रह सकोगी. हे ईश्वर! ये बहुत ही भयानक है. फिर भी मैं अपना किट बैग लेकर बैठा हूं. और तुम्हें ये पत्र लिख रहा हूं. पता नहीं, शायद मुझे ये मौक़ा दुबारा मिले भी या नहीं’इस पत्र को लिखने वाला सैनिक दुनिया की सबसे बड़ी वालंटियर सेना का हिस्सा था. जो हांग-कांग से लेकर नॉर्थ अफ़्रीका और पश्चिमी यूरोप में युद्ध कर रहे थे. वो ब्रिटिश नहीं थे. ना ही अमेरिकी. उनका इस युद्ध से बस इतना लेना-देना था कि उनका देश अंग्रेजों का ग़ुलाम था. 25 लाख की इस वालंटियर सेना में सबसे बड़ा हिस्सा था भारतीयों का.
1943 में इटली को आज़ाद कराने के इस अभियान में साढ़े पांच हज़ार से ज़्यादा भारतीय सैनिकों ने अपनी जान दी थी. इनके शरीर आज भी इटली के 6 प्रमुख शहरों के 40 कब्रिस्तानों में दफ़्न हैं. इस अभियान में शामिल 20 लोगों को ब्रिटिश सरकार का सबसे उच्च सम्मान विक्टोरिया क्रॉस दिया गया. इनमें से 6 भारतीय थे. इतालवी समाज में आज भी इन भारतीय सैनिकों की वीर गाथाएं सुनाई जाती हैं. भारत के शहीदों का उल्लेख यूके स्थित ‘कॉमनवेल्थ वॉर ग्रेव कमीशन’ बुकलेट में भी किया गया है. ये सैनिक अपने देश से हज़ारों मील दूर किसी दूसरे देश को आज़ाद कराने में मदद कर रहे थे. जबकि उनका अपना देश ग़ुलामी का दंश झेल रहा था. ये सैनिक यहां कैसे पहुंचे?
इसके लिए हमें युद्ध की शुरुआत में जाना होगा. द्वितीय विश्व युद्ध में भारत की एंट्री 3 सितंबर 1939 को जब ब्रिटेन ने युद्ध की घोषणा की. भारत का इससे कुछ लेना देना नहीं था. लेकिन वायसरॉय लॉर्ड लिनलिथगो ने कहा कि भारत इसमें बराबर का साझेदार है. भारत के नेताओं जिनमें नेहरू और गांधी शामिल थे, ने इस घोषणा का विरोध किया. प्रथम विश्व युद्ध में लाखों भारतीयों की शहादत के बावजूद भारत को सिर्फ़ धोखा मिला था. कांग्रेस के नेताओं ने कहा कि पहले चर्चिल ये बताएं कि युद्ध के बाद भारत का क्या होगा.
कांग्रेस नहीं चाहती थी कि भारतीय इस युद्ध में हिस्सा लें. लेकिन सवाल रोटी का था. भारत में अनाज की कमी थी. अंग्रेज यहां का सारा राशन यूरोप में युद्ध के मोर्चों पर भेज रहे थे. जिसके नतीजे में भारत में भयंकर अकाल पड़ा और बंगाल में 1943 में 30 लाख लोग भुखमरी से मारे गए.
सेना में भी भारतीयों को दोयम दर्जे का ओहदा मिलता था. उनके लिए ऑफ़िसर बनना और रैंक में ऊपर जाना मुश्किल था. उनके साथ रंगभेद किया जाता था और गोरों से उनकी तनख़्वाह बहुत कम हुआ करती थी. सवाल पापी पेट का था. और सेना में कम से कम भर पेट खाना मिल जाया करता था.
1939 तक ब्रिटिश इंडियन सेना में 2 लाख भारतीय थे. 1945 तक ये संख्या बढ़कर 25 लाख हो गई. किसी दूसरे देश की ओर से इतने विदेशी सैनिक पहले कभी नहीं लड़े थे. 24 हजार से भी ज्यादा भारतीय सैनिक दूसरे विश्व युद्ध में मारे गए. इससे तीन गुना संख्या उनकी थी जो युद्ध में घायल हुए या लापता हो गए. ना जाने कितने सैनिकों को मरने के बाद भी अपनी धरती नसीब नहीं हुई. इसके बावजूद उनके पराक्रम का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस युद्ध में भारतीय सैनिकों को 4000 गैलेंट्री अवार्ड्स से नवाज़ा गया. जिसमें 31 विक्टोरिया क्रॉस भी शामिल थे.

1943 में तेहरान कॉन्फ़्रेन्स के दौरान मित्र राष्ट्रों की मुलाक़ात, (बाएं से दाएं ) जोसेफ स्टालिन, फ्रैंकलिन रूज़वेल्ट और विंस्टन चर्चिल. (तस्वीर: US सिग्नल कोर)
भारत अग्रेजों के अधीन था. इसलिए भारतीयों के अंग्रेजों की तरफ़ से लड़ने की बात समझ आती है. लेकिन नीचता की हद ये थी कि भारतीय सैनिकों के खाने-पीने, अस्त्र-शस्त्र और लड़ने का सारा ख़र्च भी भारतीयों से ही वसूला गया. इसके लिए ‘वॉर फंड’ के नाम पर भारतीयों पर विशेष टैक्स लगाया गया.
युद्ध में ब्रिटेन ने भारत से जो क़र्ज़ लिया था, आज के हिसाब से ये राशि क़रीब-क़रीब 10 लाख करोड़ रुपए के बराबर होती है. लेकिन प्रथम विश्व युद्ध की तरह इस बार भी, न तो भारत ने इसे कभी वापस मांगा, न ही ब्रिटेन ने कभी इसकी कोई चर्चा की. बर्मा युद्ध के दौरान द्वितीय विश्व युद्ध के ऊपर जितना लिखा गया है, शायद ही किसी और चीज़ पर. सब कुछ दस्तावेज़ों में दर्ज है. हर साल इस युद्ध की बरसी मनाई जाती है. युद्ध में शहीद हुए सैनिकों को श्रद्धांजलि दी जाती है. पर्ल हार्बर से लेकर हिरोशिमा पर गिराए गए परमाणु बम तक. हर घटना पर हज़ारों फ़िल्में बन चुकी हैं. लेकिन दावे से कहा जा सकता है कि इनमें से किसी में भी आपको एक भी भारतीय नहीं दिखाई देगा. कभी-कभार कोई ब्रिटिश प्रधानमंत्री भारतीय सैनिकों के योगदान का उल्लेख कर देता है जैसा कि पिछले साल बोरिस जॉनसन ने किया था. लेकिन इस युद्ध की महागाथा में भारत के योगदान को लगभग भुला ही दिया गया है. जबकि ये तथ्य है कि भारत की मदद के बिना मित्र-राष्ट्र ये युद्ध कभी नहीं जीत पाते. इटली और ख़ासकर बर्मा में, जहां भारतीय सैनिकों आज़ाद हिंद फ़ौज के भारतीय सैनिकों से ही लड़ रहे थे.
ये दूसरे विश्व युद्ध में भारत के पार्टिसिपेशन का दूसरा भाग था.

एंटी टैंक राइफ़ल और पेट्रोल बमों के साथ नॉर्थ अफ़्रीका में भारतीय सैनिक (तस्वीर: इम्पीरियल वॉर म्यूज़ियम, ब्रिटेन)
हुआ ये कि द्वितीय विश्व युद्ध की शुरुआत में सुभाष चंद्र बोस ने भारत को आज़ाद करने के लिए जर्मनी से मदद मांगी. हिटलर को भारत में कुछ ख़ास इंट्रेस्ट नहीं था. इसके बावजूद बोस को युद्ध बंदियों से मिलने की इजाज़त मिल गई. इनमें से कई भारतीय थे. बोस ने इन्हें आज़ाद हिंद फ़ौज में भर्ती किया और जापानी सेना के साथ मिलकर भारत को अंग्रेजों से आज़ाद करने की ठानी. एपिलॉग इस एक चैप्टर से भारत में द्वितीय विश्व युद्ध के प्रति असमंजस की स्थिति पैदा हो जाती है.
मुद्दा ये है कि विश्व युद्ध को केवल दो ख़ेमों के बीच लड़ाई के तौर पर नहीं देखा जाता. यहूदी नरसंहार और चीन में हुई बर्बरताओं के ऐक्सिस पावर्स को ‘वर्स्ट ईविल एवर टू वॉक ऑन अर्थ’ की संज्ञा दे दी गई. जिसका दाग वो आज तक नहीं धो पाए हैं.
सुभाष भारत की आज़ादी के मकसद से लड़ रहे थे. परंतु उनका गठबंधन एक्सिस पावर्स के साथ था. इसलिए द्वितीय विश्व युद्ध की भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के साथ ऐसी खिचड़ी बन गई कि इस युद्ध में भारत के योगदान को इतिहास के डस्टबिन में डाल दिया गया है. भारत में इस पर कम ही चर्चा होती है. आगे हुए सभी युद्धों में हम भारत के तमाम वीरों को श्रद्धा से याद करते हैं.
लेकिन हमें ये समझने और स्वीकार करने की ज़रूरत है कि विश्व युद्ध में लड़ने वाले भी भारतीय ही थे. चाहे वो आज़ाद हिंद फ़ौज के लिए लड़े हों या नाज़ी ताक़तों के ख़िलाफ़. इतिहास सिर्फ़ स्याह और सुर्ख़ स्याही से नहीं लिखा जाता. कलम का रंग कभी-कभी ग्रे भी होता है. ऐक्सिस पावर्स अगर जीत जाते तो भारत शायद दो साल पहले आज़ाद हो ज़ाता. लेकिन इसके समर्थन में तर्क देने से पहले आपको उन 60 लाख यहूदियों का सामना करना होगा, जिन्हें गैस चेम्बर में धकेल दिया गया.
द्वितीय विश्व युद्ध नाज़ीवाद और फ़ासीवाद के ख़िलाफ़ एक निर्णायक युद्ध था. जिसमें भारतीयों का योगदान भुलाया नहीं जा सकता. चाहे भारत में फुटपाथ पर ‘Mein Kampf’ अभी भी रिकॉर्ड स्तर पर बिकती हो.