The 80th Session of the Indian History Congress was...
Posted by Ali Nadeem Rezavi
on Saturday, 28 December 2019
ASHA का ये भी आरोप है कि प्रोग्राम के दौरान JNU, AMU और DU के कई रिसर्चर्स को पुलिस ने डिटेन किया. बाद में पूछताछ के बाद उन्हें रिहा कर दिया गया.
IHC ने क्या कहा? 'इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस' का भी बयान आया है इस मामले पर. उनका कहना है कि राज्यपाल को अपने उद्घाटन भाषण में निष्पक्ष होना चाहिए था. मगर उन्होंने पक्ष लेकर प्रोटोकॉल तोड़ा. उनके मुताबिक, मंच पर मौजूद लोगों ने बस उनके इसी पूर्वाग्रही रवैये पर आपत्ति जताई. IHC के मुताबिक, इरफ़ान हबीब का राज्यपाल के भाषण पर आपत्ति जताना प्रोटोकॉल का उल्लंघन नहीं था.
कौन सही, क्या सही? गवर्नर का कहना है कि उन्होंने ख़ुद से CAA का ज़िक्र नहीं छेड़ा. चूंकि उनसे पहले बोलने वालों ने ये मसला उठाया, सो इसपर बोला जाना ज़रूरी था. किसने किसको धक्का दिया, पहले किसने धक्का दिया, ये भी साफ़ नहीं हो पाया है. राज्यपाल ने अपने आरोप के समर्थन में जो तस्वीर शेयर की ट्विटर पर, उसमें भी एक शख्स इरफ़ान का हाथ पकड़े दिखते हैं. कुल मिलाकर चीजें बहुत स्पष्ट नहीं हैं.
राज्यपाल भाषण दे लेते, तो क्या हो जाता? अब कुछ गंभीर सवाल बचते हैं. क्या इरफ़ान हबीब ने राज्यपाल को टोककर, उन्हें रोकने की कोशिश करके ग़लती की? हां, उन्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था. राज्यपाल को किसी ने भी आमंत्रण दिया हो, वो मुख्य अतिथि बनकर आए. भाषण देने की बारी थी उनकी. उन्हें बोलने देना चाहिए था. उनकी बातों से अहसमति भी हो, तब भी. जब तक कि वो हिंसा की अपील न करते. गाली न देने लगते. उन्हें उनके विवेक से बोलने देना चाहिए. फिर जब भाषण ख़त्म हो जाता, तो उसी मंच से असहमतियां भी रखी जा सकती थीं.
राज्यपाल विवेक दिखाते, तो बेहतर होता और क्या राज्यपाल को वो गंदगी वाली बात कहनी चाहिए थी? क्या विरोध के बावजूद उन्हें ऐसी टिप्पणी करनी चाहिए थी? नहीं. उन्हें अपने पद का विवेक दिखाना चाहिए था. 70-72 साल पुरानी एक बात को ऐसे संदर्भ में उठाना कि सामने बैठे लोगों को ग़लत महसूस हो, ये तरीका नहीं होना चाहिए था. राज्यपाल ने मीडिया से बात करते हुए कहा कि विरोध और असहमति ज़रूरी हैं. बातचीत से हल निकाला जाना चाहिए. गवर्नर ने सही बात कही है. IHC हॉल के अंदर राज्यपाल शायद अपनी विचारधारा में अल्पसंख्यक रहे हों. जिस दिन वो बहुसंख्यक जमात का हिस्सा हों, उस दिन भी उन्हें बातचीत और डायलॉग की अहमियत याद रहनी चाहिए. अकेले उनको नहीं, सबको ही याद रहनी चाहिए.

राज्यपाल को फैस वैल्यू पर नहीं लिया जा सकता एक और ज़रूरी बात है. हमेशा बात होती है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों, संवैधानिक संस्थाओं को कम-से-कम पक्षपात मुक्त तो दिखना ही चाहिए. ऐसा न लगे कि वो अपना अजेंडा चला रहे हैं. या किसी पॉलिटिकल पार्टी की लाइन को आगे बढ़ा रहे हैं. मगर ऐसा होता नहीं है. भारत में जिन पदों का सबसे ज़्यादा राजनैतिकरण हुआ, उनमें राज्यपाल की जगह भी शामिल है. हमारे पास मेघालय के राज्यपाल तथागत रॉय का भी उदाहरण है. जिन्होंने अपने ट्विटर हैंडल पर अपनी पहचान बताते हुए 'राइट विंग हिंदू सोशियो पॉलिटिकल थिंकर' लिखा हुआ है. वो कई बार बहुत सांप्रदायिक बातें लिख जाते हैं. उनका पक्षपात, उनका बायस छुपा नहीं रह जाता.
इस तरह की और भी कई मिसालें हैं. जिनकी वजह से राज्यपाल के पद की गरिमा छोटी होती है. वो अजेंडा लगने लगते हैं. ऐसे में उनकी कही बातें फेस वैल्यू पर नहीं ली जा सकती हैं. दूध और पानी करना ही पड़ेगा. CAA पर केंद्र सरकार हर मुमकिन रास्ते से अपना बचाव कर रही है. हर मुमकिन प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर इसे सही ठहराने की कोशिश की जा रही है. IHC कार्यक्रम में इसका ज़िक्र नहीं होना चाहिए था. किसी और को भी नहीं करना चाहिए था. और, न ही राज्यपाल को करना चाहिए था. किसी को जवाब देने के लिए भी नहीं. अपना पॉइंट साबित करने के लिए भी नहीं. CAA को लेकर सरकार पर निशाना साधने या इसके बचाव में तर्क देने, दोनों में से किसी के लिए भी IHC सही मंच नहीं. अगर किसी और स्पीकर ने ये बात नहीं समझी, तब भी राज्यपाल को समझनी चाहिए थी. बल्कि उन्हें अपने भाषण के आख़िर में उस स्पीकर को उसकी ग़लती बता देनी चाहिए थी.
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