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हैदराबाद की चुनावी कामयाबी से तेलंगाना में BJP की सियासी जमीन कैसे मजबूत होगी?

क्या निकाय चुनाव की सफलता को अगामी विधानसभा चुनाव में दोहरा पाएगी बीजेपी?

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हैदराबाद नगर निकाय चुनाव में बढ़त से तेलंगाना में बीजेपी काे आगे बढ़ने में कैसे मदद मिलेगी, जान लीजिए.
एक जमाना था, जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को हिंदीभाषी भारत की पार्टी माना जाता था. 'हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान' जैसे उसके बोल भाजपा के दक्षिण भारत में पैर पसारने में बहुत बड़ी बाधा थे. लेकिन तेलंगाना की राजधानी हैदराबाद के नगर निकाय यानी 'ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल काॅर्पोरेशन (GHMC) के चुनाव नतीजों में बीजेपी ने भारी बढ़त हासिल करके अपने इरादे साफ कर दिए हैं. GHMC में मिली इस कामयाबी के क्या मायने हैं? बीजेपी को इनसे आने वाले समय में होने वाले विधानसभा और लोकसभा के चुनावों के मद्देनजर अपनी रणनीति बनाने में किस तरह मदद मिल सकती है? आइए जानते हैं.
पहले बात ताजा कामयाबी की
GHMC के 5 साल पहले के चुनावी नतीजों पर नजर डाली जाए, तो भाजपा को महज 4 सीटें ही मिली थीं. 150 सदस्यीय GHMC में मौजूदा मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति (TRS) ने 99 और असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM को 44 सीटें जीती थीं.
इस बार के चुनाव में भाजपा ने अपनी ताकत में बेतहाशा इजाफा किया है. अपनी सीटों की संख्या 4 से बढ़ाकर 49 तक पहुंचा दी है. TRS सबसे बड़ी पार्टी जरूर बनी है, लेकिन बहुमत के आंकड़े 76 से पीछे 56 पर ही अटक गई है. अब उसे AIMIM या भाजपा के साथ गठबंधन करके म्युनिसिपल काॅर्पोरेशन चलाना होगा. AIMIM जहां पिछली बार थी, लगभग उसी आंकड़े के आसपास (43) इस बार भी है.
बीजेपी निकाय के इस चुनाव को कितनी तवज्जो दे रही थी, इसका अंदाजा इसी के लगाया जा सकता है कि उसने यहां पूरी ताकत झोंक दी थी. अपने फायरब्रांड नेताओं को चुनावी मैदान में उतार दिया था. गृह मंत्री अमित शाह, यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा भी हैदराबाद में कैंपेन करने गए थे. इतना ही नहीं, बिहार चुनाव में पार्टी की जीत में बड़ा योगदान देने वाले बिहार भाजपा के प्रभारी भूपेन्द्र यादव को भी GHMC चुनाव में पार्टी का प्रभारी बनाकर हैदराबाद भेज दिया गया था.
हैदराबाद नगर निकाय चुनाव में भाजपा को अच्छी सफलता मिली है.
हैदराबाद नगर निकाय चुनाव में भाजपा को अच्छी सफलता मिली है.

तेलंगाना में बढ़ रही बीजेपी की जमीन 
भाजपा की तेलंगाना में यह कोई पहली चुनावी सफलता नही है. पिछले महीने ही बीजेपी ने यहां की दुब्बाई विधानसभा सीट का उपचुनाव जीतकर सबको चौंका दिया था, और अपने विधायकों की संख्या बढ़ाकर 2 कर ली थी. यह जीत इसलिए भी खास थी क्योंकि दुब्बाई की सीट मुख्यमंत्री केसीआर (KCR) की गजवेल सीट, उनके बेटे केटीआर की सिरसिल्ला सीट और भतीजे हरीश राव की सिद्धीपेट सीट के एकदम बगल में है. इस वजह से इस जीत का रणनीतिक महत्व है.
हम थोड़ा और पीछे चलें तो हमें तेलंगाना में भाजपा की बढ़ती ताकत का अंदाजा मिल जाएग. पहले बात दिसंबर 2018 के विधानसभा चुनाव की. इस चुनाव को मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने समय पूर्व विधानसभा भंग करके पाँच महीने पहले कराया था. इसका उन्हें फायदा भी मिला. उनकी पार्टी तेलंगाना राष्ट्र समिति यानी TRS की सीटें 63 से बढ़कर 88 हो गईं. भाजपा को ये फायदा हुआ कि उसका खाता खुल गया. लेकिन सबसे बड़ा फायदा वोट पर्सेंटेज का रहा. भाजपा को सीट भले ही एक मिली, लेकिन पार्टी 7.1 प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब रही थी.
इसके 5 महीने बाद जब लोकसभा चुनाव हुए, तब भारतीय जनता पार्टी ने राज्य की 17 में से 4 सीटें हासिल कर ली थीं. वोट प्रतिशत भी बढ़कर 19.45 तक पहुँच गया था. भाजपा को सबसे बड़ी सफलता निजामाबाद लोकसभा सीट पर मिली थी, जहां उसके उम्मीदवार अरविंद धर्मापुरी ने केसीआर की बेटी और TRS कैंडिडेट कविता को हराया था.
हैदराबाद की इस जीत के BJP के लिए क्या मायने हैं?
GHMC के हालिया नतीजों और उनमें भाजपा के बढ़े दमखम पर हमने हैदराबाद के वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक टी.एस. सुधीर से बात की. उन्होंने 7 प्वाइंट में भाजपा की रणनीति और तेलंगाना में उसके राजनीतिक प्रभाव के बारे में बताया.
1. हैदराबाद शहर में राज्य की 20 प्रतिशत विधानसभा सीटें (119 में 24) आती हैं. वहां पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा को सिर्फ एक सीट मिली थी. अब चूंकि हैदराबाद राज्य की राजधानी भी है, और यहां अच्छा प्रदर्शन कर भाजपा ने राज्य का मुख्य विपक्षी चेहरा होने का अपना दावा पुख्ता कर लिया है. ये दावा इसलिए भी मजबूत दिख रहा है क्योंकि विधानसभा में मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस फिलहाल निष्क्रिय दिख रही है. 
2. मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव धार्मिक रूझान के व्यक्ति हैं. वे अक्सर यज्ञ-अनुष्ठान करते देखे जाते हैं. ऐसे में उनके खिलाफ हिंदुत्व का कार्ड सफल नही हो सकता. यही कारण है कि म्युनिसिपल चुनावों में भाजपा के तमाम बड़े नेताओं ने अपना फोकस नवाब-निजाम और निजामशाही पर रखा, ताकि असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी को सामने रखकर वोट बटोरे जा सकें.
के चंद्रशेखर राव को आने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा से कड़ी चुनौती मिलने के आसार हैं.
के चंद्रशेखर राव को आने वाले विधानसभा चुनाव में भाजपा से कड़ी चुनौती मिलने के आसार हैं.

3. असदुद्दीन ओवैसी इतने भी कमजोर नही हैं कि अन्य राज्यों में ओवैसी फैक्टर निष्प्रभावी हो जाए. तेलंगाना के बाहर ओवैसी फैक्टर कमजोर पड़ता है तो पश्चिम बंगाल समेत कई राज्यों में भाजपा की चुनावी संभावनाओं को पलीता लग सकता है. ओवैसी के हैदराबाद में कमजोर होने पर दूसरे राज्यों में, जहां वे कैंडीडेट खड़े करते रहे हैं, वोटर्स उनसे तीखे सवाल कर सकते हैं. पूछ सकते हैं कि जब आपके घर में ही आपकी सियासी जमीन सुरक्षित नहीं है, तो आप यहां कैसे वोट मांगेंगे?
जीएचएमसी में एमआईएम को अब भाजपा से कड़ी चुनौती मिलेगी.
GHMC में AIMIM को अब भाजपा से कड़ी चुनौती मिलेगी.

4. TRS चीफ के. चंद्रशेखर राव वेलम्मा समुदाय से आते हैं. तेलंगाना में ये धारणा बन रही है कि शासन-सत्ता में वेलम्मा समुदाय के लोगों का वर्चस्व स्थापित हो गया है. इसलिए 2023 के विधानसभा चुनाव में भाजपा इसे भुना सकती है. इससे पहले भाजपा 2015 के हरियाणा विधानसभा चुनाव में जाट वर्चस्व के मुद्दे को बखूबी भुना चुकी है.
5. तेलंगाना की सामाजिक बुनावट में 4 समुदायों को प्रभुत्वशाली माना जाता रहा है. रेड्डी, कम्मा, कापू और वेलम्मा. वेलम्मा TRS के साथ जुड़े हैं. रेड्डी समाज को कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता रहा है, लेकिन कांग्रेस के शिथिल पड़ने की स्थिति में रेड्डी भाजपा की तरफ रूख कर सकते हैं. ये ऐसा होगा, जैसे उत्तर भारत में मंडल-कमंडल प्रयोग के बाद ब्राह्मणों ने कांग्रेस छोड़कर भाजपा का रूख कर लिया था. भाजपा ने रेड्डी वोट बैंक को ध्यान में रखकर ही संभवत: सिकंदराबाद के सांसद जी. किशन रेड्डी को गृह मंत्री अमित शाह के साथ जूनियर मिनिस्टर (गृह राज्य मंत्री) बनाकर रखा है.
गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी तेलंगाना में भाजपा की रणनीति का अहम हिस्सा हैं.
गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी तेलंगाना में भाजपा की रणनीति का अहम हिस्सा हैं.

6. तेलंगाना में जातीय प्रतिद्वंदिता भी देखी जाती रही है. रेड्डी और कम्मा हमेशा से राजनीतिक प्रतिस्पर्धी रहे हैं. कापू और कम्मा भी एक-दूसरे के प्रतिद्वंदी रहे हैं. लेकिन भाजपा यहां रेड्डी और कापू को एकसाथ लाकर प्रभावशाली समीकरण बना सकती है. लेकिन इसके साथ कम्मा और क्रिश्चियन समुदाय के TRS के साथ चले जाने का भी खतरा है.
7. भाजपा को अब तक शहरों की पार्टी माना जाता रहा है. ऐसे में तेलंगाना के ग्रामीण इलाकों में उसे हैदराबाद की चुनावी सफलता को दोहरा पाना बड़ी चुनौती होगा. हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके कार्यकर्ता बाकी राज्यों में इस तरह की कई चुनौतियों को आसान करते आए हैं.
GHMC के नतीजों के बाद अब देखना यह है कि भाजपा इस सफलता को विधानसभा और लोकसभा चुनावों में दोहरा पाने में कामयाब होती है या नहीं. वैसे इन दोनों चुनावों में अभी तीन साल का वक्त बाकी है.

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