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जिनको लगता है कि छठ पूजा फालतू का कर्मकांड है, उनके लिए जवाब

चार दिनों तक चलने वाले छठ के त्योहार में मूर्ति पूजा नहीं होती है.

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फोटो - thelallantop
छठ पूजा के दौरान  Thelallantop.com पर दो आर्टिकल प्रकाशित हुए थे. इन दोनों ही आर्टिकल को लेकर सोशल मीडिया पर बहुत कुछ लिखा गया. उस वक्त लल्लनटॉप के संपादक ने कहा था कि यह मंच सभी की अभिव्यक्ति की बात करता है, सभी की बात सुनता है और उसे प्रकाशित करता है. आर्टिकल से आपत्ति रखने वालों से कहा गया था कि आप आर्टिकल के जरिए अपनी आपत्ति हमें  lallantopmail@gmail.com
 पर भेजिए. जेनएयू में भारतीय भाषा केंद्र के पूर्व छात्र और लल्लनटॉप के पाठक अंकित दूबे ने एक आर्टिकल पर आपत्ति
 जताते हुए छठ को लेकर एक आर्टिकल लिखा है, जिसे हम प्रकाशित कर रहे हैं. यह उनके निजी विचार हैं और ज़रूरी नहीं है कि लल्लनटॉप इससे इत्तेफाक रखता हो.
'पूरुब से छठी अइली जिनकर पाकल-पाकल केस करू ना बिसून बाबा बिदइया देखब दोसरो दुआर'
इसका मतलब है पूरब से आने वाली पके बालों वाली देवी. गोरखपुर से बंगाल के द्वार द्वारबंगा ( दरभंगा ) तक रहने वाले पुरबिया लोगों के पास उनके सबसे बड़े त्योहार, पूजा के केंद्र में रहने वाली छठ माता की कोई तस्वीर नहीं है. सिवाए इस लोकगीत के, जिसमें उनकी छवि के बारे में संकेत किया गया है.
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बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में छठ का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है.

छठ पूजा ऐसे समय में होती है, जब खेतों में धान की फसल हरियाली खोकर बुढ़ाने लगती है. परती-परात जैसी खाली पड़ी ऊंची ज़मीनें कास के सफ़ेद फूलों से भर जाती हैं. ऐसा लगता है जैसे जेठ की जवान ताप और किसी भावुक स्त्री की रुदन सी सावन की बरसात के बाद प्रकृति ने बुढ़ापा हासिल कर लिया हो. ऐसी अवस्था, जिसमें आदमी की सोच जोश और भावुकता से इतर सम्यक और संतुलित हो जाती है. जीवन भर के कर्मों का फल चखने की उमर. तो छठ माता अपने उजले बालों के साथ प्रकृति को पकने और फलित होने का आदेश देती हुई आती हैं, ताकि उन पर आश्रित लोग आनन्दित हो सकें.
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इकलौता ऐसा त्योहार है, जिसमें उगते सूर्य के साथ ही डूबते सूर्य को भी अर्घ्य दिया जाता है.

आज दुनिया इतनी आगे चली आई है. शनि कभी जो कि महज़ एक ग्रह थे, आज मन्दिरों में उनकी मूर्तियां बनने लगी हैं. उनको उकेरा जाने लगा है. लेकिन ऐसी सृजनात्मकता अब तक छठ माता के लिए नहीं आई है, जिसमें उनको सदेह बनाया जा सके. अंधे को आंख, कोढ़ी को काया और बांझ को संतति देने के गुणों वाली छठ माता तब से अब तक निर्गुण ब्रह्म ही हैं.
दीपावली के अगले दिन जब भारत त्योहार के बाद आने वाले ख़ालीपन में जाने लगता है, छुट्टियों के बाद लोग काम पर लौटने की तैयारी में होते हैं ऐसे में पूरब का माहौल कुछ अलग होता है. बाज़ार तमाम तरह की चीज़ों से भरने लगते हैं. मसलन सेब, केले, अदरक, सुथनी से सूप और गन्ना तक, जहां देखो, ये चीज़ें दिखती हैं. लोग परदेस से अपने घरों की ओर लौटने लगते हैं. उन चिड़ियों की तरह जो दिन भर कुछ दाने कमाने के बाद अपने घोंसले में वापस आती हैं.
'छठी मइया के केसिया लामे लामे ए नएन रतनार छठी मइया के हरि परदेसिया उ जागेली सारी रात'
सदियों-सहत्राब्दियों से छठ मनाया जा रहा है. मैं नहीं जानता कि यहां के लोग तभी से प्रवासी स्वभाव के थे या बाद में शिक्षा और नौकरी के लिए घर छोड़ने लगे. न जाने कब पूरब का विस्थापन इस पर्व के गीतों में भी शामिल हो गया. घर लौटे लोग दीपावली के तीन दिन बाद से तैयारी में लग जाते हैं. शुरुआत गेहूं सुखाने से होती है. पूरे दिन धूप में बैठकर ध्यान रखना होता है कि कोई पक्षी उसे जूठा न करे. इस पूजा में शुद्धता का कितना ध्यान रखा जाता है ये इसी से पता चलता है.
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छठ के त्योहार में सूर्य की पूजा होती है, किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती.

गेहूं सूखने के बाद घर के लोग अपने हाथों से चक्की से पीसकर आटा तैयार करते हैं. फिर चार दिवसीय महापर्व का पहला दिन आता है. पहला दिन इस शुद्धि की शुरुआत का होता है. इस दिन नदी में स्नान के बाद शुद्ध सात्विक भोजन किया जाता है. चावल, सादी दाल और घी में बनी कद्दू की सब्ज़ी. इस दिन को कद्दू-भात भी कहा जाता है. अगला दिन खरना का होता है. यह दिन भूदेवी का होता है. उस देवी का जो बिना भेद-भाव किए सभी बीजों को अपनी कोख में स्वीकार करती है और सबको पालती है. दिन भर के निर्जला उपवास के बाद शाम को मिट्टी के नए चूल्हे पर गुड़ वाली खीर और सादी रोटी बनाई जाती है. धरती लीपकर केले के पत्ते पर उन्हें भोग लगाया जाता है और व्रती के साथ-साथ उसी प्रसाद को पूरा परिवार ग्रहण करता है. अगला दिन सांझ अरघ का होता है, डूबते सूरज की पूजा की जाती है.
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छठ की वजह से दीपावली के बाद भी बाजार गुलजार रहते हैं.

इस दिन पूरे दिन और रात को अन्न-जल ग्रहण नहीं कर सकते. सुबह-सुबह आटे में गुड़ मिलाकर घी में ठेकुआ तला जाता है जो इस पूजा का सबसे बड़ा प्रसाद होता है. फिर शाम को बिना रंगे सादे सूप में नारियल-फल लेकर गाते-बजाते सब लोग घाट जाते हैं. वापसी पर घर में गन्ने का गोल घेर बनाकर उसके भीतर कोसी भरने की पूजा होती है. कोसी भरने से आशय है कोष भरना. भगवान का अक्षय कोष जिससे हम भोजन पाते हैं, उसमें अपनी ओर से कुछ योगदान करना. जैसे सरकार के घर में टैक्स जमा करते हैं और बदले में उससे शिक्षा-सुरक्षा जैसा लाभांश हासिल करते हैं, ठीक वैसे ही मिट्टी के छोटे-छोटे कटोरों में फल-मिठाई और पान-सुपारी रखकर कोसी भरी जाती है. अगले दिन मुंह अंधेरे ही व्रती के साथ फिर से घाट जाते हैं.
यहां पूजा के बाद जल में प्रवेश करना होता है और हाथ में सूप लिए गीले बदन भगवान भास्कर का इंतज़ार करना होता है. इस दौरान सोहर का गीत गाया जाता है, जैसे बच्चे के जन्म पर गाते हैं. सूर्योदय से पहले का अंधेरा गर्भ के जैसा होता है और उदय जन्म की तरह. पूरब की लालिमा को देखते ही लोग दूध गिराकर अर्घ्य देने लगते हैं और इस प्रकार इस व्रत का समापन होता है. अब यह व्रती कौन होता है, इसे भी जानना ज़रूरी है. शारीरिक रूप से स्वस्थ कोई भी प्रौढ़ पुरुष या स्त्री व्रती हो सकते हैं. यह सासों द्वारा अवस्था थकने पर बहुओं को उत्तराधिकार में भी दिया जाता है. यह अनिवार्य नहीं होता. जब कोई व्यक्ति ख़ुद को इसके लिए फिट महसूस करता है, तब परिजनों से इसे करने की इच्छा व्यक्त करता है. फिर सबके सहयोग से इस अनुष्ठान को अन्जाम देता है.
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बिना किसी पुरोहित की मदद के ही छठ पूजा संपन्न होती है.

इतने दिनों तक चलने वाले इस अनुष्ठान में किसी भी पुरोहित की ज़रूरत नहीं होती. ब्राह्मण से लेकर दलित तक अपनी पूजा खुद करते हैं. सबके घाट एक होते हैं और साथ बैठना ज़रूरी होता है. बिना किसी कर्मकाण्ड के ममता भरे गीतों और श्रद्धा-भक्ति के साथ तमाम रस्मों को निभाते हुए यह त्योहार पतरा की बजाय अचरा अर्थात शास्त्र के बजाय लोक और ममत्व भरे आंचल का होता है. सभी वर्गों की समान सहभागिता के साथ संपन्न इस पूजा या पर्व के अलावा हमारे देश में दूसरा ऐसा कोई पर्व नहीं मिलता जो बिना पुरोहित के सम्पन्न होता हो. अपने काम का कर्मकाण्ड खुद ही करने का यह आत्मविश्वास सबको देता है.
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छठ इकलौता ऐसा त्योहार है, जो असत्य पर सत्य की विजय या किसी की जीत का जश्न नहीं होता है.

हमारे देश के तमाम पर्व अन्याय पर न्याय की जीत और अंधियारे पर प्रकाश की विजय के रूप में ही हैं. सम्भव है कि इस भावना से कोई पक्ष ख़ुद को दबा हुआ महसूस करे. ऐसे में छठ पूजा का संदेश किसी की जय और किसी की पराजय का नहीं है. यह प्रकृति की नित्यता और शाश्वतता के माध्यम से बहुत ही आम लगने वाला एक ख़ास संदेश देता है. पहले डूबते सूर्य को पूजना और तब उगते को अर्घ्य देना. यह कहता है कि जिसका अवसान होता है उसका उत्थान भी अवश्यम्भावी है. मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए, वह भी इसी प्रकृति मां की संतान है. यह नियम उस पर भी लागू होगा. जीवन में दुःख के बाद सुख और अंधेरे के बाद रोशनी का मिलना तय होगा...


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