दादियां कभी उम्रदराज नहीं होतीं. मैंने अपने होशोहवास में पहली बार जब अपनी दादी को देखा था, तब से अब तक वो वैसी ही हैं. वही चेहरा. वही दुलार. वही ठसक. झुर्रियों में सिमटी कहानियां, अनुभव, आज भी अपनी जगह पर बरकरार हैं. चर्चा है कि दुनिया बदल रही है, दादियां कहां बदली हैं! दुनिया का दुनियापन बचाए रखने के लिए दादियों का होना बहुत जरूरी है.
छठ की आहट. ट्रेन के डब्बे. भरे होते, गांव और शहर के बीच चलनेवाली एकमात्र बस की तरह. फटी जेब, टूटी चप्पल, खाली किस्मत. कुछ भी तो नहीं रोक पाती इनको. जिस तरह वो खुद को ट्रेन के किसी कोने में फेंककर महानगरों में जाते, उसी तरह खुद को पायदानों के बीच कपड़ा बांधकर, टांगकर वापिस भी ले आते. जलालत भरी जिंदगी को एक कदम और आगे बढ़ाते हैं. हमारे अपने लोगों को हमारे अपने ही लोग यूं देखते, गरियाते मानो उनसे कभी कोई रिश्ता ही न रहा हो. मगर उनके कानों पर जूं न रेंगती. क्योंकि वहां तो पहले से ईयरफोन रेंग रहे होते. अपने घरवालों को अपनी परेशानियों से बेफिकर करने के लिए. वे साल में एक बार खुद को सजाते. भड़कीले कपड़ों से. सस्ते मगर बड़ी स्क्रीन वाले चाइनीज मोबाइलों से. शहरी बोली से. क्या है जो उनके अहसास को, उनकी भावनाएं को सोख लेता है!

छठ का जिक्र आते ही दादी याद आती है. माथे से नाक तक सिंदूर पोते, घूंघट काढ़े, अर्घ्य देती, गीत गुनगुनाती. जब भी बढ़ती उमर का हवाला देकर उपवास करने से रोकता हूं, चुप्प करा देती है. लाजवाब कहानियों से. अपने इतिहास से. छठ का पहला दिन, नहाए-खाए. नहाने के बाद भोजन की रसम पूरी की जाती. जांते में पिसी गेहूं के आटे की रोटी. कद्दू की सब्जी घी में, सेंधा नमक के साथ. गेहूं धोके हल्की धूप में सुखाना. डंडा लेके दादी खुद बैठती, चटोरी चिड़ियों को हड़काने के लिए. सूर्यदेव का प्रसाद जूठा न हो जाए.

हमलोग परसाद वाले गेहूं को पिसवाने मिल पर ले जाते. लंबी लाइन के बीच. खरना, रात की पूजा. अम्मा बस चूल्हा सुलगा देती और फिर दादी उस दिन सब के लिए खाना बनाती. एकदम गोल-गोल पकी हुई रोटियां, गुड़-दूध और चावल से बना रसिया, गोभी-आलू की लाजवाब सब्जी. पहले एक कमरे में भगवान को भोग लगाया जाता. फिर दादी प्रसाद खातीं. खाने के बीच में कोई खटका हुआ तो वहीं पर खाना बंद करना होगा. दादी पांच मिनट में ही अपना खाना खत्म कर लिया करती. ताकि बच्चे जल्द-से-जल्द खाना खा सकें. भूखे पेट भजन नहीं होता. दादियां चिंतन-मनन सब कर लेती, बिना किसी को पता चले.
अगला दिन अम्मा और दादी भूखे पेट पकवान बनाने में जुट जातीं. खजूर, पिरकिया, निमकी. फिर शाम होते-होते अर्घ्य का सूप भर दिया जाता. रंग-बिरंगे फलों और पकवानों से. नदी में डुबकी लगाकर. दिया जलाकर. हाथों में थामे व्रती. जब सूर्य रेस्ट करने जाने को होते तभी उनको अर्घ्य समर्पित कर दिया जाता. सब पकवान सहेज कर रख दिए जाते. अगली सुबह के इंतजार में. हम अपनी ललचाई नजर और पनियल जीभ फिराते रहते. दादी भांप जाती और हमें कहानियां सुनाकर पकवान की बात भुलवा देतीं.
छठ की अंतिम सुबह, परना. रात के तीन बजे से चहल-पहल शुरू. शारदा सिन्हा की आवाज. सर्दीली हवा. तिलिस्म-सा घुला होता. बिस्तर छोड़ना पड़ता, न चाहते हुए भी. पकवानों के लालच में. थरथराते पांव. कटकटाते दांत. कनकन पानी की फुहार. सब मंजूर था. अम्मा हमारे जगने से पहले खाना तैयार किए रहती, जाने कब! घाट पर पहुंचने की होड़. अर्घ्य का डाला सिर पर उठाए पुरुष. अर्घ्य देने वाले नदी के बर्फीले पानी में डुबकी लगाते और अर्घ्य का सूप हाथ में उठा लेते.

आज का सूरज जान-बूझकर देर करता. आकाशवाणी के पटना केंद्र से पटना के घाटों का हाल सुनाया जाता, जो कि परंपरा बन गई है. हमें पटना वालों से रश्क होता, वे हमेशा सूरज देखने में आगे होते, यकीनन अर्घ्य देने में भी. और पकवान चखने में भी. शारदा सिन्हा ‘उगा हो सूरुज देव’ गाकर हमारे मन की सुरमयी अभिव्यक्ति करतीं. हमारे मन की बात मान ली जाती. आसमान के माथे पर एक बिंदी दिखती. सिंदूर की बड़ी-सी लाल बिंदी. सूर्य का तापमान 6000 डिग्री सेल्सियस एक धोखा है. ये तो आंखों को ठंडक दे रहा है. जी चाहता कि देखता रहूं. और हमेशा के लिए अपनी आंखों में किराएदार रख लूं, सपनों की प्रेमिका की तरह.
लपलपाती जीभ शांत हो जाती है. हाथ ‘अब बस’ का संकेत करने लगते हैं. पेट पर हाथ फिरने लगते हैं. भोजन, तमाम किस्म के पकवानों से मन भरने लगता है. ये मौसम एक पॉज लेता है, अगले बरस नई ताजगी से रिज्यूम होने के वादे के साथ. एक मौसम. जब बिहार भरा-पूरा होता है. अपनी संतानों से. पुरखों की धरती मुस्कुराती है, अपने नए बिरबानों को छूकर, दुलारकर, निहारकर. काश! कि बिहार हमेशा के लिए छठवान हो जाता.
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