केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने इसकी निंदा करते हुए कहा है कि ये संघ परिवार के एजेंडे को दर्शाता है.
इससे पहले CBSE की क्लास-9 की सोशल साइंस की किताब से यही एक चैप्टर हटा दिया गया था, मद्रास हाई कोर्ट के आदेश पर. तब कोर्ट ने अपने आदेश में कहा,
“2017 की परीक्षाओं में चैप्टर ‘कास्ट, कन्फ्लिक्ट ऐंड ड्रेस चेंज’ से कुछ भी नहीं पूछा जाएगा.”
ये चैप्टर कपड़ों के इतिहास पर है. जिसके एक हिस्से में बताया गया है कि 19वीं शताब्दी में त्रावणकोर में स्त्रियों (खास तौर पर दलित स्त्रियों) को अपने स्तन ढकने की इजाजत नहीं थी.# इस चैप्टर में ऐसा क्या है?
CBSE के मामले में इसके खिलाफ नवंबर 2016 में ‘एडवोकेट फोरम फॉर सोशल जस्टिस’ ने एक अर्जी दी थी. उनका कहना था कि ये चैप्टर एक समुदाय के बारे में ‘गलत सूचना’ दे रहा है. इससे पहले 2012 में भी इस चैप्टर पर एक बड़ा विवाद हुआ था.
राजनीतिक दलों ने तब भी इस चैप्टर का काफी विरोध किया था. DMK प्रमुख, करुणानिधि और MDMK के नेता वाइको ने नादर समुदाय को बाहर से आया बताने पर आपत्ति जताई थी, वहीं PMK का कहना था कि इस फूहड़ परंपरा से बचने के लिए नादर समुदाय के लोग ईसाई बन गए, ये बात गलत है. जिसके बाद दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता ने इसमें केंद्र से दखल की मांग की थी. आइए अब इस स्तन ढंकने की आजादी से जुड़ी इस परंपरा के बारे में जानते हैं.
आज़ादी से पहले दक्षिण भारत में एक रियासत थी त्रावणकोर. 1719 से 1949 तक वजूद में रही इस रियासत का विस्तार केरल से तमिलनाडु के कई हिस्सों तक था. श्री पद्मनाभनस्वामी मंदिर भी इसी विरासत का हिस्सा है.# परंपरा क्या थी?
इस त्रावणकोर रियासत में एक रिवाज़ था जिसमें अपने से कथित 'ऊंची जाति' के लोगों को सम्मान देने के लिए शरीर का ऊपरी हिस्सा खुला रखना पड़ता था. स्त्री और पुरुष दोनो ही इस नियम का पालन करते थे. ये फूहड़ नियम सब जाति की स्त्रियों पर लागू होता था, लेकिन वर्ण व्यवस्था के पायदान पर सबसे नीचे होने के चलते दलित महिलाएं सबसे ज्यादा इसका शिकार हुईं. नादर समुदाय ने इस नियम का विरोध किया, इसलिए इस परंपरा को सबसे ज्यादा उनके साथ जोड़कर याद किया जाता है.
शानर (नादर) एक समुदाय है, जिसमें कई जातियां शामिल हैं. ये लोग त्रावणकोर रियासत में नायर ज़मींदारों के यहां मज़दूरी करते थे. इन नादर लोगों को छाते का इस्तेमाल करने और सोने के गहने पहनने की इजाज़त नहीं थी.
परंपरा के मुताबिक, नादर महिलाओं को हर समय सवर्णों के सम्मान में टॉपलेस रहना अनिवार्य था. वहीं त्रावणकोर की दूसरी जातियों की महिलाएं भी इसकी शिकार थीं. खुद नायर महिलाएं ब्राह्मणों के सामने कपड़े नहीं पहन सकती थीं. क्षत्रिय और ब्राह्मण जाति की आम स्त्रियां जब बाहर बाज़ार आदि के लिए निकलती थीं तो वे अपना शरीर ढंक सकती थीं, लेकिन घर और मंदिरों में उन्हें भी ब्राह्मणों और राजपरिवार वालों के सम्मान में अपने स्तन दिखाने पड़ते थे. मंदिर के अंदर जाने पर हर स्त्री को पुरोहित के सामने अर्धनग्न होना पड़ता था.# ब्राह्मण औरतों पर भी लागू था, पर दलितों पर आंच ज्यादा आती थी
पुरोहित एक लंबी लाठी के सिरे पर चाकू बांध कर रखते थे. अगर कोई स्त्री पूरे कपड़े पहने होती तो पुरोहित उसके कपड़े फाड़ देते. पिछड़ी जाति की महिला के ऐसा करने पर अक्सर उनके कपड़े फाड़कर पेड़ से लटका दिया जाता था. ताकि और महिलाएं दोबारा वैसा करने की हिम्मत न करें. रियासत के महाराज जब कभी रास्तों से गुजरते तो सारी कुंवारी लड़कियां आधे कपड़े उतार कर फूल बरसाती थीं.