क्या हाल है स्कीम का? एमपीलैड्स के तहत सांसदों को साल में 5 करोड़ रुपए यानी ढाई- ढाई करोड़ रुपए दो किश्तों में जारी किए जाते हैं. केंद्र सरकार ये पैसा लोकसभा के 543 और राज्यसभा के 250 सांसदों से जुड़े ज़िलों के जिलाधिकारियों को भेजती है. जिलाधिकारी उस पैसे को एक बैंक खाते में रखते हैं. फिर सांसदों से काम के प्रस्ताव लेकर उनको पूरा कराते हैं. इसकी निगरानी के लिए जिले में एक नोडल अधिकारी होता है. केंद्रीय सांख्यिकीय और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय के मुताबिक कई जिलों में जिला प्रशासन के असहयोग के चलते ये स्कीम झटके खा रही है. जिला प्रशासन से यूटिलाइजेशन सर्टिफिकेट यानी फंड के इस्तेमाल का प्रमाण पत्र मिलने में ज्यादा समय लग रहा है. इससे नया फंड नहीं जारी हो पा रहा है. यूटिलाइजेशन सर्टिफिकेट मिलने के बाद ही सांसदों को नया फंड जारी किया जाता है.
मिनिस्ट्री ऑफ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इंप्लिमेंटेशन की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2014 से अब तक 543 में से केवल 35 लोकसभा सांसदों की निधि से चल रहे प्रोजेक्ट पूरे किए गए. पश्चिम बंगाल में 10 लोकसभा क्षेत्रों में सांसदों के प्रोजेक्ट को यूटिलाइजेशन सर्टिफिकेट मिल पाए. इनको दिखाने के बाद हर प्रोजेक्ट के लिए 25 करोड़ रुपए जारी किए गए. उत्तर प्रदेश में 6, मध्य प्रदेश में 4, पंजाब में 3, असम, गुजरात और हरियाणा में सिर्फ 2-2 लोकसभा क्षेत्रों में पूरे 25 करोड़ रुपए खर्च हो हुए हैं.

संसद. फाइल फोटो. इंडिया टुडे.
सांसद क्यों नहीं खर्च कर पा रहे पैसा? इस स्कीम के तहत जिन योजनाओं के लिए सांसद प्रस्ताव भेजते हैं, वे तय वक्त पर पूरे नहीं हो पा रहे हैं. स्थानीय लोगों की शिकायतों या भ्रष्टाचार आदि की वजह से काम समय पर पूरे नहीं हो पाते हैं. इससे जिला प्रशासन यूटिलाजेशन सर्टिफिकेट यानी उपभोग प्रमाण पत्र नहीं देता है. नतीजा, सरकार नया फंड जारी नहीं करती है. एमपीलैड्स के काम को साल भर के भीतर पूरा करना होता है. फिर उसका प्रमाण पत्र हासिल करना होता है. सांसद निधि के कार्यों में क्वॉलिटी की बहुत शिकायतें रहती हैं. सांख्यिकीय मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगस्त 2018 तक सांसद निधि के 12,073 करोड़ रुपए बैंक खातों में यूं ही पड़े थे.
कौन से काम विवादों में? सांसद निधि से पीने के पानी, बिजली, सड़क, साफ-सफाई और सामुदायिक केंद्र बनवाने जैसे काम कराए जा सकते हैं. बेसहारा बच्चों या दिव्यांगों के लिए घर और प्राइमरी स्कूल में क्लासरूम भी सांसद बनवा सकते हैं. सांसद निधि की ये स्कीम शुरुआत से ही भ्रष्टाचार की वजह से विवादों में रही है. स्कीम में ट्रांसपैरेंसी न होने की शिकायतें रही हैं. सांसद इस निधि से कौन से असेट्स तैयार करते हैं, इस पर सितंबर 2018 में तत्कालीन केंद्रीय सूचना आयुक्त श्रीधर आचार्युलु ने जवाब मांगा था. इस बाबत उन्होंने लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन और राज्यसभा के सभापति वेंकैया नायडू को को चिट्ठी भी लिखी थी. इसमें कहा गया था कि सांसदों की सांसद निधि के खर्च के बाबत एक लीगल फ्रेमवर्क बनाया जाए. एमपीलैड्स में कोई पारदर्शिता नहीं है.

लोकसभा. सांकेतिक तस्वीर. इंडिया टुडे.
अब क्या चाहती है सरकार? केंद्रीय सांख्यिकीय एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा ने 19 दिसंबर को लोकसभा में एक बयान में कहा कि यूटिलाइजेशन सर्टिफिकेट मिलने में बड़ी दिक्कत हो रही है. अलग-अलग कारणों से जिला प्रशासन इनको जारी नहीं करता है. इस वजह से सरकार पूरी रकम एक साथ जारी करने पर विचार कर रही है. इस पर फाइनेंस मिनिस्ट्री से बातचीत चल रही है. सरकार का मानना है कि इससे पैसा जिलों में पहुंच जाएगा. इससे काम में तेजी आएगी. अभी मंजूर प्रोजेक्ट लगातार लटके रह जाते हैं. इसी वजह से सरकार इसकी फंडिंग में बदलाव की बात कर रही है. नए प्रस्ताव के अनुसार, साल में दो किश्तों की जगह एक बार में ही पूरी किश्त दी जाएगी.
क्या घट गई है दिलचस्पी? सांसद इस स्कीम को लेकर शुरुआती सालों में बहुत उत्साहित रहते थे. मगर इसको लेकर सांसदों में अब वैसा उत्साह नहीं रहा है. एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2014 में 16वीं लोकसभा का गठन हुआ. पहले साल यानी मई 2015 तक सरकार ने 1,757 करोड़ रुपए इस स्कीम के तहत जारी किए. इसमें सिर्फ 16 फीसदी पैसा ही खर्च हुआ. 543 लोकसभा सांसदों में से 223 ने तो विकास कार्य कराने का एक भी प्रस्ताव नहीं दिया. उसी वक्त से ये कहा जा रहा है कि सांसदों का इस योजना से मोहभंग हो रहा है.
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