The Lallantop

ग्राउंड रिपोर्ट: पाटीदारों के हल्ले और नोट-बैन के बाद कैसा है गुजरात

यहां के लोगों के पास बातें बहुत हैं. तरह-तरह की.

post-main-image
फोटो - thelallantop
आप चार लोगों के ग्रुप को लीड कर रहे हैं. आप सबसे आगे. तीन आपके पीछे. मुस्तैद. सभा है. आप सबसे आगे की कुर्सियों पर. सरकारी अधिकारी की तरह. सामने मंच पर वक्ता है. पीछे हुजूम. वक्ता रगड़ा-पाव बनाने के अंदाज में बोलता है. बनाता है, ठिठकता है. काटता है. फिर अचानक से फटाफट बोल देता है. आपके तीनों तिलंगे आपकी तरफ देखते हैं. हंसा जाये हम लोग भी. चारों को कुछ समझ नहीं आता. पीछे का हुजूम ठहाका मारता है. कैमरे वाला सबको देखता हुआ आपको भी दिखाता है. परदे पर. ठहाके मारती भीड़ के बीच चतुष्कोण मूर्तियां बैठी हुई हैं. ये देख आप मुस्कुरा देते हैं. क्योंकि स्टेज पर गुजराती में जोक क्रैक हो रहा है. आप मिस कर दे रहे हैं. क्रक्स. पर एक चीज साफ पता चल गई. एक आदमी पूरा रोष में भरा हुआ बोल रहा है कि इंगलिश में पढ़ने वाले लोग गुजराती का मजाक बनाते हैं. क्या करेंगे ये लोग गुजराती भाषा के लिए.

हिंदू-मुस्लिम शादी से पैदा हुआ है ये गुजरात लिटरेचर फेस्टिवल

मैं बैठा था अहमदाबाद में गुजरात लिटरेचर फेस्टिवल में. गैंग के साथ. अहमदाबाद में लिटरेचर फेस्टिवल होना ही अनूठी चीज है. मुझे तो बड़ी प्रसन्नता हुई सुनकर ही कि वहां हो रहा है. सामान्य मानवी सिर्फ बिजनेस ही नहीं करता, कल्चर से भी प्यार है उसे. कभी गया नहीं था पहले वहां. जब चला तो दिल्ली में कुहासा था. घंटे भर बाद अहमदाबाद के ऊपर पहुंचा तो शहर जगमगा रहा था. दंग रह गया कि विकास इतना भी हो सकता है कि ऊपर से कुछ दिखाई ही ना दे. इतनी चमक है. ध्यान से देखा तो धूप थी. शहर तो वैसा ही था. इलाहाबाद, कानपुर जैसा. पर गंदा नहीं. साफ-सुथरा. आदमी भी थे. पर उतनी थूका-थाकी नहीं कर रहे थे. साबरमती रिवर फ्रंट से गुजरा. अबकी कार से. पहुंचा आयोजन-स्थल पर. गुजरात यूनिवर्सिटी के सामने. कनोरिया सेंटर फॉर आर्ट्स.
गुजरात लिट फेस्ट की कहानी बड़ी दिलचस्प है. इसे शुरू करने वाले हैं संकित शाह और जुमाना नासिर. दोनों पति-पत्नी हैं. 2002 के दो साल बाद 2004 में शादी हुई थी. हिंदू-मुस्लिम. कोर्ट मैरिज. तब ये शादी गली-मुहल्लों का मुद्दा थी. अगर ध्यान से दोनों को देखें तो यही लगता है कि यही लोग करा भी सकते हैं लिट फेस्ट. या यूं कहें कि इनको अपनी जिंदगी में ये चीजें करानी ही थीं. जुमाना बताती हैं कि उनको कभी कोई दिक्कत नहीं हुई. इस लिट-फेस्ट में तो गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी भी आ गये. एकदम उल्का-पिंड की तरह. कुदरती घटना. पहले से ज्यादा प्लान नहीं था. अचानक पता चला कि आ रहे हैं. चले भी गये. तुरंत. स्पीच देकर.
ड्राइवर जितेंद्र ने मौका लगते ही पूछ लिया दिल्ली में क्या हाल है, हमारे यहां तो लाइनें लग ही नहीं रहीं. क्योंकि पैसा हर जगह आ नहीं रहा. हमने बता दिया. तो कहते हैं जीतू भाई कि जो भी हो, काले धन वालों की बैंड बजेगी. हालांकि अभी तक तो कुछ हुआ नहीं है. पर मोदी पर भरोसा है. शराब तो यहां रोक ही दिया था. पाटीदारों के हंगामे से कुछ नहीं होगा. यहां जीतेंगे फिर, पर सीटें उतनी नहीं आएंगी. ये राजनीति हर जगह घुसी हुई है आजकल. माननीय मुख्य अतिथि गवर्नर साहब ने एक लंबी तकरीर दी कि कैसे लिटरेचर समाज के लिए जरूरी है. पर बहुत लंबी स्पीच थी. टाइम जरूरी नहीं था शायद. टाइम से याद आया, देश में एक नई फैंटेसी फैली हुई है. टाइम-ट्रेवल वाली. वहां भी सेशन चल रहा था. गांधीजी ने सरदार पटेल का करियर खराब कर दिया. नहीं तो वो ज्यादा काबिल प्रधानमंत्री बनते. लोग चाहते भी थे. कांग्रेस के लोगों ने तो नेहरू को वोट भी नहीं दिया था. तमाम आरोप-प्रत्यारोप लगे. बहुत ही पैशनेट वक्ता थे. उनके मुताबिक गांधी ने ये गलत किया गुजरात के साथ. विपक्षी थोड़े भावुक हुए. तमाम उद्धरण दिए कि गांधी, नेहरू और पटेल के बीच तमाम असहमतियां थीं. इनके बावजूद वो साथ काम करते थे. यही खूबसूरती थी राजनीति की. पर किसी ने इस सवाल का जवाब नहीं दिया कि इस डिस्कशन का क्या फायदा है आज?

लोग हर जगह एक से हैं, असहमति और नाराजगी में फर्क नहीं पता

इसके साथ ही सेशन हुआ फ्रीडम ऑफ स्पीच पर. लोगों ने मोदी पर जोक मारे. कि पूरी फिलॉसफी ही बदल दी है भारत की. कहा जाता है कि आप चले जाएंगे, धन-दौलत सारा रह जाएगा. पर हुआ उल्टा. आप हैं यहीं, धन-दौलत चली गई. निकाल नहीं पा रहे. जनता हंस भी रही थी. कहा गया कि मोदी तो अपने ऊपर जोक सुन भी लें. पर उनके कुछ भक्त ही नहीं सुन पाते. उन्हें समझ नहीं आता. नाराज हो जाते हैं. यहीं से बात सऊदी अरब पर भी चली गई. कि वहां शो करते हुए कोई सेक्स जबान पर भी नहीं ला सकता. जनता चुप रही यहां भी. विकास यहां पर भी उतना ही है. प्रश्न और ओपिनियन में फर्क नहीं पता लोगों को. असहमति और नाराजगी में भी फर्क नहीं पता. पर एक चीज अच्छी दिखी. जो छोटे शहरों में होती है. लोग बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे. हर सेशन में. लोग किसी स्पीकर को ज्यादा परेशान भी नहीं कर रहे थे. तो फिर सेशन साहित्य का भी आया. यहां भी वही बात थी. जो लोग सिर्फ गुजराती को लेकर बैठे थे, वो निराश महसूस कर रहे थे. जो कई भाषाओं में घूम के आ चुके थे, वो विश्वास से भरपूर थे. ये समझ आया कि बाकी चीजों को दरकिनार कर के आप अपनी भाषा को आगे नहीं बढ़ा सकते. हर चीज को अपनाना पड़ेगा. साथ ही पता चला कि गुजरात में भी स्टोरी-टेलिंग बहुत जबर्दस्त है. लोग नानी-दादी की कहानियों की बात कर रहे थे. पूरे हिंदुस्तान में ही ये प्रथा हुआ करती थी. किस्सागोई की. बाद में एक सेशन हुआ मनोज जोशी का. नाटक. यहां सुबह वाले गुजराती रोष का जवाब मिल गया. नाटक में गुजराती बाप अपने इंगलिश बेटे का मजाक बनाता है. यही तो हर कोई करता है. दूसरी भाषाओं का कैरिकेचर बना के. जब मौका मिलता है. ये वक्त की बात होती है. पंजाब का कैरिकेचर बनता था, अब गंभीरता से दिखाया जाने लगा है. सेशन के अलावा जो भी बातें हो रही थीं वो नोटबंदी, पाटीदार और दंगों से जुड़ी हुईं. नोटबंदी पर एक रिटायर्ड बैंकर तो बैंक वालों को ही दोष दे रहे थे. कि मोदी मेहनत कर रहे हैं, ये लोग हरवा रहे हैं. एक ऑटोवाले ने तो कह दिया कि मैं अपने मोदी से तंग आ गया हूं. अपने बच्चों को विदेश भेज दूंगा. और राजनीति में आऊंगा. कुछ यंगस्टर खुश थे. कि एक महीने से बाहर ही खा रहे हैं. कार्ड से. तो हमें तो नोटबंदी अच्छी लगी. कुछ गंभीर लोगों का कहना था कि इससे खर्चा कम हुआ है.

पर लिट-फेस्ट से नोटबंदी का दर्द कम नहीं हो जाता

पर जब मैं जोहापुरा पहुंचा जहां हिंदू-मुस्लिम बस्तियां आमने-सामने हैं, तो नजारा कुछ और था. मुस्लिम बस्तियों के लोग बता रहे थे कि बिजनेस ठप्प पड़ गया है. कंबल वाला बता रहा था कि 50 परसेंट कम हो गया है. फल वाले का 80 परसेंट बिजनेस बंद है. दुकान में पुराना सामान पड़ा था. बाल बनाने वाला एक कदम आगे. कहता है कि लोग बनवा ही नहीं रहे. कहते हैं कि बढ़ा नहीं है अभी. हिंदू बस्तियों में भी लोग असामान्य हैं. कहते हैं कि पता नहीं इससे किसको फायदा हो रहा है. हमें तो कोई फायदा नहीं हुआ. कोई काले धन वाला पकड़ा भी नहीं गया. पर शायद मोदी का कोई प्लान हो. ये मिडिल क्लास की बस्तियां थीं. जब मैं फत्तेगड़ी और गुप्तानगर गया तो नजारा और था. निम्न वर्ग की जगहें हैं. दोनों में नाली और कूड़े की बुरी हालत थी. एक हिंदू बहुत और दूसरा मुस्लिम बहुल. दोनों पर बराबर ध्यान था सरकार का. पाटीदार आंदोलन की बात पर लोग हंसने लगते हैं. कहते हैं कि पाटीदार हैं तो धनी समुदाय के लोग. विदेश चले जाते हैं. पर यहां प्रशासन में परमार, सोलंकी जैसे नाम मिलते हैं. तो विदेश से आने के बाद इनको ही सर, सर कहना पड़ता है. ये सोहाता नहीं उनको. अपनी जगह पर वो लोग सही हैं. पर जनता को कोई खास सरोकार नहीं है. क्योंकि ये बिल्कुल पाटीदारों के फायदे की बात है. एक मोहम्मद अजहरूद्दीन मिले. जब मैंने बताया कि दिल्ली से आया हूं तो भावुक हो गये. सारी समस्या बता दी. कहा कि स्वाइप मशीन लगा भी लें तो चलाय़ें कैसे. सीखना मुश्किल काम है. फिर कहने लगे कि 2002 के दंगों के बाद माहौल एकदम बदल गया था. हर वक्त टेंशन. हमारे बुजुर्गों ने सिखाया कि पहले मुस्लिमों ने अत्याचार किए थे, उसी का फल मिला ये. हमें कोई नाराजगी नहीं है. हम ईमानदारी से जीना चाहते हैं बस. 2014 के बाद अब माहौल ठीक है. टेंशन कम है. पर लोग बात नहीं करते. हिंदू-मुस्लिम अलग-अलग हो गये हैं. पर बिजनेस में नहीं. सब्जी मंडी में दोनों हैं. कोई दिक्कत नहीं. दिक्कत बस किराये पर घर देने में हैं. हिंदू ज्यादातर वैष्णव हैं. मांस से एकदम दूर. मुसलमानों का मांस खाना सोहाता नहीं, तो भड़क जाते हैं. रही-सही कसर कुछ संगठन पूरी कर देते हैं. जब वापस मैं कनोरिया सेंटर पहुंचा, तो देखा कि एक कुत्ते का पिल्ला विकास के लिए लगाये गये तारों में उलझ गया है. तारों के सहारे पार करना चाहता था. जितना निकलना चाहता था, उतना ही उसकी गर्दन फंसती जाती थी. फांसी ही लगा बैठा था. तो मैंने एक आदमी के साथ मिलकर उसे आजाद किया. कुत्ते हर जगह पहुंच जाते हैं. लिटरेचर फेस्टिवल से क्या वास्ता उसका. पर नहीं, आना है. आना है तो लो.

मनी-मेकिंग अहमदाबाद में चलती है फ्री लाइब्रेरी

फेस्टिवल में सिनेमा, स्क्रिप्ट, लिटरेचर, इतिहास, खाना-पीना हर चीज पर बात हुई. ज्यादातर बातें गुजराती में हो रही थीं. मुझे अब समझ आने लगा था. लिखा हुआ तो बिल्कुल पढ़ ले रहा था. क्योंकि ऊपर इंगलिश में दिया हुआ था. तो गानों पर बात-चीत के दौरान जावेद अख्तर और गुलजार के रोचक वाकये सामने आये. मयूर पुरी बता रहे थे कि संजय गढ़वी जावेद साहब को समझाने गये. कि आपके गाने के एक शब्द का फोनेटिक्स मुझे ठीक नहीं लग रहा. जावेद साहब ने कहा कि फोनेटिक्स पर मैंने एक किताब लिखी है. अश्विन सांघी के सेशन में जब लोगों ने पूछ लिया कि कितना पैसा मिलता है किताब लिखने पर. तो अश्विन ने कहा कि हां, अब लगा कि मैं गुजरात आया हूं. फिर बताया कि लिखने के लिए नौकरी छोड़ने की जरूरत नहीं है. लिखते रहिए. छप तो जाएगा ही. पर बढ़िया लिखिये. वहीं पता चला कि एक राजेंद्र जी हैं. कवि. लाइब्रेरी की मुहिम शुरू की है. उनके यहां से किताब ले जाइये. मुफ्त. पढ़ के वापस कर दीजिए. फिर ले जाइये. कोई प्रेशर नहीं डालता वापस करने का. लोग अपने यहां से किताबें देते हैं इनकी लाइब्रेरी में. 50 वालंटियर जुड़े हैं. शौक से मैनेज करते हैं. सबसे अच्छी बात कि 95 प्रतिशत लोग किताबें वापस कर देते हैं. लाइब्रेरी से मुझे एक किताब गिफ्ट भी मिली. मैंने कहा कि मैं दिल्ली रहता हूं. वापस नहीं कर पाऊंगा. तो बोले कि और ले जाइये. फिर लल्लनटॉप राइटर दिव्य प्रकाश दुबे का सेशन भी हुआ. स्टोरी-राइटिंग का. अंजुम राजाबली और सौम्य जोशी के स्क्रिप्ट राइटिंग में भी बहुत भीड़ थी. लोग नोट्स ले रहे थे. ये अच्छा लगता है. हर जगह लोग जानने को उत्सुक रहते हैं. रहने का इंतजाम हाउस ऑफ एमजी में किया गया था. सेठ मंगलदास गिरधरदास की हवेली हुआ करती थी. बहुत बड़ी है. कन्फ्यूजिंग भी. चोर चुरा के चार दिन वहीं रह जाये. पुलिस ना पकड़ पाएगी. पर प्रशासन कमजोर लोगों के लिए हमेशा आततायी होता है. कनोरिया सेंटर के स्वीपर ने बताया कि नोटबंदी के चलते उसकी हालत खराब हो गई है. बेटी बीमार थी. हॉस्पिटल जाना पड़ता था. कैश निकालने के लिए लाइन लगानी पड़ती थी. छुट्टी लेनी पड़ती थी. मालिक लोग डांट लगाते. पैसा काटते. कहते कि ऐसे नहीं चलेगा. मैं बेटी को लेकर सीधा ऑफिस आ गया. इस पर भी नाराज हो गये कि ऐसा नहीं कर सकते हो. लिटरेचर फेस्टिवल आजकल कई शहरों में हो रहे हैं. ये बहुत अच्छा हो रहा है. लोग जुड़ रहे हैं. ड्राइवर भी बहुत खुश थे कि नये-नये लोगों से मिल रहे हैं. कई लोगों की आदतें बताते और हंसते. फेस्टिवल से जागरुकता तो बढ़ ही रही है लोगों में. पर कई बार ये फेस्ट पैनलिस्टों की आपसी बात का जरिया बन जाता है. लोगों से कट जाता है. दूसरी बात ये कि ये नहीं पता कि टारगेट क्या है. या क्या फर्क पड़ेगा. ये कोई नहीं बता सकता. पर ये एक बड़ा जरिया हो सकता है लोगों तक बातें पहुंचाने का. सामने जवाब देने का. करते-करते ही तो पता चलेगा कि क्या करना है.
चलते-चलते. जब जोहापुरा से मैंने ऑटो लिया तो वो लड़का भी राजनीति पर बात करने लगा. बताने लगा कि कुछ ही लोग हैं, जो माहौल खराब करते हैं. बाकी लोग तो आराम से रहना चाहते हैं. फिर मुझसे पूछा कि कौन सा धर्म सबसे पहले आया है. मैंने कहा कि पता नहीं. तो बोलता है इस्लाम. आदम और हव्वा की कहानी सुनाने लगा. इतने विश्वास से कि काटना संभव नहीं था. फिर बातों ही बातों में उसने लंबा रास्ता ले लिया. जब हम लोग सेंटर पहुंचे तो कहने लगा कि हां, पता नहीं चला. मैंने कहा कि मुझे पता था कि तुम क्या कर रहे हो. ये ईमान का पैसा है क्या. मैंने उसे पैसे दे दिये. पर हम क्या कहेंगे इसे? कि मुसलमान सगा नहीं होता? या गुजराती ऐसे ही होते हैं? या अहमदाबादी? ना जी ना. ऐसा कुछ नहीं होता. यही तो इंसानी स्वभाव की जटिलता है. एक तरफ धर्म, एक तरफ ईमान. राजनीति, देश को सुधारने की बातें. नरक और दोजख. पर फिर एक रियल दुनिया भी है. जिसमें सामने वाले को ठग भी लिया जाता है. पर इसका जनराइलेजशन नहीं होता. क्योंकि एक ठग के बदले में बहुत सारे ऐसे लोग भी थे, जो बहुत अच्छे थे.