इंजीनियरिंग. कुछ साल पहले तक कित्ती बड़ी बात होती थी इंजीनियरिंग करना. मां-बाप भी सबको चौड़े होकर बताते थे उनका बेटा या बेटी इंजीनियरिंग कर रहे हैं. 10वीं में जिस बच्चे के अच्छे नंबर आए, उसे गणित की तरफ धकेल दिया जाता था. था मैं इसलिए लगा रहा हूं क्योंकि अब ये चलन थोड़ा कम हुआ है. 10 साल पहले इंजीनियरिंग कॉलेजों में एडमिशन मिल जाना ही बड़ी उपलब्धि होती थी. और यहां इंजीनियरिंग कॉलेजों से तात्पर्य आईआईटी या एनआईटी से ही नहीं है. किसी भी तरह के सरकारी- प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज. लोग कर्ज़ लेकर अपने बच्चों को डोनेशन वाले कोटे से इंजीनियरिंग में दाखिला दिलाते थे. एक तरह की भेड़ चाल सी चली. इंजीनियरिंग में दाखिले की तैयारी कराने वाली खूब सारी कोचिंग क्लास खुलीं. किसी को ये सोचने की फुर्सत नहीं थी कि इतने इंजीनियर खपेंगे कहां, कितनों को नौकरी मिलेगी? और बड़ी संख्या में जो नए इंजीनियर तैयार हो रहे थे, उन्हें किस गुणवत्ता की पढ़ाई और ट्रेनिंग मिली थी. फिर इस अंधी दौड़ के रुझान दिखने लगे. हमें वो खबरें दिखने लगी कि बीटेक वाले चतुर्थ श्रेणी की नौकरियों के लिए अप्लाई कर रहे हैं. 10वीं या 12वीं पास की योग्यता वाली नौकरियों में इंजीनियरों की भीड़ हो गई. जिस करियर और ज़िंदगी की उम्मीद में लोग इंजीनियरिंग करते थे, वो इतने दूर नज़र आने लगे कि बच्चों ने इंजीनियरिंग से मुंह सा मोड़ लिया. अब इंजीनियरिंग की सीटें खाली जा रही हैं, कॉलेज बंद होते जा रहे हैं. बात को थोड़ा आंकड़ों से समझते हैं. इंडियन एक्सप्रेस अखबार में रितिका चोपड़ा की रिपोर्ट छपी है. रपट के मुताबिक इंजीनियरिंग में अंडरग्रेजुएट, पोस्ट ग्रुजेएट और डिप्लोमा सीटें घटकर 23 लाख 28 हजार रह गई हैं. यानी पिछले 10 साल में सबसे कम. सबसे ज्यादा सीटें 2014-15 में थी. 32 लाख. 2015-16 से इस आंकड़े में गिरावट शुरू हुई और सात साल में करीब 9 लाख सीटें कम हो गई. सिर्फ इस साल में ही 1 लाख 46 हज़ार सीटें कम हो गई हैं. ये उन इंजीनियरिंग संस्थानों की सीटों का आंकड़ा है जो AICTE से मान्यता प्राप्त हैं. AICTE यानी ऑल इंडिया काउंसिल फॉर टेक्निकल एजुकेशन. केंद्र सरकार की वो संस्था जो इंजीनियरिंग कॉलेजों को मान्यता देती है. IIT और NIT, ये संस्थान AICTE के अधीन नहीं आते. ये संसद के कानून से बने हैं और स्वायत्त हैं.
क्यों घट रहीं सीटें?
तो देश में इंजीनियरिंग की सीटें क्यों घट रही हैं. क्योंकि इंजीनियरिंग कॉलेज बंद हो रही हैं. पिछले 7 साल में करीब 400 इंजीनियरिंग कॉलेज बंद हो गई हैं. हर साल औसतन 50 कॉलेज बंद हो रही हैं. इस साल भी AICTE से मान्यता प्राप्त करीब 63 इंजीनियरिंग संस्थान बंद हुए हैं. हालांकि AICTE ने पिछड़े इलाकों के लिए 54 नए इंजीनियरिंग कॉलेज शुरू करने की मान्यता भी दी है. अब इंजीनियरिंग के साथ गड़बड़ क्या हुई ये समझते हैं. जब देश आज़ाद हुआ तब सिर्फ 44 इंजीनियरिंग कॉलेज हुआ करते थे. जिनमें 32 सौ सीटें थीं. पढ़ाई में टॉप 32 सौ बच्चे ही इंजीनियरिंग में दाखिला पाते थे. तब इंजीनियरिंग पढ़ना शहरी परिवारों के ऊपरी तबके तक ही सीमित था. देश आज़ाद होने के बाद प्रधानमंत्री नेहरू ने पंचवर्षीय योजनाओं में औद्योगीकरण पर ज़ोर दिया. अच्छे इंजीनियरिंग संस्थानों की नींव डालने की बात हुई. और इसी के तहत 1950 और 60 के दशक में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, माने IIT शुरू हुए. इसके साथ ही राज्यों के स्तर पर रीजनल इंजीनियरिंग कॉलेज शुरू हुए. शॉर्ट में इन्हें REC कहते थे. 2002 में इनका नाम बदलकर NIT कर दिया गया था. साल 1960 में देश में सिर्फ 9 REC थे. स्कूल के स्तर पर राज्यों की मेरिट में रहने वाले बच्चों को ही इंजीनियरिंग में दाखिला मिलता था. इतना मुश्किल था इंजीनियरिंग कर पाना. 60 के दशक से 90 के दशक तक इंजीनियरिंग कॉलेजों में इज़ाफा हुआ, लेकिन बहुत ही धीमी गति से.
कैसे बड़ा इंजीनियरिंग का क्रेज?
1980 और 90 के दशक में तकनीक का चलन बढ़ने लगा. तो 90 के दशक से इंजीनियरिंग पढ़ने का चलन भी बढ़ा. प्राइवेट कॉलेज भी खुलने लगे. साल 2000 के बाद इंजीनियरिंग वाला क्रेज़ कस्बों और गांवों की तरफ भी पहुंच गया. आईटी बूम ने इंजीनियरिंग को एक आकर्षक पेशा बना दिया था. तो बच्चों को कोटा जैसे शहर IIT एंट्रेंस की तैयारी के लिए भेजा जाने लगा. ये ट्रेंड इस तरह से चला कि फलाने ने अपने बच्चे को भेजा है तो मैं भी भेज ही दूं. अब सबका तो आईआईटी में एडमिशन हो नहीं सकता था. जिनको IIT, NIT में सीट नहीं मिली, उन्होंने अपने बच्चों को किसी प्राइवेट कॉलेज में भेज दिया. शिक्षा के व्यवसाय में लगे लोगों को इस डिमांड-सप्लाई के खेल में मुनाफा दिखा. तो इंजीनियरिंग कॉलेजों की संख्या अचानक बढ़ने लगी. सिर्फ 2011-12 में, एक साल में ही 451 नए इंजीनियरिंग कॉलेज शुरू हुए. AICTE ने भी बिना क्वालिटी पर खास ध्यान दिए धड़ाधड़ कॉलेजों की मान्यता दी. केंद्र की सरकार ने और AICTE ने एक्सपर्ट कमेटियों की सिफारिशों पर भी ध्यान नहीं दिया. 2003 में यूआर राव कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कुछ सुझाव दिए थे. कहा था कि जिन राज्यों में 10 लाख की आबादी पर 150 सीटों से ज्यादा हैं, वहां 5 साल तक नए कॉलेजों को मान्यता नहीं दी जानी चाहिए. हालांकि केंद्र की सरकार इन सिफारिशों पर कभी गौर नहीं किया.
नए कॉलेजों पर कंट्रोल नहीं
नए कॉलेजों पर नियंत्रण क्यों नहीं हो पाया, इस पर पूर्व एचआरडी सचिव अशोक ठाकुर का बयान मिलता है. उनके मुताबिक इस मसले पर कई बार चर्चा हुई. लेकिन नए संस्थान शुरू करने पर बैन लगाना कानूनी रूप से सही नहीं लगा. इसलिए ये बाज़ार पर छोड़ दिया गया कि जो अच्छे इंस्टिट्यूट होंगे वो ही सर्वाइव करेंगे.' तो AICTE से इंजीनियरिंग संस्थानों को मान्यता तो मिलती गई लेकिन उनमें पढ़ाई के स्तर पर ध्यान नहीं दिया गया. बिना योग्य फैकल्टी के, बिना लैब्स के, बिना पर्याप्त इंफ्रास्ट्रक्चर के इंजीनियरिंग चलने लगकॉलेजे. निजि संस्थानों के साथ-साथ राज्यों के स्तर के सरकारी कॉलेजों का भी कमोबेश ये ही हाल रहा. इसकी एक बड़ी वजह थी, शिक्षा को लेकर राजनैतिक उदासीनता. ध्वनिमत से जनप्रतिनिधियों के भत्ते बढ़ाने वाली विधानसभाएं और लोकसभाएं शिक्षा की बात आते ही राजकोषीय घाटे पर आख्यान देने लगती हैं. केंद्र और राज्य में बस फर्क इतना है कि एक खराब है, दूसरा ज़्यादा खराब है. केंद्र सरकार देश में एक आईआईटी पर हर साल करीब 500 करोड़ रुपये का खर्च करती है. इस पैसे में एक आईआईटी औसतन एक हज़ार इंजीनियर तैयार करता है. वहीं राज्यों के स्तर पर एक कॉलेज पर मुश्किल से 20-25 करोड़ रुपये खर्च किए जाते हैं. बावजूद इसके यहां से भी एक हज़ार इंजीनियर निकलते हैं.
बिना काम की डिग्री
इसका नतीजा ये हुआ कि छात्रों को डिग्री तो मिल रही थी लेकिन नौकरी पाने की दक्षता नहीं मिली. पढ़ाई के दम पर कितने बच्चे रोज़गार के लायक हैं, इस पर एस्पायरिंग माइंड्स नाम की संस्था नेशनल एम्पलॉयबिली रिपोर्ट देती है. इसके सर्वे के मुताबिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद 80 फीसदी बच्चे रोजगार के योग्य नहीं होते हैं. और बाज़ार में जितनी नौकरियां हैं उनकी तुलना में नौकरी चाहने वाले 300 गुना तक ज्यादा हैं. तो गुणवत्ता में गिरावट ही इंजीनियरिंग से मोह भंग होने की वजह है, या कुछ और भी कारण हैं, हमने इस फिल्ड के जानकारों से बात की. डोपामिन मीडिया के को-फाउंडर प्रशांत राज ने बताया -
"इंजीनियरिंग को हमेशा प्लेसमेंट से जोड़कर देखा गया है. इंजीनियरिंग के कॉलेजों में इजाफा इसलिए हुआ क्योंकि 2000 के आस-पास जब कंप्यूटर बूम आया तो सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री ने बहुत से लोगों को जगह दी. अब जॉब मार्केट अडवांस प्लेस की तरफ बढ़ गया है, जैसे- डेटा साइंस वगैरह. काफी दिन से लोग जो कोर इंजीनियरिंग पढ़ रहे थे, उनको अपनी पढ़ाई और काम के बीच कोई खास समावेश दिख नहीं रहा था. फिर इंजीनियरिंग महंगी शिक्षा है. ये सब एक नेगेटिव पहलू है कि क्यों इंजीनियरिंग का बूम घटा है. लेकिन एक ये भी है कि हो सकता है कि बच्चे जागरूक ज़्यादा हो रहे हों. "
अब जाकर सरकार इंजीनियरिंग की फील्ड को दुरुस्त करने में लगी है. इंजीनियरिंग एजुकेशन पर आईआईटी हैदराबाद के चेयरमैन बीवीआर मोहन रेड्डी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी. कमेटी ने AICTE को सिफारिशें दी थीं. कि 2020 के बाद नए इंजीनियरिंग इंस्टिट्यूट शुरू करने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिए. ये सुझाव मान लिया गया है. एक दशक पहले जो इंजीनियरिंग की शिक्षा पर चेक एंड बैलेंस होना चाहिए था, अब जाकर वो अमल में लाया जा रहा है. और ये सवाल कि जो बच्चे इंजीनियरिंग की पढ़ाई की तरफ जाना चाहते हैं, उनके लिए क्या सुझाव है. प्रशांत कहते हैं -
"इंजीनियरिंग का जो श्राप है, वही उसका वरदान है. इंजीनियरिंग आपको एक एनालिटिकल माइंड तो दे ही देता है. साथ ही अंडरग्रेजुएट्स को ये एक मौका भी दे देता है कि सोच सकें कि अगर आगे उन्हें इसी फील्ड में नहीं रहना तो करना क्या है."
तो कुल मिलाकर बात ये है कि क्वांटिटी बढ़ने से देश में इंजीनियरिंग की पढ़ाई का नाम ज़रूर खराब हुआ है. लेकिन अब इंजीनियरिंग की पढ़ाई उतने ही अच्छे मौके देती है. पिछले साल के एक सर्वे के मुताबिक देश में सबसे ज्यादा 31 फीसदी नौकरियां इंजीनियरिंग और तकनीक की फिल्ड में ही मिली हैं. बशर्ते आप इन मौकों को भुनाने के लिए तैयार हों. और ये तब होगा, जब आपके मम्मी-पापा अपनी सरकार के काम का आकलन इस तरह भी करेंगे कि उसने शिक्षा पर कैसा काम किया. इतिहास गवाह है कि वही मुल्क आगे बढ़ पाया है, जिसने अपने यहां बच्चों के लिए अच्छी गुणवत्ता वाली पढ़ाई का इंतज़ाम किया. और इस तरह किया, कि उसकी पहुंच सभी तक रही. क्या हम ये उम्मीद अपने यहां कर सकते हैं?