एक कविता रोज़ - नाज़िम हिकमत की कविता 'जीने के लिए मरना'
मरने के लिए जीना/ये कैसी हिमाक़त है

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विश्व कविता में आज आपको सुनाते हैं नाज़िम हिकमत की कविता. तुर्की कवि, नाटककार, निर्देशक और ना जाने क्या-क्या! नाज़िम - जिन्हें रोमांटिक रेवोल्यूशनरी भी कहा जाता था. जिन्होंने अपने जुदा राजनीतिक विचारों के चलते ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा जेल में या फिर देश-निकाला सहते हुए गुज़ारी. नाज़िम की कविताओं का पचास से ज़्यादा भाषाओं में अनुवाद हो चुका है. आज जो कविता हम आपको सुनाने जा रहे हैं, उसका अनुवाद तो खुद फैज़ अहमद फैज़ ने किया था. तो ऐसी क्या बात थी नाज़िम में कि ख़ुद फैज़ ने उनकी कविता का ट्रांसलेशन किया? आइए उनके बारे में जान लीजिए. 1902 में पैदा हुए नाज़िम के पिता टर्की की ऑटोमन सरकार के लिए काम करते थे. शुरुआती पढ़ाई-लिखाई इस्तान्बुल में हुई. फिर उन्होंने हाई स्कूल में फ्रेंच भाषा की पढ़ाई की. 1918 में जब वो ऑटोमन नेवल स्कूल से निकले तो दुनिया में पहला विश्वयुद्ध चल रहा था. पूरी दुनिया में राजनीतिक उठा-पटक अपने चरम पर थी. कुछ वक़्त के लिए नाज़िम की तैनाती एक ऑटोमन युद्धपोत पर नेवल अफसर के तौर पर की गयी. मगर लगातार तबीयत खराब रहने के चलते 1920 में उन्हें सेवाओं से मुक्त कर दिया गया. 1921 में अपने कुछ दोस्तों के साथ नाज़िम हिकमत टर्किश वॉर ऑफ़ इंडिपेंडेंस यानी आज़ादी की लड़ाई के गवाह बनने आनातोलिया गए. वहां से उन्होंने अंकारा का रुख किया, जहां इस आंदोलन का मुख्यालय था. अंकारा में वो मुस्तफा कमाल पाशा से मिले, जिन्होंने नाज़िम और उनके दोस्तों को एक ऐसी कविता लिखने के लिए कहा जिसे पढ़कर लोग उनके आंदोलन का हिस्सा बनने के लिए प्रेरित हों. कविता लिखी गयी. और इतनी सराही गयी कि नाज़िम को एक सैनिक की तरह लड़ने के लिए भेजने की जगह कॉलेज में पढ़ाने को कहा गया. हालांकि उन्होंने राजनीतिक कारणों से ज़्यादा दिन पढ़ाया नहीं. उसी साल 1917 में हुए रूसी आंदोलन के परिणाम देखने के लिए मॉस्को चले गए. यहीं पर नाज़िम ने अर्थशास्त्र और समाजशास्त्र की पढ़ाई की. लेनिन के विचारों से वह काफी प्रभावित हुए. जब नाज़िम टर्की लौटे तो वहां चल रहे अवां गार्द आंदोलन, जो कि कलाकारों का आंदोलन था, उससे जुड़ गए. उनकी कविताओं को लोर्का, फैज़ और नेरुदा जैसे कवियों के साथ पढ़ा जाने लगा. वो एक बड़ा साहित्यिक चेहरा बनकर उभरे. उनके राजनीतिक विचारों की वजह से 1938 से 1965 तक टर्की में उनकी कविताओं और नाटकों पर प्रतिबन्ध लगा रहा. 1950 में टर्किश सरकार के खिलाफ भूख हड़ताल करने की वजह से नाज़िम को जेल भेज दिया गया. जेल जाने और सरकार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने का सिलसिला चलता रहा. कोल्ड वॉर के दौरान नाज़िम के कम्युनिस्ट विचारों की वजह से उन्हें कई सालों तक लगातार तंग किया गया. 3 जून, 1963 को हार्ट अटैक के कारण मॉस्को में उनकी मौत हो गयी. इसी के साथ उस कवि का दैहिक अंत हो गया, जो अपनी कविताओं में कहते हैं, 'मरने के लिए जीना/ये कैसी हिमाक़त है'. आइए एक कविता रोज़ में पढ़ते हैं नाज़िम हिकमत की कविता 'जीने के लिए मरना' जिसका अनुवाद किया है फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने.
जीने के लिए मरना