पांच-छह साल की उम्र से गाय-बछड़ो के ग्वाले जाने लगा, तभी से बीड़ी शुरू कर दी थी. कोई पढ़ाई-लिखाई नहीं. सीधे कक्षा छह में भरती हुआ. पढ़ाई में बहुत कमजोर. उद्दंडताएं तमाम थीं. बीड़ी, चिलम, अतर से लेकर जितने अवगुण थे, सारे समाए हुए. कोई ऐसा उल्लेखनीय गुण नहीं था जिसकी चर्चा की जाए. बल्कि अवगुणों पर चर्चा करो तो एक-एक अवगुण की मैं परत-दर-परत खोल सकता हूं. चिलम कैसे बनाई जाती, उसमें अतर(चरस) कैसे भरी जाती है, ये बता सकता हूं आपको.कवि का नाम था गिरीश चन्द्र तिवारी. लेकिन पहाड़ में सब प्यार से 'गिर्दा' कहा करते. उत्तराखंड आंदोलन के दौरान गिर्दा और उनकी कविताएं पहाड़ के लोगों के मुंह पर चढ़ गईं. गिर्दा आंदोलन के मंच से होते हुए खेतों तक फ़ैल गए. खेतों में घास काटती औरते गिर्दा को गुनगुना रही होती, "हम लड़ते रेया भूली, हम लड़ते रुलो". [हम लड़ते रहे दीदी, हम लड़ते रहेंगे.] किसी कवि के जीवन का हासिल क्या है? क्या ये कि वो तमाम तरह के साहित्यिक पुरुस्कारों से नवाजा जाए. या फिर ये कि उसकी कविताएं कोर्स की किताबों में शामिल कर ली जाएं. या फिर कोई अध्येता उसकी कविताओं पर पीएचडी करे. इस सब कसौटियों पर गिर्दा एक असफल कवि हैं. लेकिन ऐसा बहुत ही कम होता होगा कि किसी कवि की अंतिम यात्रा में हजारों लोग उसकी कविता समवेत स्वर में गाएं. रोते जाएं और गाते जाएं.
ततुक नि लगा ऊदेग,घुनन मुनइ की नि टेक जैंता एक दिन ते आलो, ऊ दिन यो दुनि में... [इतना उदास मत हो, सर को घुटनों में मत रख. एक दिन निश्चित ही आएगा, जब इस दुनिया में...]आज इन्हीं गिर्दा का जन्मदिन है. पहाड़ के विनाश पर आप उनकी हिंदी में लिखी गई यह कविता पढ़िए.
बोल व्योपारी तब क्या होगा?