(इस प्रेम कहानी में लड़की पाकिस्तान में नहीं रहती है, लड़का गरीब नहीं है, दोनों के बीच जात-पात का भी कोई बंधन नहीं है. प्रेम त्रिकोण, चतुष्कोण भी नहीं है, क्योंकि अनंतकोण अगर हो जाएं, तो वृत्त बन जाता है. कहानी का कोई स्थूल खलनायक भी नहीं है और प्रेमिका के भाई जिम भी नहीं जाते हैं. ये सपाट सी, बोरिंग, वास्तविक-सामयिक प्रेम कहानी है. इसका सामयिक-पन 'टाइम-प्रूफ' नहीं है और वास्तव-पन एकाकी न होकर अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग टुकड़ों में जिया है. आप अपना टुकड़ा स्वेच्छा से चुन सकते हैं या बिना चुने भी रसास्वादन कर सकते हैं.)
एक कहानी रोज़ में आज की कहानी: 'लव आजकल'
वो मुझसे बोलती, ''ऑल मेन आर बास्टर्डस.'' और मैं, ''ऑल गर्ल्स आर बिचेज़.''

जब 15 मिनट का ब्रेक हुआ, तो वो मुझे माचिस का इंतज़ार करते हुए मिली, "एक्सक्यूज़ मी... लाइटर होगा आपके पास?"
उसने अपने कानों से आईफ़ोन का हेडफ़ोन हटाकर अपनी लो-वेस्ट जींस की जेब में खोंस लिया. मैंने अपनी जली हुई सिगरेट बिना कुछ बोले उसके हाथों में थमा दी. जलती हुई और जलने वाली का आलिंगन हुआ, फिर दोनों जल उठे. -लेखक का उद्देश्य कहानी को सेंसेशनल बनाने का (कतई नहीं) है!
बहरहाल, फिर सिगरेट मुझे वापिस कर दी गई. अभी उसने सिर हल्का नीचे करके बालों को हटाकर एक तरफ के कान में अपना हेड सेट डाला ही था कि मैं पूछ बैठा, ''व्हिच सॉन्ग?''
मेरे इस अप्रत्याशित से प्रश्न से वो मूर्त सी हो गई और सैंडिल से ऑफिस की ग्लेज़्ड धरती को एक निश्चित ताल पर थपथपाना भी रुक गया उसका, "हं आ..."
और फिर उसने हल्की सी (‘हल्की सी’ का अर्थ सॉफ़ेस्टिकेटेड लिया जाए) लॅक्मे या मे बी मेबिलिन मुस्कान (मे बी शी इज़ बॉर्न विथ इट) से उत्तर दिया, "एकॉन."
"लोनली?"
"न न, पैरेंट्स के साथ रहती हूं."
"नहीं मेरा मतलब गाना?"
"ओह... अच्छा…"
जो दूसरा वाला हेड सेट था, कॉटन-बड की तरह मेरे कान में खुद ही डाल दिया उसने. कितने धीरे से नजदीक आई थी वो. कॉन्टैक्ट लेंस के अंदर से झांकती उसकी आंखें किसी इनकमिंग मेल की तरह चमक रही थीं. उसके होंठ यूं लगते थे मानो मैक-डी का मेयोनिज़. सिर ऊपर करके पतला सा स्त्रियोचित धूम्र-निष्कासन उसके होठों को ऑरकुट के गुलाबी 'ओ' की तरह बनाता था.
'ब्लेम ऑन मी', किसी आंग्ल ट्रांस भजन की तरह, मेरे कानों में मोनो-इफेक्ट के साथ गूंज रहा था. 'अल्ट्रा माइल्ड' को आधी पीकर ही अपनी सैंडिल से बुझा दी उसने. शिष्टाचार की पराकाष्ठा तब हुई, जब उसने दूसरा हेड सेट भी "ओ नो! गॉट्टा गो!!!" कहकर अपने कानों से मेरे कानों में लगा दिया और रोज़-पिंक आई-फ़ोन मेरे हाथों में थमा दिया. खट-खट-खट की आवाज़ से धीरे-धीरे दौड़ते हुए बोली, "अगले ब्रेक में वापिस कर देना." -मेरा एकॉन स्टीरियो हो गया!
अगले ब्रेक में पहचान लूंगा उसे? वैसे उसके चेहरे में एक अजीब सी गेयता थी, इसलिए उसे याद करने में कोई दिक्कत नहीं हुई. तभी तो किसी अर्ध-विक्षिप्त दिमाग के खाली कोटरों में चलने वाले अंतर्नाद की तरह उसका सारा 'य मा ता र', 'फेलुन फाएलुन' और 'डा डम' चेतन के शब्दों से उतरकर संगीत की ध्वनियों में बदल गया. लेकिन किसी कलापक्ष के रसिक कवि के विरोधाभास अलंकार की तरह उसकी हंसी मुक्त छंद थी. -मैं अपना ब्रेक एक्सीड कर चुका था!
यदि प्रेम कहानियों का एलसीएम लिया जाए, तो 'प्रेम से पहले की तकरार' भी उत्तर से पहले आई 'कॉमन अविभाजित संख्याओं' में से एक होगी.
वो मुझसे बोलती, ''ऑल मेन आर बास्टर्डस.''
और मैं, ''ऑल गर्ल्स आर बिचेज़.''
बाद में ज्ञात हुआ कि ये वैचारिक-द्वंद्व तो महिला बिल को पास न करने को लेकर किए गए गुप्त-समर्थन का 'दर्शित-असमर्थन' सा है.
सच्ची... हमारे विचार बहुत मिलते थे...
एक दिन कहा भी उसने, "मुझे शादी के बंधन में बंधना पसंद नहीं है... और तुम भी तो यही चाहते हो. हमारे शादी न करने के बारे में विचार कितने मिलते हैं न... और, हमें ऐसा ही जीवनसाथी तो चाहिए जिसके साथ हमारे विचार मिलें. चलो हम शादी कर लें?"
हम लोगों की खूब बातें होने लगीं, -इन्टरनल मेल: ("ब्रेक?" "5 मिनट लव." "ओकी डोकी" "चलें अब?")
-SMS, क्लोज़्ड यूज़र ग्रुप, फेसबुक, वीकडेज़ के लंच ब्रेक, टी ब्रेक और वीकेंड में PVR, अक्षरधाम, सेंटर स्टेज मॉल. …उफ्फ! कई बातें करना आसान होता है, बताना कितना मुश्किल.
क्रेडिट कार्ड और एयरटेल के थर्ड पार्टी कलेक्शन डिपार्टमेंट के पत्र-व्यवहारों और फ़ोन से स्पष्ट था कि मैं प्रेम में था.
उसे भी सच में मुझसे प्रेम हो गया था. मेरी ही ख़ातिर तो उसने लॉरेल से बालों की स्ट्रेटनिंग कराई थी. उसकी लो-वेस्ट जींस भी उतनी लोवेस्ट नहीं रही थी अब. आखिर प्रेम ही तो स्त्री का प्रथम-कुफ़्र-फल होता है, जो उसे लज्जा का आभूषण प्रदान करता है.
जैसा कि उसने क्रमशः की बातों में बताया था, उसका फिलवक़्त कोई बॉयफ्रेंड नहीं था. दो उसे डिच कर चुके थे. पांच से उसने बाकी दो का प्रतिशोध लिया था.
और मैं उसकी ज़िंदगी में मोहन राकेश के 'अन्तराल' का कोष्ठक 'भर' था. कोष्ठक-भर नहीं.
भ्रष्टाचारों में तुम नेता, मुद्रा में तुम डॉलर (वैसे मेरे भीतर डॉलर और यूरो को लेकर ये कन्फ्यूजन था कि ज़्यादा पार्थ कौन है?) और आतंकवाद में तुम ही लश्कर-ए-तैय्यबा हो.गीता के विभूतियोग के 21वें से 42वें तक के सारे श्लोकों की उपमाएं उसके प्रेम और उसकी ख़ूबसूरती के ऊपर न्यौछावर करके ढेर सारी कविताएं लिख डाली थीं. कुछ उपमाएं अपनी मौलिक भी थी जैसे:
ये सिलसिला तब तक चलता रहा, जब तक कि IT डिपार्टमेंट से चेतावनी की प्रिंटेड हार्ड कॉपी नहीं आ गई. -ई-मेल के लिए तो इनबॉक्स फुल था न!
हमारे रयूमर्स 'टाइप्स ऑफ ऑर्गनाइजेशनल कम्युनिकेशन' वाली PPT के परफेक्ट उदाहरण बन गए थे. ऑफिस में हम ब्रह्म की तरह ओमिनी-प्रेजेंट थे.
कॉफ़ी वेंडिंग मशीन के इर्द-गिर्द, ट्रेनिंग रूम की पीछे वाली ऊंघती बेंचों में, हर केबिन के फ़ोन में 'ओके बाय' और 'अच्छा एक बात सुनी' के बीच.
हमसे कैफेटेरिया वेंडर भी खुश था. आजकल उसके कॉम्पलिमेंट्री सॉस के पाउच जो कम खर्च होते थे. फिर भी उसके स्नैक्स लोग चटखारे लेकर खाते थे.
लेकिन नियति का 'एक्स-बॉक्स' देखो. जैसा कि मुझ जैसे लेखक की कहानियों और मुझ जैसे जीव का होता है, इस कहानी का भी दुखांत हो गया. बावजूद इसके कि उसे लिव-इन रिलेशन बहुत पसंद थे (जैसा कि उसने कहा भी था कि एक ही तो रिलेशन है, जिसमें लिव यानी ज़िंदगी है) उसे अमृता प्रीतम प्रभावित नहीं कर पाईं, और...
और, हम दोनों ने शादी कर ली.
या अगर सलमान रुश्दी के शब्दों में कहें, ''नहीं नहीं... ये नहीं चलेगा. आई नीड टू बी मोर स्पेसिफिक - उसने मुझसे शादी कर ली!''
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"मेरे प्रेम को समझ नहीं पाई. छोटी जात की थी न. और ये छोटी जात किसी की सगी नहीं होती."
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