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मेट्रो में अंकल कपल को देख रहे थे, फिर मैंने उन्हें देख लिया

एक कहानी रोज़ में आज पढ़िए मनीष शांडिल्य की कहानी 'दिल्ली हम और मेट्रो'

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खैर ऑड-इवेन खत्म हुआ और हम मेट्रो की गेट के सामने खड़ी भीड़ को देख कर हिम्मत हार चुके थे. लग रहा था जैसे रोज़ की जंग में खुद को साबित करने का समय आ गया है. तीन मेट्रो गंवाने के बाद किसी तरह हिम्मत कर के आगे तक पहुंचे. लगा कि कुछ पा लिया है जिंदगी में. थोड़ी देर में अगली मेट्रो आई और हमने खुद की ऐसे ढीला छोड़ा, जैसे कोई पतंग को हवा के भरोसे छोड़ देता है. थोड़ी देर में हम अंदर कहीं अटके हुए थे और कुछ लोग अब अब भी बिना हार माने जद्दोज़हद कर रहे थे. एक खूबसूरत महिला ने ऐलान किया कि "अगला स्टेशन यमुना बैंक है" और थोड़ी देर में मेट्रो खाली हो गई.
हम अब भी पेपॉन के गानो में मगन थे. सामने एक प्रेमी युगल अपने प्रेम का प्रदर्शन कर रहा था और कुछ लोग उनको ऐसे देख रहे थे जैसे नंगी आंखों से वीडियो रिकॉर्डिंग कर रहे हों. एक बुज़ुर्ग छिपकर देख रहे थे और मैंने उनको देखते हुए देख लिया. किसी ने सच ही कहा है कि "कोई देखते हुए देख ले तो कैसा लगता है".
गौरतलब है की इस बीच मेरा भी ध्यान उस प्रेमी जोड़े पर जा रहा था. ठरकी मन.कंट्रोल होता भी कैसे? 18 साल तक बिहार में पली-बढ़ी आंखें दिल्ली के चार साल के माहौल में अभी भी फटे दूध की तरह थी जो की नीबू से मिलकर ना छाछ बनाता है और ना ही कॉफ़ी. कानों में पेपॉन कह रहा था कि "क्या आए हैं ढूंढने, क्या छोड़ आए हैं, कौन क्या कहना चाहे, कौन कह रहा है, शोर में सब गुम है..." पर ये क्या ? हम तो खुद को उस लड़के की जगह पर रख चुके थे. मन में बात आगे बढ़ चुकी थी, लग रहा था जैसे मेरे साथ भी कोई खूबसूरत सी लड़की मेरे गले में हाथ डाले हंसकर बात कर रही है. हम दिल्ली की मेट्रो में हज़ार लोगों की भीड़ में खड़े मुंगेरी लाल जैसे हसीन सपने देख रहे थे. दिल्ली तो हमारी हो गई थी मगर हम पूरी तरह से दिल्ली वाले नहीं हुए थे. यमुना बैंक से मेट्रो चलने वाली थी और हम इतनी देर में इतना कुछ सोच चुके थे. लगा कि जैसे थोड़ी देर के लिए हमने अपने फ्रस्ट्रेशन को फ्लश कर दिया था. और असल में बात यह थी कि "अच्छा लग रहा था." हमें लगता है की हर कोई सपने देखता है. बात अलग है की हर कोई उनको समय दे कर की-बोर्ड पर मेहनत नहीं करता. इसी बीच में फिर से उस बुज़ुर्ग आदमी की नज़र हमसे मिल गई. वो नज़रें बचा कर दूसरी तरफ देखने लगे, जैसे कि वो उनको देख ही नहीं रहे थे. (हमसे बचते कैसे? हम वो बाबू हैं जो उड़ती चिड़ियों के पर गिन लेते हैं). हमें लगा कि इस बार वो देखते रहेंगे मगर ठीक उल्टा हुआ और वो इधर-उधर नज़र घुमाने लगे.
अगर चाय में एक बार बिस्किट घुलकर गिर जाए तो कभी उसको दूसरी बिस्किट से नहीं उठाना चाहिए क्योंकि दूसरा बिस्किट भी उसी में घुल जाता है. और हम ऐसे मोड़ पे बेवक़ूफ़ दिखते हैं. अंत में ये होता है कि चाय के साथ पूरी बिस्किट का घोल पीना पड़ता है. लग रहा था जैसे अंकल ने इधर-उधर देख कर अब वो घोल बना दिया है.
ख़ैर फिर से हम अपनी सोच में आगे बढ़े और देखा कि अगले स्टेशन पे एक फ़ौज़ खड़ी है. जिसका कोई यूनिफ़ॉर्म नहीं है. हर आदमी अलग-अलग उम्र का है और अंदर आने के लिए अपनी शक्ति जुटा रहा है. भीड़ ज्यादा होने पर कुछ लोग दिक्कत में थे और कुछ लोग ज्यादा पास आ कर बहुत खुश थे. हमने खुद को अपनी जगह से दूर किसी कोने में खड़ा पाया. एक-दो बार सर उठाकर देखने की कोशिश भी की, उस कपल को, मगर कुछ गंजे सिर और डैनड्रफ वाले बाल ही दिखे. कुछ देर बाद नोएडा आ गया और फिर से भीड़ के आगे हमने खुद को छोड़ दिया और ऑटोमेटिक मोड से गेट से बाहर आ गए. हम स्टेशन से बाहर निकल कर "ऑफिस ऑफिस" खेलने के लिए तैयार थे और कानों में नुसरत साहब कह रहे थे. "मस्त मस्त मस्त, सारा जहान मस्त, दिन मस्त रात मस्त, सुबह मस्त शाम मस्त..." और सामने से वो अंकल मुस्कुराते हुए निकल रहे थे.

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