अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के ऊपर 13 जुलाई को जानलेवा हमला (Donald Trump Attack) हुआ. ट्रंप जब पेंसिलवेनिया में एक चुनावी रैली को संबोधित कर रहे थे, उस समय कई गोलियां चलीं. एक गोली ट्रंप के कान को छूते हुए निकल गई. ट्रंप बाल-बाल बच गए. हमले के तुरंत बाद सोशल मीडिया पर कई तरह की कॉन्सपिरेसी थियरीज चलने लगीं. किसी ने कहा कि ये हमला ट्रंप के राजनीतिक विरोधियों ने कराया है, कोई बोला कि ट्रंप ने खुद ही अपने ऊपर ये हमला कराया है, तो किसी ने कहा कि 'डीप स्टेट' (US Deep State) ने इस हमले को अंजाम दिया है.
Donald Trump पर हमला और 'दुश्मन' डीप स्टेट, क्या सच में अमेरिका में चलती है गोपनीय सरकार?
Donald Trump Attack: पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप पर हमले के बाद कई कॉन्सपिरेसी थियरीज चल रही हैं. इनमें एक थियरी डीप स्टेट से जुड़ी है. क्या है ये डीप स्टेट, जिसे ट्रंप अपना दुश्मन बताते रहे हैं?

तमाम कॉन्सपिरेसी थियरीज के बीच हमारी नजर पड़ी डीप स्टेट वाली थियरी पर. नजर इसलिए भी पड़ी क्योंकि ट्रंप खुद कई बार डीप स्टेट का जिक्र अपने दुश्मन के तौर पर कर चुके हैं. साल 2016 में जब ट्रंप पहली बार अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे, तब से लेकर हाल के चुनावी भाषणों तक. वो लगातार इस डीप स्टेट को खत्म करने की बात कहते आए हैं. इस साल मार्च में तो उन्होंने कहा था कि अगर वो राष्ट्रपति बनते हैं तो डीप स्टेट से लड़ने के लिए एक 10 सूत्रीय एजेंडे वाला कमीशन बनाएंगे. तो ऐसे में ये सवाल उठता है कि ये डीप स्टेट है क्या? ये है भी या सिर्फ कवि की कल्पना है? आगे हम विस्तार से सबकुछ जानने की कोशिश करेंगे.
क्या है ‘Deep State’?अमेरिका में डीप स्टेट पर चर्चा और बहस काफी पहले से हो रही है. हालांकि, ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद इस बहस ने तेजी पकड़ी. डीप स्टेट की थियरी में विश्वास रखने वाले कहते हैं कि ये चुने हुए प्रतिनिधियों के समानांतर चलने वाला एक सिस्टम है, जिसमें मिलिट्री, इंटेलिजेंस और ब्यूरोक्रेसी के लोग शामिल होते हैं. ये लोग सरकार से इतर अपनी नीतियां लागू करते हैं. फॉरेन पॉलिसी और दूसरी नीतियों को प्रभावित करते हैं. इन लोगों की कोई जवाबदेही नहीं होती.
वहीं कुछ लोग मानते हैं कि अमेरिका में डीप स्टेट जैसा कुछ नहीं है. मिलिट्री, इंटेलिजेंस और ब्यूरोक्रेसी के लोग अमेरिका के संविधान और कानून-व्यवस्था के मुताबिक ही काम करते हैं. क्योंकि कई बार चुनी हुई सरकारों को इन प्रशासनिक अधिकारियों और कर्मचारियों का काम पसंद नहीं आता, इसलिए वो आरोप लगाती हैं कि डीप स्टेट उन्हें काम नहीं करने दे रहा. ऐसे ही आरोप ट्रंप भी लगाते रहे हैं. वो कहते रहे हैं कि उदारवादी और वामपंथी विचारधारा के लोग प्रशासनिक पदों पर काबिज हैं और वो उनकी नीतियों को ढंग से लागू नहीं होने देते. यही आरोप उनका समर्थन करने वाला दक्षिणपंथी तबका भी लगाता है.
हालांकि, डीप स्टेट की थियरी की वकालत लिबरल और वामपंथी तबके के लोग भी करते रहे हैं. वियतनाम युद्ध के दौरान जब अलग-अलग मीडिया संस्थानों ने ऐसे कई दस्तावेज उजागर किए, जिनमें पता चला कि अमेरिकी सरकार जानबूझकर वियतनाम युद्ध को लंबा खींच रही है तब कहा गया कि डीप स्टेट ही ऐसा करवा रहा है और डिफेंस कॉन्ट्रैक्टर्स को फायदा पहुंचा रहा है.
‘9/11 का हमला और सर्विलांस स्टेट’9/11 आतंकी हमले के बाद इस थियरी ने बल पकड़ा. 2000 के दशक में अमेरिकी सेना की अलग-अलग देशों में चल रहे सशस्त्र संघर्षों में भागीदारी थी. लिबरल और वामपंथी खेमों की तरफ से एक बार फिर से कहा गया कि डीप स्टेट की ‘वार मशीन’ अमेरिकी सैनिकों को इन संघर्षों में झोंक रही है ताकि हथियार बनाने वालों को फायदा होता रहे. इन खेमों का मानना था कि इन संघर्षों में अमेरिका की हिस्सेदारी की बनती ही नहीं है. ऐसे में डीप स्टेट अमेरिका की विदेश नीति निर्धारित कर रहा है और चुनी हुई सरकार से इतर अपने मन की चला रहा है.
ओबामा काल में यह थियरी अलग-अलग देशों में अमेरिका द्वारा किए जा रहे ड्रोन हमलों पर केंद्रित हो गई. कहा गया कि इन हमलों की कोई जरूरत नहीं है, लेकिन इसके बाद भी इन हमलों को अंजाम दिया जा रहा है और ऐसा डीप स्टेट की तरफ से किया जा रहा है. फिर 2013 में एक अमेरिकी सुरक्षा एजेंसी के पूर्व कॉन्ट्रैक्टर एडवर्ड स्नोडेन की एंट्री हुई. स्नोडेन ने आरोप लगाए कि डीप स्टेट के लोग बहुत ताकतवर हैं और ये सर्विलांस को भी अंजाम देते आए हैं. बकौल स्नोडेन, अमेरिका में दो सरकारें चलती हैं. एक चुनी हुई सरकार और दूसरी, डीप स्टेट की छिपी हुई सरकार.
इसी दौरान कानून के एक प्रोफेसर माइकल जे ग्लेनन की एक किताब आई. ‘नेशनल सिक्योरिटी एंड डबल गवर्नमेंट’ नाम से. इसमें बताया गया कि ओबामा ने अपने राष्ट्रपति चुनाव अभियान के दौरान बुश काल की जिन सर्विलांस नीतियों के खिलाफ मोर्चा खोला था, बाद में राष्ट्रपति बनने के बाद इन्हीं नीतियों को जारी रखा. ग्लेनन का इशारा साफ था कि ओबामा के चाहने के बाद भी डीप स्टेट ने सर्विलांस की पुरानी नीतियों को खत्म नहीं होने दिया. ये भी कि सरकार चाहे किसी की भी हो, डीप स्टेट अपनी चला ही लेता है.

अमेरिकी राज्य के तीन प्रमुख अंग हैं. चुने हुए नेता यानी विधायिका. मेरिट पर आए नौकरशाह यानी कार्यपालिका और नियुक्त किए गए जज यानी न्यायपालिका. इन तीनों अंगों के बीच शक्ति का बंटवारा किया गया है ताकि संविधान अपनी गरिमा के साथ लागू हो. राष्ट्रपति बनने के बाद ट्रंप ने कार्यपालिका के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. कहा कि ये नौकरशाह डीप स्टेट का हिस्सा हैं. ट्रंप ने कहा कि वो इन नौकरशाहों को निकाल देंगे और उनकी जगह राजनीतिक नियुक्तियां करेंगे.
ट्रंप के नेतृत्व के दौरान इस थियरी को लेकर अलग-अलग खेमों का हृदय परिवर्तन भी देखने को मिलता है. जो लिबरल और वामपंथी खेमा पहले डीप स्टेट की बात कर रहा थे, वो कहने लगा कि अमेरिका में डीप स्टेट जैसा कुछ नहीं है. इधर, जो खेमा ट्रंप के आने से पहले डीप स्टेट की बात नकारता था, उसे अचानक से अमेरिका में एक डीप स्टेट नजर आने लगा. ये खेमा कहने लगा कि डीप स्टेट राष्ट्रपति ट्रंप की नीतियों को लागू नहीं होने दे रहा है. मसलन, राष्ट्रपति ट्रंप विदेशी जमीन पर अमेरिकी सैनिकों को भेजने के खिलाफ हैं इसलिए डीप स्टेट के लोग उनकी आलोचना करते हैं और उन्हें गद्दी से हटाना चाहते हैं. ट्रंप ने खुद कई मौकों पर इन बातों को दोहराया.
ये भी पढ़ें- उस चार्ट पर क्या लिखा था जिसकी तरफ ऐन वक्त मुंह मोड़ कर डॉनल्ड ट्रंप ने अपनी जान बचा ली?
डीप स्टेट पर बहसइसी दौरान ABC न्यूज और वाशिंगटन पोस्ट ने एक सर्वे किया. इस सर्वे में पता चला कि लगभग आधे अमेरिकी डीप स्टेट के वजूद में विश्वास रखते हैं. इस सर्वे के आने के बाद से अमेरिका के अकादमिक तबकों और मीडिया में एक बार फिर से डीप स्टेट पर बहस तेज हो गई. मसलन, मशहूर पॉलिटिकल साइंटिस्ट फ्रांसिस फुकुयामा का वॉल स्ट्रीट जर्नल में एक लेख छपा. इसमें उन्होंने बताया कि डीप स्टेट की बातें बेमानी हैं.
फुकुयामा ने कहा कि ब्यूरोक्रेसी के जिन लोगों पर डीप स्टेट होने का आरोप लगाया जा रहा है, दरअसल वो कानून की हदों में रहकर काम करते हैं और क्योंकि राष्ट्रपति ट्रंप की कई नीतियों अमेरिकी संविधान के विरोध में हैं, ऐसे में ब्यूरोक्रेसी के लोग अपने स्तर पर इन नीतियों का विरोध करते हैं. फुकुयामा ने कहा कि इन ब्यूरोक्रेट्स के बिना अमेरिका चल नहीं पाएगा. उन्होंने कहा कि इन ब्यूरोक्रेट्स की वफादारी किसी एक राजनीतिक पार्टी या सरकार की तरफ ना होकर, अमेरिकी संविधान की तरफ है.
फुकुयामा ने अमेरिका की कई संस्थाओं का उदाहरण दिया. मसलन, NASA, NOAA और CDC. बकौल फुकुयामा, इन संस्थाओं को अमेरिका के ब्यूरोक्रेट्स ही चलाते हैं और ये पूरी तरह निष्पक्ष होकर काम करती हैं. फुकुयामा ने कहा कि इन जैसी संस्थाओं ने लोगों का जीवन आसान बनाया है और पब्लिक सर्विस के क्षेत्र में अद्भुत योगदान दिया है.
इसी तरह का पक्ष रखने वाले लोगों ने कहा कि अगर ट्रंप मेरिट के आधार पर चुने गए ब्यूरोक्रेट्स को हटाकर अपनी पसंद के लोगों को उनकी जगह रखेंगे तो इसके बहुत सारे नुकसान होंगे. पहला तो यही कि इससे पूरी ब्यूरोक्रेसी अक्षम हो जाएगी और दूसरा ये कि राजनीतिक नियुक्तियों के चलते सरकार अपने राजनीतिक विपक्षियों के खिलाफ ब्यूरोक्रेसी का इस्तेमाल कर सकती है. कहा गया कि अभी संविधान के तहत ब्यूरोक्रेट्स को एक इम्युनिटी मिली हुई है. अगर ये इम्युनिटी हट जाती है, तब अगर कोई प्रशासनिक अधिकारी नेताओं से कहता है कि उन्होंने जिस पॉलिसी का प्रस्ताव दिया है वो गैर-संवैधानिक है तो उसकी नौकरी जा सकती है. ऐसे ही राजनीतिक नियुक्तियां होने से चेक एंड बैलेंस वाला सिस्टम खत्म हो जाएगा. अमेरिकी संविधान ने जो शक्ति बंटवारा किया है, उसका संतुलन बिगड़ जाएगा.

इधर, ट्रंप के खिलाफ काम कर रहे डीप स्टेट की थियरी का समर्थन करने वालों ने इसी शक्ति संतुलन वाली व्यवस्था का जिक्र करते हुए लेख लिखे. अमेरिका के पूर्व गृह मंत्री डेविड बर्नहाट ने लिखा कि शक्ति संतुलन की बात सैद्धांतिक तौर पर तो अच्छी लगती है लेकिन असल में ऐसा नहीं है. उन्होंने लिखा कि पूरी शक्ति ब्यूरोक्रेट्स के पास इकट्ठा हो गई है और ये अपने मन से फैसले ले रहे हैं. उन्होंने लिखा कि अपने करियर के दौरान उन्होंने देखा कि ब्यूरोक्रेट्स अपने व्यक्तिगत विचारों के आधार पर फैसले लेते हैं और उन्हें चुनी हुई सरकार की नीतियों से कोई मतलब नहीं होता, ना ही उन्हें कानून और संविधान की कोई चिंता होती है.
इसी पक्ष के लोगों ने ये भी लिखा कि ब्यूरोक्रेसी में इस समय लिबरल और वामपंथी रुझान रखने वालों अधिकारियों और कर्मचारियों का प्रभुत्व है. यहां पर दक्षिणपंथी रुझान रखने वाले लोग भी हैं, लेकिन उनकी संख्या और प्रभाव बहुत कम है. ऐसे में ब्यूरोक्रेसी डॉनल्ड ट्रंप के खिलाफ काम करती आई है. जब वो सत्ता में थे, तब भी और अब जब वो राष्ट्रपति पद की दौड़ में शामिल हैं, तब भी.
साल 2020 में तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने एक आदेश के तहत वरिष्ठ ब्यूरोक्रेट्स को मिलने वाली इम्युनिटी को खत्म कर दिया था. इस तरह से इन ब्यूरोक्रेट्स को एट विल एंप्लॉई बना दिया गया था. मतलब, सरकार कभी भी उन्हें उनके पद से हटा सकती थी. बाद में जो बाइडन ने अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के दो दिन बाद ही इस आदेश को पलट दिया था. इधर, एक बार फिर से ट्रंप ने कहा कि राष्ट्रपति बनते ही वो अपने पुराने आदेश को दोबारा से लागू कर देंगे. इसे प्रोजेक्ट 2025 का नाम दिया गया है.
वीडियो: डोनाल्ड ट्रंप पर गोली चलाने वाला 20 साल का लड़का किसका सपोर्टर निकला? FBI ने क्या बताया?