इस वाक्य में ‘अलग’ को बहुत सकारात्मक अर्थ में लेने की जरूरत नहीं है, क्योंकि इतना खाली-खाली और सूना-सूना ‘भारंगम’ कभी नहीं गुजरा है, जितना इस दफा गुजर रहा है.
चौथे रोज़ शनिवार होने के बावजूद अच्छी और हिंदी प्रस्तुतियों में भी सीटें खाली रहीं. थिएटरप्रेमी इन खाली सीटों की तस्वीरें फेसबुक पर साझा करते रहे.
इस साझे में उनकी वह निराशा साफ दिखती है जिसमें रंग महोत्सव में वह रंग नदारद है जो आम दर्शकों के समूह से तैयार होता है. यह समूह अगर इस भारंगम में तैयार नहीं हो पा रहा तो इसकी वजह महंगी टिकट्स हैं.
‘कमानी’ और ‘अभिमंच’ जैसे सभागारों में ‘भगवदज्जुकीयम्’ और ‘आधा चांद’ जैसे हिंदी के अच्छे नाटकों को भी दर्शक नहीं मिले. जबकि ऐसे सभागार ऐसे नाटकों में भारंगम तो छोड़िए आम दिनों में भी खाली नहीं रहते.
बहरहाल, बात करें ‘भगवदज्जुकीयम्’ की तो यह संस्कृत के प्राचीनतम प्रहसनों में से एक है. इस नाटक को सातवीं सदी के आस-पास का माना जाता है. यह वह दौर था जब भारत में धर्म और दर्शन के इलाके में तरह-तरह के भटकाव आ रहे थे. बोधायन ने अपने इस नाटक में इस भटकाव पर ही प्रहार किया है.

नाटक भगवदज्जुकीयम् का एक दृश्य
‘भगवदज्जुकीयम्’ एक गजब की कॉमिक सेंस से भरा हुआ नाटक होने के साथ-साथ गंभीर दार्शनिक प्रश्नों को भी अपने में समाए हुए है.
इस प्रस्तुति में संस्कृत नाटकों की शास्त्रीय शैली के साथ लोक शैली और आधुनिक रंगमंच के तत्व भी नजर आते हैं.
‘भरतनाट्यम्’ की गतियों और मुद्राओं और शास्त्रीय संगीत के प्रयोग से नाटक में हास्य रचने की चुनौती को निर्देशक ने बखूबी स्वीकार किया है.
चौथे रोज़ की अन्य प्रस्तुतियों में शुभदीप गुहा की ‘लॉन्ग मार्च’, अजित दास ‘भेटी’ और रूस से आई व्लादिमीर बाशर की ‘चेखव चाइका’ और त्रिपुरारि शर्मा की ‘आधा चांद’ शामिल रहीं.
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के परिसर में बने ‘मुक्ताकाश’ में मंचित ‘चेखव चाइका’ तीन घंटे लंबा नाटक था. इस अवधि में 15-15 मिनट के दो मध्यांतर भी शामिल थे. दूसरी भाषाओँ के नाटकों में सबटाइटल की व्यवस्था न होने की वजह से इस नाटक को समझने के लिए एक तीन पेज की भूमिका भी बांटी गई.
चौथे रोज़ की अंतिम प्रस्तुति त्रिपुरारि शर्मा निर्देशित ‘आधा चांद’ रही.
'आधा चांद' अधूरे सपनों का आख्यान है. युवा पीढ़ी के विचलन और उनके व्यवस्था के अनुरूप होते जाने की परतें यह प्रस्तुति बहुत कलात्मक ढंग से खोलती है.
‘ईमानदारी गरीब आदमी का स्थाई गुण नहीं बनी रह सकती, ठीक ऐसे ही जैसे चांद भी हमेशा एक-सा नहीं है.’
इस संदेश के साथ यह प्रस्तुति खत्म होती है और भारंगम का चौथा दिन भी.
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