The Lallantop

रूस के जिस शहर पर चीनी दावा कर रहे हैं, क्या है उसकी कहानी?

जमीन हड़पने पर रूस ने क्या हाल किया था चीन का?

post-main-image
प्रिर्मोस्की क्राइ प्रांत की राजधानी व्लेदीवस्तोख़ (स्क्रीनशॉट: गूगल मैप्स)
ये बात है 60 के दशक की. तब सोवियत संघ के प्रीमियर थे निकिता ख़्रुशोव. चीन के सर्वेसर्वा थे माओ. कुछ समय पहले तक अच्छे दोस्त रहे सोवियत और चीन के रिश्ते अच्छे नहीं रहे थे.
माओ की नज़र थी सोवियत के इलाकों पर. इनमें से कई इलाके ऐसे थे, जिन्हें कभी रूसी साम्राज्य ने चीन से हासिल किया था. कुछ इलाके ऐसे भी थे, जो कभी चीन के नहीं रहे. माओ ये सब हासिल करना चाहते थे. उन्होंने पहले मछली पकड़ने के बहाने अपने लोगों को इन इलाकों में भेजना शुरू किया. फिर चीनी सेना की छोटी-छोटी टीमों को पेट्रोलिंग के लिए वहां भेजने लगे. इसके बाद कहा, ये इलाके तो हमारे ही हैं.
कैसे बना युद्ध का माहौल? निकिता ख़्रुशोव युद्ध नहीं चाहते थे. लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं था कि वो माओ को उनकी मांगी ज़मीन दे दें. ऐसे में उन्होंने माओ को सिग्नल दिया. सिग्नल ये कि अगर वो अपनी हरकतों से बाज नहीं आए, तो सोवियत न्यूक्लियर हथियारों का इस्तेमाल कर सकता है. माओ को लगा, ये कोरी धमकियां हैं. उन्होंने अपने टोही दलों को सोवियत इलाकों में भेजना जारी रखा.
इसी वजह से फरवरी 1967 में दोनों पक्षों के बीच सीमा पर गोलीबारी भी हुई. इसके बाद सोवियत ने चीन से सटी सीमा के पास सेना की तैनाती बढ़ा दी. चीन पर धमकियों का असर हो, इसके लिए एक और चीज भी की सोवियत ने. उसने अपने फील्ड कमांडर्स को थमाया स्केलबोर्ड मिसाइल्स. ये एक न्यूक्लियर सिस्टम था. सोवियत ने अपने कमांडरों से कहा कि अगर हालात बेकाबू हो जाएं, तभी इनका इस्तेमाल करना. मगर माओ की पेट्रोलिंग टीम्स आती रहीं. 1968 के साल सोवियत और चीन के बीच इस इलाके में एक हज़ार से ज़्यादा झड़पें हुईं. लगातार युद्ध का माहौल बनता रहा.
Soviet China 1969 War
1969 में भिड़ गए चीन और सोवियत के सैनिक (फोटो: एएफपी)

शुरुआत की माओ की सेना ने इसी बैकग्राउंड में आई 2 मार्च, 1969 की तारीख़. चीन के करीब 300 सैनिकों ने सोवियत की एक सीमा चौकी पर हमला किया. ये सीमा चौकी थी, ज़ेनबाओ आइलैंड पर. ये द्वीप था रूस की उसूरी नदी में. 1860 में हुई एक संधि में इस नदी को सोवियत और चीन के बीच सीमा रेखा माना गया था. लेकिन माओ के नए दावे इस पुरानी संधि को नहीं मानते थे. अपने दावों को मनवाने के लिए ही माओ छोटी-मोटी झड़पें करवा रहे थे. और इसी बैकग्राउंड में हुआ ये हमला. जिसमें चीनी टुकड़ी ने घात लगाकर सोवियत के 31 सैनिकों को मार डाला. सोवियत ने कहा, ये सब पेइचिंग के इशारे पर हुआ है.
युद्ध सुलगाया, फिर बंकर में छुप गए इसके बाद सोवियत ने भी पूरी आक्रामकता दिखाई. उसने सीमा के पास चीनी ठिकानों पर बम गिराए. मगर सोवियत इतने पर चुप बैठने को तैयार नहीं था. उसने न्यूक्लियर मिसाइलें तान दीं चीन की तरफ. अपने यूरोपीय दोस्तों से भी कह दिया कि वो न्यूक्लियर हमला करके चीनी ख़तरे को हमेशा-हमेशा के लिए ख़त्म करने की सोच रहे हैं. माओ फुल-स्केल युद्ध के लिए न तो तैयार थे. न ही उनके पास सोवियत की सैन्य क्षमताओं का कोई जवाब था. ऐसे में माओ समेत समूची टॉप चाइनीज़ लीडरशिप ने डर के मारे पेइचिंग छोड़ दिया. वो बंकरों में छुप गए.
Mao Zedong
माओ त्से-तुंग (फोटो: एएफपी)

सोवियत ने अमेरिका से क्या कहा? सोवियत इतना गंभीर था न्यूक्लियर हमले के लिए कि अगस्त 1969 में उसने वॉशिंगटन को भी इसकी ख़बर भेजी. कहा, आप बीच में मत पड़िएगा. अमेरिका किसी कीमत पर ये हमला रोकना चाहता था. उसने पहले सोवियत पर पब्लिक प्रेशर बनाने की कोशिश की. इसके लिए सोवियत की भेजी रिपोर्ट मीडिया में लीक कर दी गई. इसी लीक के आधार पर 28 अगस्त, 1969 को वॉशिंगटन पोस्ट में छपी एक ख़बर. इसमें लिखा था कि सोवियत हज़ारों टन न्यूक्लियर मटीरियल चीन पर दागने को तैयार है. चीन में हड़कंप मच गया. नागरिकों से बंकर खोदने और उनमें छुप जाने को कहा गया.
किसने बचाया चीन को? सोवियत का हमला लगभग तय था. मगर ऐन समय में अमेरिका की रिचर्ड निक्सन सरकार ने दिया अल्टीमेटम. उसने कहा, कि अगर सोवियत ने चीन पर हमला किया, तो अमेरिका चुप नहीं बैठेगा. वो सोवियत के शहरों पर जवाबी कार्रवाई करेगा. अमेरिका सच में ऐसा करता, इस बात पर जानकारों को शक़ है. लेकिन सोवियत कोई जोखिम नहीं लेना चाहता था. इसीलिए उसने चीन पर न्यूक्लियर हमला रोक दिया.
Nikita Khrushchev
उस वक्त के सोवियत संघ के प्रीमियर थे निकिता ख़्रुशोव. (फोटो: एएफपी)

अमेरिका ने पुरानी खुन्नस में चीन को बचाया? जानकार कहते हैं, अमेरिका ने ये हमला इसलिए नहीं रुकवाया कि उसे चीन से मुहब्बत हो. ये हमला रुकवाने के पीछे उसकी एक पुरानी खुन्नस थी. खुन्नस जुलाई 1963 की. क्या हुआ था 1963 में? इस वक़्त अमेरिका के पास पक्की रिपोर्ट थी. ये कि एकाध साल में चीन अपना पहला परमाणु बम बना लेगा. चीन के पास न्यूक्लियर पावर आई, तो उससे पूरा दक्षिणपूर्वी एशिया ख़तरे में आ जाएगा. ऐसे में अमेरिका ने सोवियत के आगे रखा एक प्रस्ताव. प्रस्ताव ये कि इससे पहले कि चीन न्यूक्लियर बम बनाए, हम दोनों मिलकर उसके परमाणु ठिकानों को उड़ा देते हैं. मगर रूस इस प्रस्ताव से सहमत नहीं था. उसने इनकार कर दिया. और शायद इसी इनकार के जवाब में अमेरिका ने 1969 में सोवियत को सपोर्ट नहीं किया.
जो भी हो, अमेरिकी बीचबचाव से चीन पर आया संकट टल गया. अक्टूबर 1969 में सोवियत और चीन के बीच वार्ता शुरू हुई. और फिर करीब चार दशक बाद आया साल 2008. इस साल चीन और रूस के बीच सीमा विवाद पर फाइनल समझौता हुआ.
Richard Nixon
उस वक्त के अमेरिका के राष्ट्रपति थे रिचर्ड निक्सन . (फोटो: एएफपी)

इतनी पुरानी बात आज क्यों बता रहे हैं? आप कहेंगे, ये दशकों पुरानी बात आज कहां से उठा लाए हम? अब तो दोनों ने सीमा का झगड़ा भी सलटा लिया. दोनों में दोस्ती भी हो गई है. फिर ये झगड़ा आज क्यों सुना रहे हैं हम आपको? इसलिए सुना रहे हैं कि चीन में ताज़ा-ताज़ा कुछ पक रहा है. भारत, ताइवान, जापान और साउथ चाइना सी के पड़ोसियों से युद्ध मोल लेने में लगे चीन के अंदर रूस पर भी बातें तेज़ हो गई हैं. वो रूस के एक बड़े अहम इलाके को चीन में मिलाने की मांग कर रहे हैं. मांग करने वालों में चीन की सरकारी मीडिया भी है. और उसके बड़े अधिकारी भी. और इन सबका संबंध उसी इलाके से है, जहां 1969 में सोवियत-चीन के बीच झड़प हुई थी.
क्या है ये मामला? ये मामला जुड़ा है, रूस के सुदूर पूर्वी हिस्से में बसे एक प्रांत से. इसका नाम है- प्रिर्मोस्की क्राइ. इस प्रिर्मोस्की क्राइ की राजधानी है- व्लेदीवस्तोख़. व्लेदीवस्तोख़ पोर्ट सिटी है. ये बसा है 'सी ऑफ़ जापान' के किनारे. जिस जगह पर रूस, नॉर्थ कोरिया और चीन की सीमाएं मिलती हैं, उसके पास. इसके पश्चिम की तरफ सरहद पार करेंगे, तो आप चीन के हेलोन्गज़ांग प्रांत में पहुंच जाएंगे. व्लेदीवस्तोख़ की लोकेशन बड़ी अहम है. इसके पूरब की दिशा में जापान और नॉर्थ पसिफ़िक ओशन पार करके आप पहुंच जाएंगे कनाडा, अमेरिका, मैक्सिको और आगे लैटिन अमेरिका तक.
दो-दो नाम... रूसी भाषा में 'व्लेदीवस्तोख़' का मतलब होता है- पूरब का राजा. या, पूरब का अधिपति. मगर चीन के लोग इसे इस नाम से नहीं पुकारते. वो इसे कहते हैं- हाइशेनवाई. ये अलग नाम क्यों है चीन में? इसलिए कि ये कभी चीन की ज़मीन थी. तब, जब चीन में चिंग साम्राज्य का शासन था. ये इलाका तब मंचूरिया का हिस्सा हुआ करता था. मगर ये उनके हाथ से निकल गया. इसके पीछे जिम्मेदार थी 1856 से 1860 तक चले दूसरे अफ़ीम युद्ध में चिंग साम्राज्य की हार. हार के कारण वो कमज़ोर हो गए. इसका फ़ायदा उठाया रूस के ज़ार ने. उसने 1860 में इस हिस्से को रूसी साम्राज्य में मिला लिया. जुलाई 1860 में रूस ने यहां नए शहर की नींव रखी. इस शहर का नाम रखा- व्लेदीवस्तोख़.
Vladivostok Russia
रूस का व्लेदीवस्तोख़ और चीन के लिए हाइशेनवाई (स्क्रीनशॉट: गूगल मैप्स)

हंगामा है क्यों बरपा? रूस हर साल इस दिन का जश्न मनाता है. इस बरस इस जश्न की 160वीं सालगिरह थी. इस मौके पर चीन स्थित रूसी दूतावास ने भी 2 जुलाई को एक छोटी सी पार्टी की. इस पार्टी का एक विडियो उन्होंने चीन की सोशल मीडिया साइट वाइबू पर डाला. फिर क्या था. इस विडियो पर चीन के लोगों ने रूस को घेर लिया. उसे ख़ूब खरी-खोटी सुनाई. लोगों ने कहा, ये तो हमारी ज़मीन है. तुमने हमने छीन ली थी और आज नहीं तो कल, हम इसे वापस लेकर रहेंगे. 'साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट' ने अपनी एक ख़बर में ऐसे ही एक वाइबू यूज़र की प्रतिक्रिया कुछ इस तरह बताई है-
अभी तो हम इसे केवल सहन कर सकते हैं. मगर चीन के नागरिक इसे कभी भूलेंगे नहीं. हमारी आने वाली पीढ़ियां भी इसे याद रखेंगी.
एक अन्य यूज़र ने लिखा-
हमें भरोसा रखना होगा कि हमारे पूर्वजों की ये ज़मीन भविष्य में एक दिन हमारे पास ज़रूर वापस आएगी.
Scmp Report Chinese People On Weibo
चीन के लोगों का रिएक्शन (स्क्रीनशॉट: साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट)

मिले सुर मेरा तुम्हारा... रूसी दूतावास के विडियो पर तल्ख़ प्रतिक्रिया देने वालों में बस चीन के आम लोग नहीं थे. इनमें डिप्लोमैट्स और मीडियाकर्मी भी शामिल थे. मसलन, सरकारी न्यूज़ चैनल CGTN के पत्रकार शेन शिवेई. उन्होंने ट्विटर पर रूसी दूतावास की पोस्ट का स्क्रीनशॉट डालते हुए लिखा-
चीन स्थित रूसी दूतावास का ये ट्वीट वाइबो पर लोगों को पसंद नहीं आया. व्लेदीवस्तोख़ का इतिहास 1860 से शुरू होता है. जब रूस ने वहां मिलिटरी हार्बर बनाया. मगर इससे पहले इस शहर का नाम था हाइशेनवाई था और ये चीन की ज़मीन थी. पेइचिंग के साथ ग़ैरबराबरी वाली संधि करके रूस ने इसे अपने भूभाग में मिलाया था.
पत्रकार शेन शिवेई ने इसी पर एक और ट्वीट किया और उसमें लिखा-
ये ट्वीट 1860 के हमारे उन अपमानित दिनों की याद दिलाता है.
शेन शिवेई के अलावा चीनी डिप्लोमैट जांग हेकिंग की भी प्रतिक्रिया आई. उन्होंने कहा-
ये वही शहर है न, जो अतीत में हमारा हाइशेनवाई हुआ करता था.
व्लेदीवस्तोख़ पर चीन के आम लोगों का ये रिएक्शन कोई नई बात नहीं है. वो अक़्सर ये मुद्दा उठाते रहते हैं. ये उनके लिए राष्ट्रवाद का मुद्दा है. व्लेदीवस्तोख़ जाने वाले चीनी पर्यटक भी अक्सर उस शहर को देखकर ठंडी सांसें लेते हैं. कहते हैं, ये हमारा है और हम इसे लेकर रहेंगे.
Shen Shiwei Tweet
सरकारी न्यूज़ चैनल CGTN के पत्रकार शेन शिवेईन का ट्वीट देखिए (स्क्रीनशॉट: ट्विटर)

चीन की सरकार क्या कहती है? ये तो थी आम लोगों, सरकारी पत्रकारों और अधिकारियों की प्रतिक्रिया. तो क्या चीन भी व्लेदीवस्तोख़ का ज़िक्र उठाता है? नहीं. चीनी सरकार ऊपर-ऊपर से इस मसले पर कुछ नहीं बोलती. उनकी चुप्पी का कारण है 2008 में हुआ सीमा समझौता. इस समझौते के लिए 1991 से 2008 तक रूस और चीन के बीच कई स्तर की वार्ता हुई. इन वार्ताओं में उसूरी और अमूर नदियों में बसे कुछ द्वीपों का मामला उठाया चीन ने. इनमें से कुछ द्वीप वही थे, जहां 60 के दशक में दोनों देशों ने लड़ाई की थी. मगर आधिकारिक बातचीत में व्लेदीवस्तोख़ का मसला चीन ने कभी नहीं उठाया. जबकि 60 के दशक में माओ ने इस शहर पर भी दावा किया था. 10 जुलाई, 1964 को जापान के साप्ताहिक अख़बार 'शेकाई शुहो' को एक इंटरव्यू देते हुए माओ ने कहा था-
करीब 100 बरस पहले, बायकाल झील के पूरब का समूचा इलाका हमारा था. इन इलाकों में ख़ाबरोव्सक, कमचातका प्रायद्वीप और व्लेदीवस्तोख़ भी शामिल हैं. हमने सोवियत संघ के साथ अभी ये मसला सेटल नहीं किया है.
किसकी ज़मीन? इन दावों से इतर वार्ता की टेबल पर चीन ने व्लेदीवस्तोख़ को अपना नहीं बताया. अब दोनों देशों के बीच आधिकारिक सीमा तय हो गई है. राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय और द्विपक्षीय, तीनों स्तरों पर ही व्लेदीवस्तोख़ रूस का है. मगर इसके बावजूद चीन में ये मसला आए दिन उठता रहता है. सरकार ख़ुद तो नहीं कहती, मगर उसका तंत्र इस मुद्दे को ज़िंदा रखता है. मीडिया के लोग इसपर राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काते रहते हैं.
रूस के लोग क्या कहते हैं? रूस के लोग नहीं मानते कि व्लेदीवस्तोख़ कभी चीन का था. उनका कहना है कि चीन ऐवें ही दावा करता है. रूसियों के मुताबिक, चीन के लोग बस मछलियां पकड़ने आते थे व्लेदीवस्तोख़. रूस के लोग ये कहते तो हैं, मगर चीनी आक्रामकता के कारण आशंकित भी रहते हैं. उन्हें ये तक लगता है कि एक दिन चीन रूस के सुदूर पूर्वी इलाके पर हमला भी कर सकता है.
2016 में छपी न्यू यॉर्क टाइम्स की एक रिपोर्ट में हमने रूस के सरकारी न्यूज़ चैनल पर दिखाए गए एक प्रोग्राम के बारे में पढ़ा. इसमें रूस के जाने-माने फिल्म डायरेक्टर निकिता मिख़ालकोव का ज़िक्र था. निकिता ने एक टीवी प्रोग्राम में एक स्क्रिप्ट की बात कही. इस स्क्रिप्ट की कहानी ये थी कि चीनी सेना ने प्रिर्मोस्की क्राइ इलाके पर हमला कर दिया है. उन्होंने व्लेदीवस्तोख़ समेत कई शहरों पर कब्ज़ा कर लिया है. मिख़ालकोव ने ये स्क्रिप्ट सुनाई और कहा, मैं ऐसी हॉरर फिल्म बनाकर लोगों को नहीं डराना चाहता.
Nikita Mikhalkhov With Nyt
फिल्म डायरेक्टर निकिता मिख़ालकोव ने न्यू यॉर्क टाइम्स से जो कहा था. (स्क्रीनशॉट: निकिता मिख़ालकोव)

दोनों को एक सी बीमारी मिख़ालकोव ने जिस डर की बात कही, वो डर रूसी सरकार को भी है. आज जैसे चीन में व्लेदिवस्तोख़ को लेकर माहौल बन रहा है. वैसे ही कभी रूस में क्रीमिया पर माहौल बना. रूस ने इतिहास का हिसाब लेते हुए क्रीमिया पर कब्ज़ा किया. रूस के लोग अमेरिका से अलास्का वापस खरीदने की भी बात करते हैं. ये सारी बातें अपने स्वभाव में चीन के व्लेदिवस्तोख़ सेंटिमेंट जैसी ही तो हैं.
अभी रूस और चीन को एक-दूसरे की ज़रूरत है. अमेरिकी विरोध ने इन्हें साथ मिलाया है. मगर ये साथ छूट भी सकता है. जैसे, 60 के दशक में छूटा था. एक-दूसरे के दोस्त रहे सोवियत और चीन नॉकआउट युद्ध के कगार पर पहुंच गए थे. रूस फिर से ये स्थिति नहीं चाहेगा. इसीलिए वो चाहेगा कि हर हाल में चीन और भारत के बीच का पावर बैलेंस बना रहे. सबके ऊपर हावी चीन जितना ख़तरनाक हमारे लिए है, उतना ही ख़तरनाक वो रूस के लिए भी है.


विडियो- नॉर्थ कोरिया और साउथ कोरिया में इतनी तगड़ी दुश्मनी क्यों है?