1947 का भारत. आजादी के साथ विभाजन के काले बादल देश पर मंडरा रहे थे. उथल-पुथल भरा माहौल था. इसी समय अविभाजित अरुणाचल प्रदेश के चटगांव पहाड़ी इलाकों में रहने वाली एक बौद्ध कम्युनिटी अपने नेता स्नेह कुमार के साथ महात्मा गांधी, पंडित जवाहर लाल नेहरू और सरदार वल्लभभाई पटेल से मिलती है. उनसे कहती है कि चटगांव पहाड़ी इलाके की 98 फीसदी आबादी गैर मुस्लिम है. यहां हिंदू और बौद्ध रहते हैं. इस पूरे इलाके को भारत में शामिल किया जाए, पाकिस्तान में नहीं. उन्होंने बंगाल सीमा आयोग के सामने भी पूरे जोर से CHT को भारत में शामिल करने की दलील दी.
चकमा समुदाय के 'भारतीय' बनने की कहानी एंजेल चकमा की हत्या का दर्द और बढ़ा देगी
हत्या से पहले एंजेल चकमा को 'चाइनीज', 'मोमो' कहा गया. इलाज के दौरान उनकी मौत हो गई. वो जिस समुदाय से आते हैं, उसका अपने अस्तित्व को लेकर संघर्ष का एक लंबा इतिहास रहा है.


आश्वासन मिला कि ऐसा ही होगा. इसके बाद नेता अपने लोगों के साथ वापस लौट आए. 15 अगस्त 1947 की आधी रात जब ‘नियति से मुलाकात’ करते हुए भारत अपनी ‘आजादी के साथ जागा’, तब ये लोग अपने मुख्यालय रंगमती पर इकट्ठा हुए. खूब जश्न मनाया. तिरंगा झंडा फहराया. लेकिन दो दिन बाद उनके पांव के नीचे से जमीन खिसक गई. शायद इसे ही सही मायने में जमीन खिसकना कहेंगे भी क्योंकि 17 अगस्त 1947 को रेडियो पर घोषणा हुई कि उनका पूरा इलाका पाकिस्तान को दे दिया गया है.
यह तो दो राष्ट्र सिद्धांत के खिलाफ था क्योंकि यहां कि अधिकांश जनता गैर मुस्लिम थी, बल्कि हिंदू थी. इस ऐलान ने उनके दिल तोड़ दिए और उनके पूरे समुदाय के लिए दशकों के शोषण और संघर्ष के रास्ते खोल दिए. 8 दिन बाद पाकिस्तान की बलोच रेजिमेंट ने रंगमती से भारत का झंडा उतारकर वहां पाकिस्तानी झंडा फहरा दिया. लेकिन यहां के लोगों के दिलों से भारत को लेकर प्यार कभी कहीं नहीं गया. ये चकमा समुदाय के लोग थे.
वही समुदाय जिसका एक वंशज 9 दिसंबर 2025 को उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में ‘विदेशी’ कहे जाने और नस्लीय टिप्पणी के बाद बुरी तरह पीटा गया. इसके कुछ दिन बाद उसकी मौत हो गई. मरने से पहले उसने बताया कि हमला करने वालों से कहता रहा कि ‘वह इंडियन है, विदेशी नहीं.’ लेकिन लोगों ने उसकी एक न सुनी. वह लड़का एंजेल चकमा था, जो देहरादून में एमबीए की पढ़ाई कर रहा था.
ये चकमा वही कम्युनिटी है, जो भारत में शामिल होना चाहती थी लेकिन किस्मत उसे पाकिस्तान के खाते में ले गई. अपने 'अवांछित' देश में शोषित होने के बाद वह शरणार्थी बने. फिर क्षेत्रीय संघर्षों में भी खपते रहे. नागरिकता पाने के लिए दर-दर भटके. शोषण और पहचान के संकट के बीच अपने अस्तित्व को बनाए रखने की लड़ाई में वो अभी यहीं तक आ पाए, जहां उनके ही देश के एक दूसरे हिस्से में उन्हें ‘विदेशी’ कहकर मारा जा रहा है.
चकमा समुदाय के ज्यादातर लोग थेरी बौद्ध धर्म को मानते हैं. ये बौद्ध धर्म की वही शाखा है, जो म्यांमार, कंबोडिया और थाईलैंड में प्रचलन में है. इसे दक्षिणी बौद्ध धर्म भी कहा जाता है. चकमा अविभाजित अरुणाचल प्रदेश का हिस्सा थे. लेकिन विभाजन के बाद पाकिस्तान सरकार इन्हें भारत का समर्थक ही मानती रही. सौतेला व्यवहार होना ही था. बताया जाता है कि पाकिस्तान की अलग-अलग सरकारों में उनके साथ जातीय और धार्मिक उत्पीड़न होता ही रहा. 1860 में ब्रिटिश भारत सरकार ने चटगांव पहाड़ी इलाके को स्पेशल स्टेटस दिया था. इसे 1963 की पाकिस्तानी सरकार ने संविधान संशोधन कर खत्म कर दिया.
साल 1964-65 के आसपास कर्णफूली नदी पर पाकिस्तानी सरकार ने कपताई बांध बनाया था. इस बांध की वजह से चकमा लोगों की जमीनें पानी में डूब गईं. न तो उन्हें इसका मुआवजा मिला और न कोई सरकारी सहयोग. इसके अलावा वह गैर मुस्लिम थे ही, बांग्ला भी नहीं बोलते थे. ऐसे में धार्मिक और सांस्कृतिक उत्पीड़न ने भी उन्हें खूब तबाह किया. इन सबसे परेशान और बेघर 14 हजार से ज्यादा चकमाओं ने भारत को उम्मीद की नजर से देखा. विस्थापित होकर वह पूर्वी पाकिस्तान से भागे और मिजोरम-त्रिपुरा के रास्ते भारत में दाखिल हो गए.
भारत सरकार ने उन्हें अरुणाचल प्रदेश के राहत शिविरों में बसा दिया. इसके लिए भारत सरकार ने तत्कालीन NEFA और आज के अरुणाचल के स्थानीय प्रशासन और जनजातीय नेताओं को राजी किया. इसके 5 दशक बाद तक ये लोग उन्हीं राहत शिविरों में बसे रहे.
अरुणाचल में विरोधअरुणाचल प्रदेश में भी लेकिन जीवन आसान नहीं था. साल 1980 के दशक तक चकमा भारतीय नागरिकों की तरह सारे अधिकारों और सुविधाओं का उपयोग करते रहे. लेकिन अरुणाचल प्रदेश राज्य बनने के बाद यहां भी असम के विदेशी-विरोधी आंदोलन का असर होने लगा. चकमाओं को ‘विदेशी’ मान लिया गया और उन्हें अरुणाचल से बाहर निकालने की हर संभव कोशिश की गई.
मशहूर समाजशास्त्री और डॉक्टर डॉ. निकोलस क्रिस्टाकिस इस विरोध को ऐसे भी देखते हैं कि अरुणाचल में 26 प्रमुख जनजातियां और 100 से ज्यादा उप-जनजातियां रहती थीं. उन्हें एक अरुणाचली पहचान के तले एकजुट करने के लिए एक ‘साझा दुश्मन’ चाहिए था. ये कमी चकमा समुदाय के लोग पूरी करते थे. इस तरह से वो अरुणाचली पहचान के स्थायी दुश्मन बन गए.
इसके बाद स्थानीय लोगों और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने चकमा शरणार्थियों को अरुणाचल में स्थायी रूप से बसाने का विरोध किया. उन्हें डर था कि इससे राज्य की डेमोग्राफी बदल जाएगी और उन्हें अपने सीमित संसाधनों को बांटना पड़ेगा.
बांग्लादेश क्या कहता है?
साल 1997 में बांग्लादेश की शेख हसीना सरकार ने चकमा, मारमा, त्रिपुरा, मुरंग और तंचंग्या जैसे समुदायों को बांग्लादेश की जनजातियों के रूप में मान्यता दे दी. साथ ही, हिल ट्रैक्ट्स यानी पहाड़ी इलाकों के लिए एक क्षेत्रीय परिषद बनाई. इसमें विस्थापित लोगों को जमीन लौटाने का प्रावधान था. इसके अलावा बांग्लादेश कुछ चकमा शरणार्थियों को वापस लेने को भी तैयार था, लेकिन ज्यादातर लोग धार्मिक उत्पीड़न के डर से वापस लौटना ही नहीं चाहते थे.
भारत की नागरिकता
बांग्लादेश के विस्थापित चकमाओं की भारतीय नागरिकता का रास्ता तब खुला जब साल 2015 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि 1964-69 के बीच बांग्लादेश से आए चकमा और हाजोंगों लोगों को नागरिकता दी जाए. इसके बाद सदन में केंद्र सरकार ने नागरिकता अधिनियम, 1955 में संशोधन का प्रस्ताव रखा, जिसका विपक्ष ने विरोध किया. यह बिल पास नहीं हो पाया.
एक लाख चकमा को मिली नागरिकता
हालांकि, द हिंदू की रिपोर्ट के मुताबिक, नवंबर 2021 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक लाख से ज्यादा चकमा-हाजोंग समुदाय के बौद्धों और हिंदुओं की भारतीय नागरिकता को मंजूरी दे दी, जो 1960 के दशक में भारत आए थे. उस समय भारत के गृहमंत्री राजनाथ सिंह थे. जिस बैठक में यह फैसला लिया गया, उसमें राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) अजीत डोभाल, तत्कालीन गृहराज्य मंत्री किरेन रिजिजू और अरुणाचल प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री पेमा खांडू भी मौजूद थे.
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