हमारा कॉलेज इंटर से स्टार्ट हुआ मानो. काहे कि उसके पहले हम जिस स्कूल में पढ़ते थे वहां सिर्फ तीन चीजें चलती थीं. डिसिप्लिन, डिसिप्लिन और डिसिप्लिन. इसके आगे घंटा कुछ होने की गुंजाइश नहीं थी. गर्लफ्रेंड-बॉयफ्रेंड का कल्चर वहां कभी देखने को नहीं मिला. टीचर लोग कभी लड़का-लड़की को साथ देखते तो राखी बंधवा देते थे. उन हालात के बाद जब हम इंटर कॉलेज पहुंचे तो भाई साहब जैसे सांड छुटा गया. हर तरफ सींग उलझाता चलता था. साल 2003 का लास्ट था वो. हम घर से 10 किलोमीटर दूर एक सरकारी इंटर कॉलेज के नए नए छात्र हुए थे. देहात में मोबाइल नया नया आया था. हमारी क्लास के हुसैन उर्फ सोनू के पापा सिंचाई विभाग में अफसर थे. मम्मी पापा की इकलौती औलाद. पापा का मोबाइल नोकिया 3315 मार लाए थे एक दिन. सारा दिन साला आसमान पर घूमता रहा. फोन नहीं आता जाता था. सिर्फ रिंगटोन बजती थी. एक पियानो सी आवाज में "तुमसे मिलना बातें करना बड़ा अच्छा लगता है." उस इंसान से आज तक जलन है. जबकि आज सोनू की जिंदगी घूर से कुछ ही बेहतर है. तो गुरू हमारी जिंदगी में वो इंटर कॉलेज का दौर बहुत बंटाधारी टाइप था. पूरी जिंदगी उलट पलट कर डालिस. हम जित्ते सूधे सच्चे बालक थे उत्ते उजड्ड हो गए. बहुत नए शौक लगाए उस कॉलेज लाइफ ने. गाने सुनने का. स्कूल से भागने का. इश्क में पड़ने का. लव लेटर लिखने का. और फिल्में देखने का. अगर मुझसे पूछो कि फिल्म देखते हो? मैं कहूंगा फिल्मों के बहुब्बड़े शौकीन हैं. तुमई तरह सिर्फ मैक्स की सूर्यवंशम देख कर बड़े नहीं हुए हैं. बचपन में मित्थुन, धर्मेंद, अंताब बच्चन, जयकी सराब की फिल्में पसंद थीं. जब कॉलेज गोइंग स्टूडेंट हुए तो इंगिलिस वाली देखने लगे. हिंदी में डबिंग वाली. उस जमाने में इंगिलिस का मतलब सिर्फ ब्लू फिल्में होता था. तो भैया सब तरह की फिल्में देखे हैं. एलियन वाली, रोबोट वाली, वैम्पायर वाली, लड़ाई वाली, मशीनों वाली, डायनासोर वाली. इनके नाम नहीं याद रहते साहब. मानवता के इतिहास में सिर्फ एक ही फिल्म का नाम याद रह गया है. तेरे नाम.

लेकिन हम दर्शन की बात करके पकाना नहीं चाहते. उस वक्त तक हमको इसका पता भी नहीं था. हमको ये चीज खली कि लौंडा पागल हो गया. लड़की मर गई और हमारे ढाई घंटे घुस गए टेढ़े नाम के नाम पर. ठगे से रह गए थे भाईसाब. हैप्पी एंडिंग नहीं होती तो जिस्म का जर्रा जर्रा सुलग उठता है. तब अनुराग कश्यप की फिल्में नहीं देखते थे हम.लेकिन गाने भाईसाब. अहाहा. उनके बोल और म्यूजिक का भूलना 'अनपॉसिबल' है. हिमेश रेशमिया को इस फिल्म के गानों के लिए सात खून माफ हैं. हम हिमेश की कोई फिल्म देखने का जिगर नहीं रखते. लेकिन तेरे नाम के गाने चौबीस घंटे सुनते थे. और हां. फॉर योर काइंड इन्फॉर्मेशन, तब तक हिमेश ने गाना नहीं शुरू किया था. भारत पाकिस्तान बंटवारे पर न जाने कितनी फिल्में बनी हैं. कुछ बदनसीब आंखें अब भी जिंदा होंगी जिन्होंने उसके नजारे देखे. लेकिन उस प्लॉट की हर फिल्म में एक बात कॉमन दिखती है. पाकिस्तान से लाशें भर कर आती रेलगाड़ियां. उससे उलट लेकिन बिल्कुल उस जैसा नजारा दिखता था 2003 के लास्ट और 04 की शुरुआत में. भाईसाब सुल्तानपुर, लखनऊ, बनारस, कानपुर से होकर गुजरने वाली रेलगाड़ियों में एक एक दिन में हज्जारों 'तेरे नाम' गुजरते थे. वो स्टाइल याद करो सलमान उर्फ राधे का उस फिल्म में. हां हां बस वही. बीच से निकली मांग और आंख में घुसती बालों की लटें. ऐसा लगता था सरकार ने कोई अध्यादेश जारी किया हुआ है. कि जब तक ट्रेन की एक बोगी में 70 परसेंट लड़के तेरे नाम बालों के साथ नहीं होंगे, ट्रेन का चक्का आगे नहीं बढ़ेगा. हर चौक चौराहे, क्लास, मार्केट, गली मोहल्ले, नदी नाले में तेरे नाम ही तेरे नाम दिखते थे. उन बालों की वजह से न जाने कितने बच्चे अनाथ और बेघर हो गए. कितनों की पढ़ाई छूट गई. हमारे भाई आशीष दैत्य बताते हैं कि उनके क्लासफेलो देवेंदर बाबू ने जिंदगी में सिर्फ यही एक एडवेंचर का काम किया था. तेरे नाम बाल रख लिए थे. उसके बाद उनकी जिंदगी बदल गई. प्लेटफारम पर लात मार कर स्कूल से निकाल दिया गया. हमारी क्लास में राकेस थे. तेरे नाम देखने से पहले इंसान हुआ करते थे. देखने के बाद सलमान हो गए. उन्होंने राधे और निर्जरा की A4 साइज फोटो मढ़वा कर अपने कमरे में टांग रखी थीं. रोज उसमें फूल माला चढ़ा कर पूजा करते थे. जब तक मैं कॉलेज में रहा उनके बालों की वजह से पहचानता रहा. मेरे निकलने के बाद पता चला कि मेरे बाद भी वो कॉलेज में ही रुक गए थे. सलमान-भूमिका की अत्यधिक पूजा से मां सरस्वती उनके ऊपर प्रसन्न हो गई थीं. लिहाजा वो फेल हो गए. हमारी क्लास के ब्राइट स्टूडेंट धीरू बाजपेई. सबको बाल कटाते देख ललचाते रहते थे. एक दिन तलब हद से ज्यादा बढ़ गई. तेरे नाम बन आए. घर आने पर पापा की तरफ से पहली प्रतिक्रिया आई. जूते के भेस में. क्योंकि जूता फेंक कर मारा गया था. उसके बाद जूता हाथ में ले लिया गया. और फिर मारते 15 तो गिनते एक. अगणित जूते मार कर घर से खदेड़ दिया. फिर बाल घोटवा दिए गए. तब जाकर घर वालों ने पानी पिया.
गाने तो माशाअल्ला हम पहले ही बता चुके हैं. जब लौंडे बाल झटकते हुए "लगन लगन लगन लग गई है तुझसे मेरी लगन लगी" गाते थे तो दसों दिशाएं गूंज उठती थीं. हर पान की दुकान, टैंपो, सस्ते रेस्टोरेंट और पार्टी में बजते थे इसके गाने. एक गाना था "क्यों किसी को वफा के बदले वफा नहीं मिलती." इस गाने को राष्ट्रगान का दर्जा प्राप्त था. लोग जहां भी एक लाइन सुनते फिर पूरा गाने सुने बिना कदम नहीं बढ़ाते थे. हमारे मजीबुल्ला भाई गाते थे बकरियां चराते हुए "तेरे नाम हम लिख दिया हूं."हमने ये फिल्म किस्तों में देखी. वो भी तब जब एग्जाम खत्म हो गए थे. जब राधे की मुंडी ट्रेन की बोगी में लड़ा रहे थे वो लोग. वो मेरी जिंदगी का सबसे वीभत्स सीन था इस वक्त. आगे क्या क्या देखना है ये नहीं पता था. अब वो सब फिल्मियापा नजर आता है. जिंदगी की उठापटक अब भी चल रही है. सब कुछ वक्त से आगे जा चुका है. उस कॉलेज से निकले हुए इतना टाइम हुआ कि उस जमाने के रोएं तक बॉडी से खर्च हो गए होंगे. लेकिन तेरे नाम के गाने अगर कोई बजा देता है कहीं तो उससे भी पूछने का मन करता है- क्या तुमको भी 'तेरे नाम' ने ठगा था?