
अविनाश दास
अविनाश दास पत्रकार रहे. फिर अपना पोर्टल बनाया, मोहल्ला लाइव
नाम से. मन फिल्मों में अटका था, इसलिए सारी हिम्मत जुटाकर मुंबई चले गए. अब फिल्म बना रहे हैं, ‘आरा वाली अनारकली’ नाम से. पोस्ट प्रोडक्शन चल रहा है. कविताएं लिखते हैं तो तखल्लुस ‘दास दरभंगवी’ का होता है. इन दिनों वह किस्से सुना रहे हैं एक फकीरनुमा कवि बुलाकी साव के, जो दी लल्लनटॉप आपके लिए लेकर आ रहा है. बुलाकी के किस्सों की सत्रह किस्तें आप पढ़ चुके हैं. जिन्हें आप यहां क्लिक कर पा सकते हैं.
हाजिर है अठारहवीं किस्त, पढ़िए.
हम अपनी करतूतों के चभच्चे में नहा रहे थे हमारे बचपन में वह आदमी इंदिरा गांधी को गाली देता था. जब हम जानने लगे कि इंदिरा गांधी कौन थीं, तब भी वह आदमी इंदिरा गांधी को गाली देता था. हमारी जवानी में भी हमने उसे इंदिरा गांधी को गाली देते हुए सुना. सैकड़ों बार हम उसके रिक्शे पर सवार हुए. सैकड़ों बार हम इंदिरा गांधी को कटाक्ष करती हुई उसकी बड़बड़ाहट के साक्षी बने. हम सब समझते कि एक पागल है, जो अपनी सनक में रिक्शा चलाता है. लेकिन कमाल की बात थी कि उसने कभी किसी को गलत जगह पर नहीं पहुंचाया. न किसी से एक रुपया कम भाड़ा (किराया) लिया, न एक रुपया ज्यादा. जब हम थोड़े बड़े थे और हमें लोगों का मज़ाक़ उड़ाना आ गया था, उसे छेड़ने लगे. हममें से कोई लड़का उसके पास जाता और ज़ोर से चिल्लाता, 'इंदिरा गांधी जिंदाबाद.' और वह अपनी आंखों की आग धधका कर गालियों की चिंगारी फेंकने लगता था. हम दूर अपनी जगह पर जाकर हंसने लगते थे. कभी हममें से ही कोई उसे ढेला मार देता था, तो कभी कोई उसकी फटी हुई कमीज़ को थोड़ा और फाड़ कर उसकी गालियों के मज़े लेता था.
एक दिन, जब हम अपनी करतूतों के चभच्चे (जलकुंभियों से भरे सड़े हुए पानी के नाले) में नहा रहे थे, किसी ने मुझे एक ज़ोर का थप्पड़ लगाया. वह भरी-पूरी दोपहर थी और मुझे दिन में तारे दिखने लगे. आंखों के आगे अंधेरा छंटा, तो मैंने देखा कि सामने बुलाकी साव है. मेरे दोस्त उसकी बांह, उसका कालर पकड़े हुए हैं. वह मेरे दोस्तों के लिए नीची जाति का था, लेकिन मेरा तो सखा था. मैंने बुलाकी साव को छोड़ देने के लिए कहा. मेरे दोस्त मुझ पर आंखें तरेरते हुए वहां से चले गये. मैंने बुलाकी साव से पूछा कि तुमने मुझे थप्पड क्यों मारा. बुलाकी साव गुस्से में था. उसने कहा, 'तुम क्या जानते हो क़ासिद के बारे में?'
'कौन क़ासिद?' 'जिसको तुमने ढेला मारा...' 'कसिदवा... पगला...'
बुलाकी साव अपना सर पकड़ कर बैठ गया. मैंने भी अपना चेहरा दूसरी तरफ मोड़ लिया. थोड़ा वक्त गुज़रने और थोड़ा गुबार निकल जाने के बाद बुलाकी साव ने बताया कि कासिद उसका दोस्त है. बचपन का दोस्त है. यह अलग बात है कि अब वह उसे नहीं पहचानता. अब तो वह किसी को भी नहीं पहचानता. हमारे गांव में बांध से सटा मुसलमानों का टोला है. पच्चीस-तीस मुसलिम परिवार वहां बसे हैं. क़ासिद और बुलाकी साव एक ही साल की पैदाइश हैं. सन पचहत्तर में आपातकाल लगने के चार महीने पहले क़ासिद का निकाह हुआ था. आपातकाल में नसबंदी अभियान के दौरान जब सरकारी मेडिकल कैंपों में टारगेट पूरा करने की होड़ मची थी, जबरन क़ासिद की नसबंदी कर दी गयी थी. वह पागल हो गया. बीवी बागमती में कूद गयी. उस वक्त वह पेट से थी. दहेज में क़ासिद को एक रिक्शा मिला था. वह अपना शेष जीवन रिक्शे पर ही गुज़ारने लगा. दिन में सवारी ढोना और रात में उसी रिक्शे पर पैर समेट कर सो जाना. उसके पास बातचीत के लिए कोई वाक्य नहीं था. कुछ शब्द थे, जो गाली बन कर इंदिरा गांधी पर बरछी की तरह बरसते रहते थे.
इकत्तीस अक्टूबर की दोपहर, जब इंदिरा गांधी के मारे जाने की ख़बर आयी थी, उस रात हम बाबूजी के साथ उनकी साइकिल के आगे बैठ कर बलभद्दरपुर से गांव लौट रहे थे. रास्ते में हमने बर के पुराने पेड़ के पास क़ासिद का रिक्शा देखा. रिक्शे की सीट पर बुलाकी साव बैठा था. मैं बाबूजी की साइकिल से उतर कर क़ासिद के रिक्शे पर चला गया. बुलाकी साव चुप था, लेकिन क़ासिद बड़बड़ा रहा था. मैंने उसकी बड़बड़ाहट पर गौर किया, तो वह एक ही वाक्य था, जो टेपरिकॉर्डर में फंसी हुई रील की तरह बार-बार बज रहा था. वह वाक्य था, 'मर गयी हरमजादी.' मैंने बुलाकी साव की ओर देखा. उसने अपनी उंगली को मुंह पर रख कर मुझे ख़ामोश रहने का इशारा किया. मैं ख़ामोश बैठा रहा. थोड़ी देर में क़ासिद थक कर शांत हो गया. तब बुलाकी साव ने मुझे यह कविता मुझे सुनायी थी.
जादू टोना झिझ्झिर कोना कितना सोना बोल बोल