कैसे मिले थे बिरंची को बुधिया सिंह?
कोच बिरंची से बुधिया के मिलने की भी बहुत फिल्मी कहानी है. बुधिया के पिता उसके जन्म के पहले ही गुज़र गए थे. तीन बहनों अौर बुधिया की देखभाल करने को मां सुकांति दास के बरतन मांजकर कमाए पैसे कभी पूरे नहीं पड़ते थे. एक दिन मजबूर होकर सुकांति ने बुधिया को 800 रुपए में फेरीवाले को बेच दिया. जूडो कोच बिरंची उस समय भुवनेश्वर की सबसे बड़ी झोपड़पट्टी 'सालियासाही झोपड़पट्टी एसोसिएशन' के प्रेसीडेंट हुआ करते थे अौर उन्होंने बुधिया को बेचनेवाली खबर सुनकर अपनी जेब से 800 रुपया देकर बुधिया को छुड़ाया. यहीं से बुधिया उनकी सरपरस्ती में आ गया.
फिर एक दिन अचानक बुधिया की 'प्रतिभा' का पता चला बिरंची को, जब गाली देने की सज़ा पर उसे बिरंची ने दौड़ने को कहा अौर भूल गए. जब बिरंची घंटो बाद वापस लौटे, बुधिया दौड़ ही रहे थे. यहीं से बुधिया की खास ट्रेनिंग शुरु हुई. पुरी से भुवनेश्वर वाली चर्चित दौड़ के बाद बुधिया की ज़िन्दगी के अगले कुछ महीने स्टारडम के थे. अन्य जगहों से छोटे से बुधिया को मैराथन दौड़ने के अॉफर मिलने लगे. मई 2006 से सितम्बर 2007 के बीच बुधिया सिंह ने 48 मैराथन दौड़ में भाग लिया.
यहां तक बुधिया सिंह की कहानी किसी सपने के सच हो जाने की तरह थी. गरीब परिवार का बच्चा, जिसे अचानक अपने भीतर छिपी प्रतिभा की मणि हासिल हो गई थी. बेहतर ज़िन्दगी हासिल करने की अपनी उम्मीद को जीने की कोशिश करता बच्चा अचानक पूरे देश की उम्मीद बन गया. लेकिन फिर यही कहानी पलक झपकते ही लालच की, सौदेबाज़ी की, सिस्टम के फेलियर की अौर सपनों के फर्श पर गिरकर टूट जाने की कहानी बन जाती है.
क्यों खत्म हुआ बुधिया का करियर जन्म से पहले ही?
यह उत्सव का माहौल साल भर भी नहीं चला. चार साल के बच्चे को मैराथन दौड़ाना बहुत से मानवाधिकार संगठनों की नज़र में बाल शोषण का मामला था. 2007 में बाल कल्याण विभाग ने बुधिया के मैराथन दौड़ने पर रोक लगा दी. कोच बिरंची ने इसके खिलाफ़ हाईकोर्ट में अपील कर दी. केस की सुनवाई के दौरान सरकार ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि अगर बुधिया को इस छोटी उम्र में मैराथन दौड़ने की इजाज़त दी गई, तो उनकी हड्डियों का विकास ठीक से नहीं होगा अौर वे कम उम्र में ही बर्नआउट के शिकार हो जायेंगे.
बुधिया के लम्बी दूरी के दौड़ों पर रोक लग गई. सितंबर 2007 में बुधिया को उनके कोच से अलग कर, स्पोर्ट्स अथॉरिटी अॉफ इंडिया (SAI) के होस्टल में भर्ती करवा दिया गया. कोच बिरंची का बुधिया को लेकर देखा गया अोलंपिक जीतने का सपना बहुत निराशाजनक तरीके से खत्म हुआ. अप्रैल 2008 में बिरंची दास को किसी पुराने झगड़े के चलते दो बंदूकधारियों ने गोली मार दी.
कहां है भारत की 'अोलंपिक उम्मीद' बुधिया सिंह आज?
चौदह साल के बुधिया सिंह आज भी भुवनेश्वर के कलिंग स्टेडियम में उसी स्पोर्ट्स अथॉरिटी के हॉस्टल में रहते हैं. अौर उनकी मां आज भी भुवनेश्वर की उसी सालियासाही झोपड़पट्टी में रहती हैं. बुधिया छुट्टियों में मिलने जाते हैं मां से. पिछले दिनों जब सौमेन्द्र पाढी की फिल्म 'दूरंतो' ने 'सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म' कैटेगरी में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार जीता तो मीडिया को फिर से बुधिया की याद आई. उनकी तलाश हुई, कुछ स्टोरीज़ हुईं. जो कहानी निकलकर आई वो बहुत आशाजनक नहीं है.
बुधिया का मैराथन दौड़ना हमेशा के लिए बन्द हो गया, कम से कम आज का सच तो यही है. सरकार की पहल पर जिस स्कूल में इंग्लिश मीडियम स्कूल में उनका एडमीशन करवा दिया गया है, उससे बुधिया सिंह का तालमेल नहीं बैठ पा रहा है. सरकार उनकी पढ़ाई अौर रहने का खर्च उठा रही है. लेकिन अपनी मैराथन ट्रेनिंग से दूर बुधिया आज भी खुद को बंधा हुआ महसूस करता है, जैसे किसी ने उसके पंख कतर दिये हों. अप्रैल 2016 में इंडियन एक्सप्रेस
ने जब बुधिया से मुलाकात की तो बुधिया ने शिकायत भरे लहजे में बताया, "यहां तो मुझे बस अधिकतम 1500 मीटर दौड़ने को कहते हैं. मेरे कोच मुझे मेरी गति बेहतर करने को कहते हैं, लेकिन मुझे नहीं मालूम कि ये मेरी कैसे मदद करेगा. मुझे तेज गति वाली दौड़ों में भागना पसन्द ही नहीं, लेकिन यहां मुझे वही करने को कहा जाता है."

बुधिया सिंह 2015 में. यूट्यूब पर 'मैराथन बॉय' फिल्म से
बुधिया सिंह आज चार साल का 'वंडरकिड' नहीं है. आज वो भुवनेश्वर के स्पोर्ट्स हॉस्टल में पढ़नेवाले डेढ़ सौ अन्य बच्चों में से एक सामान्य किशोर है, जो अपनी रेजिमेंटेड स्कूली जिन्दगी से चिढ़ा हुआ है. लेकिन जिन लोगों ने 2006-07 का समय अौर उस दौर में बुधिया की उप्लब्धियों को नज़दीक से देखा है, उन्हें इसमें एक बड़े मौके का ज़ाया होना नज़र आता है. खेल पत्रकार संबित महापात्र उनमें से एक हैं. "वो एक सामान्य बच्चा नहीं था. उसे खास किस्म की कोचिंग, भोजन अौर देखभाल की ज़रूरत थी. ऐसी सुविधाएं जो बुधिया को किसी स्पोर्ट्स हॉस्टल में 140 अौर बच्चों के बीच मिलना संभव नहीं." संबित ने एक्सप्रेस को बताया.
बुधिया ने भी कहा, "मेरा विश्वास है कि मेरा जन्म मैराथन दौड़ने के लिए हुआ है. आज भी मैं घंटों दौड़ सकता हूं, बिना ज़रा भी थके. लेकिन यहां मुझे ना सही ट्रेनिंग मिल रही है, ना खाना. यहां मुझे चिकन के बस 3-4 पीस खाने को मिलते हैं, जबकि बिरंची सर मुझे चार साल की उम्र में ही इससे ज़्यादा खुराक दिया करते थे. ऐसा लगता है जैसे मैं जेल में हूं."
जब बुधिया से कोच बिरंची के साथ बिताए दिनों के बारे में पूछा जाता है, तो बुधिया कहता है, "मैं उस समय बहुत ही छोटा था. मुझे ज़्यादा कुछ तो याद नहीं. हां, सर (बिरंची दास) का व्यवहार मेरे साथ बहुत अच्छा था अौर वो मेरी ऐसे देखभाल करते थे जैसे मैं खुद उनका बच्चा हूं." बिरंची की मृत्यु के साथ ही बुधिया का अोलंपिक वाला सपना भी टूट गया लगता है.
एचटी
की एक अौर रिपोर्ट में संबित बताते हैं, "अोलंपिक? वो तो आजकल अपनी स्कूल की रेस भी नहीं जीत पाता है."
कहानी का दूसरा पक्ष भी है
खेत राम अौर टी गोपी जैसे अोलंपियन धावकों को ट्रेन करनेवाले कोच सुरेन्द्र सिंह भंडारी का मानना है कि बुधिया को अभी मध्यम दूरी की दौड़ पर ही टिके रहना चाहिए, जब तक उनका शरीर मैराथन दौड़ने के लिए तैयार नहीं हो जाता. भारतीय खिलाड़ी का शरीर, खासकर उसकी बोन डेंसिटी अन्य विदेशी खिलाड़ियों से भिन्न होती है अौर उनका शरीर मैराथन जैसी दौड़ के लिए 20 की उम्र के बाद ही तैयार होता है. अगर बुधिया ने 13-14 की उम्र में मैराथन दौड़ना शुरु कर दिया तो उनका शरीर 20-21 तक पहुंचते-पहुंचते चोटों से घिर जाएगा अौर बर्नआउट का शिकार हो जाएगा.
जब 2007 में बुधिया को मैराथन दौड़ने से अलग किया गया, तो कई लोगों ने इसे उनकी प्रतिभा की हत्या बताया था. लेकिन उन्हें दौड़ते रहने देना फिर उनके बचपन की हत्या था. बुधिया के मैराथन दौड़ने से उनके शरीर का नुकसान स्पष्ट था, लेकिन उनका दौड़ना कई परिवारों का जीवन चला रहा था. उनके दौड़ने से बहुत से लोगों के स्वार्थ सध रहे थे, जिनमें परिवार, मीडिया अौर सिस्टम से जुड़े लोग भी शामिल थे.
अौर हमें स्वीकार करना चाहिए, कि सालों से एक अोलंपिक मैडल को तरसते देश के हम तमाम नागरिक भी कहीं ना कहीं इसके ज़िम्मेदार थे. चार साल के बच्चे को 'वंडरकिड' बनाकर, उस पर अपनी उम्मीदों का बोझ डालते हुए हमने सोचा भी नहीं कि हम इस बच्चे के बचपन की हत्या के उत्सवधर्मी आयोजन में शामिल हो गए थे.
उस वक्त इंडिया टुडे
से बातचीत में मशहूर स्पोर्ट्स डॉक्टर वेस पेस ने बताया था कि बिना सही डॉक्टरी सलाह के चार साल के बच्चे को ऐसी कठिन शारीरिक एक्टिविटी में डाला ही नहीं जा सकता. ऐसे में चार साल के बुधिया को मैराथन ट्रैक से हटाया जाना उनके बचपन की रक्षा की तरह भी पढ़ा जा सकता है.
राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता है फिल्म

फिल्म का एक सीन
सौमेन्द्र पढी की फिल्म में मनोज बाजपेयी विवादास्पद कोच बिरंची सिंह की भूमिका निभा रहे हैं. तिलोत्तमा शोम बुधिया की मां सुकांति की भूमिका निभा रही हैं. चार साला बुधिया सिंह की भूमिका में मास्टर मयूर हैं. पहले इस फिल्म का नाम 'दूरंतो' था अौर इसी नाम से फिल्म ने इस साल के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में बेस्ट चिल्ड्रन्स फिल्म का पुरस्कार जीता. लेकिन कमर्शियल रिलीज़ के लिए फिल्म का नाम बदलकर 'बुधिया सिंह : बॉर्न टू रन' कर दिया गया है. कहीं ना कहीं निर्माताअों को भी उम्मीद है कि बुधिया सिंह का नाम उन्हें लोकप्रियता दिलवाने में मददगार बनेगा. 'बुधिया सिंह' फिर दौड़ेगा, किसी अौर के लिए.