जिसने पूरी की इस ज़माने की भूख और जिसे सियासत के पैरो तले रौदा गया, मैं वो पंक्ति में खड़ा आखिरी इंसान हूं, हां, मैं किसान हूं.लेखक अपनी कविता के जरिये राजनैतिक घटनाओं से भी संवाद करता है. एक कविता है,
जो बचा था निवाला वो भी लूट गया हमसे ये कौन सा आशियाना बना रहे हो वादा तो था दो वक़्त की रोटी का पर तुम तो बुतों पर बेइंतेहा दौलत लुटा रहे होये कविता लोकतांत्रिक वादाख़िलाफ़ी को उजागर करती है और समाजवादी सपनों पर बने देश में जनप्रतिनिधियों की असवेंदनशीलता को दर्शाती है. आलोक अपने काव्य संग्रह में पितृसत्ता के खिलाफ भी अपनी आवाज बुलंद करते हैं,
मेरे लिबास के ठेकेदार अपने पौरूष को आंक जरा तू कितना मैला है मन से अपने अंतर्मन में झांक जरा जब सड़को पे मैं रौदी जाती हूं उस वक़्त कहां तुम होते हो मेरे लज्जा के शिल्पकार तुम कितने लज्जित होते हो?ये पंक्तिया सदियों की असमानता और पुरुष वर्चस्व पर सवाल उठाती हैं. लेखक सांप्रदायिक ताकतों और धार्मिक आतताइयों को भी ललकारता है,
सलमा को मुझे और मुझे सलमा से मोहब्बत है पर कुछ सरफिरे इसे लव जिहाद कह रहे है ये कैसे लोग हैं जो दोस्ती के दुश्मन हैं और मोहब्बत को भी गुनाह कह रहे हैं'दमन के खिलाफ' काव्य संग्रह हर मोर्चे पर मानव धर्म की वकालत करता है. हालांकि लेखक कई दफा भावना के स्तर पर अतिरेकता की तरफ जाता है, और वैचारिक रूप से उन तथ्यों पर सवाल करता है जो सही और गलत के दायरे से नहीं देखी जानी चाहिए. लेखक को ऐसी अतिरेकता से बचना चाहिए. इस काव्य संग्रह की एक कविता जो शायद अपने शब्द चयन से बेहद प्रभावित करती है और अपनी भावना से सीधे अमीरी और गरीबी के बुनयादी ढांचे पर सवाल करती है,
एक तरफ दौलत का नंगा दिखावा दिखावे में मोहब्बत का नजर आना एक तरफ मुसलसल घुटती जिंदगी घर की तलाश में सड़क पर आ जाना कोई बताये ये मेरा सहर है या हुक्मरानो का ठिकानादमन के खिलाफ अपनी चंद खामियों के बावजूद बेजोड़ है और इस नए रचनाकार को एक बार जरूर पढ़ा जाना चाहिए.

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