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'नजर मिलते ही उसपे बाज, गिद्ध, कौवे और सांप तक ऐतबार कर लेते'

जानिए कौन था ये...

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विजयदान देथा
विजयदान देथा

कल्पना, कल्लोल कल्पना ही इंसान को बचाएगी. नींद में भी, उसके पार भी. विजयदान देथा उर्फ बिज्जी की कहानियां हमारी संजीवनी बूटी हैं. इन्हें पढ़ें. 1 सितंबर बिज्जी का बर्थडे होता है. तस्वीर देखिए. हमारे आपके बाबा से दिख रहे हैं. खादी की सदरी बने. मोटे लेंस के चश्मे से छांकती दुलारती आंखें. दूध उमड़ आया हो जैसे. इस आशीर्वाद को हम अगले आठ दिन बांचेंगे. बिज्जी का हफ्ता 1 सितंबर से शुरू हो गया है. हफ्ते भर में सात कहानियां और आठवीं कहानी ब्याज में.
हम आपको ये कहानियां पढ़वा पा रहे हैं, इसके लिए दिल से शुक्रिया बीकानेर के वाग्देवी प्रकाशन का. उन्होंने हमें बिज्जी के लिखे ये अक्षर, ये किस्से मुहैया कराए. ये कहानियां लजवन्ती- बिज्जी की प्रेम कथाएं किताब से हैं. किताब की कीमत 80 रुपये है. अब आप हैं और बिज्जी हैं. हवा पर दौड़ने का वक्त हो चला है कॉमरेड. खुद अपने ही फेफड़ों में हवा भर.


 

लजवन्ती

किसी एक वक्त की ढलान पर, कुदरत की गोद में एक गांव बसा हुआ था. गांव, गांव के सांचे में ढला हुआ था. वे ही नयी-पुरानी झोपड़ियां. वे ही गोबर से लीपी दीवारें. वे ही उखड़ते पलस्तर. घर-घर वे ही मिट्टी के चूल्हे. वो ही फिरोजी धुआं. मर्दों के सर पर वे ही बांधे साफे. वो ही तारों से गुंथी लाठियां. औरतों के जाति माफिक अलग-अलग लहंगे. वे ही छाती तक घूंघट. वही भेड़ों की में-में और वही खुरों से उड़ती खेह. वही तेरी-मेरी दांताकसी. वो ही अपने-अपने झमेले. वे ही जंजीरें, वे ही पगहे और वे ही खूंटे. वे ही ठांव, वो ही घासफूस और वही गोबर. वे ही कुएं और वो ही पानी. वे ही ठाकुर और वही ठकुरानी.
अपनी मर्यादा लायक वो गाँव एक मगरे पर काफी ऊपर बसा हुआ था. डेढ़ेक कोस दूर एक तालाब था. पानी फकत दीवाली तक ही टिकता था. तालाब के सूखने पर कुएं चालू हो जाते थे. फिर तो वे ही गड़गिड़ियां, वे ही डोलियां और वे ही रस्सियां. वे ही पनिहारियां और वे ही घड़े. रिम-झिम की झंकार से राह कुछ ऊपर उठ जाती थी. गीत गाती उन टोलियों के इर्द-गिर्द हवा तरसती-सी डोलती रहती थी. सूरज की किरणें उनके रूप-जोबन का परस करती थीं. पेड़-पौधे झुक-झुककर मुजरे लेते थे.
बस्ती से बाहर निकलते ही उन पनिहारियों के मानो पंख निकल आते थे. पंख गले के. पंख हृदय के. लेकिन एक पनिहारिन तो गोया लज्जा की ही पुतली हो. सहेलियों के साथ सुनसान जंगल में भी घूंघट नहीं हटाती थी. न मजाक व चुहलबाजी की कुछ परवाह करती और न ही पलटकर कोई तेज जवाब देती. बीस बार बतलाने पर भी बड़ी मुश्किल से बोलती थी. गुलाबी कलाई और पीली ओढ़नी. गोया इन्द्रधनुष के दो रंगों ने गगन का मुकाम छोड़कर उसकी देह में शरण ली हो. सुरंगी ईढ़ूँनी पर पीतल का चमचमाता घड़ा और दमकता कलश, गोया ठठेरे को चांद का टुकड़ा हाथ लग गया हो. सहेलियां हर तरह की मजाक कर-कर थक गयीं, पर उसका बेवड़ा छलका हो तो वह छलके. घूंघट के भीतर सिन-फिन मुस्कराती रहती.
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एक मर्तबा एक हमउम्र सहेली ने नाक तक आजिज आकर आखिर ताना मारा, ‘अगर घूंघट ही औरतों के शील की सही कसौटी है तो हम सभी बेहया व छिनाल औरतें हैं.’
ताने की उस मार से भी उसके होंठ नहीं खुले. एक बार सहेली की ओर देखकर वापस मुंह मोड़ लिया. तब साथ चल रही दूसरी सहेली ने कहा, ‘देख, तू घूंघट कभी उघाड़ना ही मत. मनचला सूरज तुझे चूमने के लिए टूटकर नीचे गिर पड़ा तो सारी दुनिया में हमेशा-हमेशा के लिए अंधेरा हो जायेगा.’
एक बोली, ‘अगर कोई मरद परिन्दा गाल नोच डाले तो!’
दूसरी बोली, ‘मरदों की बनिस्बत इसे औरतों का डर ज्यादा लगता है. बचपन में जरूर कोई जबरदस्त चोट हुई होगी.’
बाजू में चलती एक सहेली धकियाती हुई कहने लगी, ‘किसी ने कहा था कि इसके तो जनमते समय भी नाभि तक घूंघट खिंचा हुआ था. सोलह सिंगार किया हुआ था.’
एक प्रौढ़ पनिहारी बोली, ‘ताने मार-मारकर तुम चाहे जितना थूक उछालो, चिकने घड़े पर बूंद नहीं ठहरती. मैं इसके हाथ पकड़ती हूं, कोई घूंघट हटाने की हिम्मत करे तो आंखों की प्यास बुझे.’

‘अगर आंखें भेंगी हुईं तो!’ ‘अगर चेहरे पर चेचक के दाग हुए तो!’ ‘अगर होंठ रावणखण्डा हुआ तो!’ ‘अगर दांत...!’

आगे के बोल होंठों से बाहर निकलने वाले ही थे कि उसके चेहरे पर नजर पड़ते ही जीभ की नोक दांतों के बीच थोड़ी कट गयी. ऐसा रूप न सुना न देखा. वाकई यह रूप तो ढका ही ठीक है. एक साथ सभी सहेलियों के चेहरे उतर गये. सूर्योदय के बाद पूनम के चांद की क्या बिसात! लाख भला हो बेचारी का जो तमाम औरतों की इज्जत रख ली, वरना सात फेरे के शौहर भी मुंह मोड़ लेते. ऐसा रूप तो सात तालों के भीतर ही छुपा रहना चाहिए.
उन बोलों के साथ ही घूंघट उघाड़ने वाली सहेली ने फौरन वापस घूंघट नीचे क्या डाला गोया चांद के आगे झीनी बदरिया छा गयी हो. एक गहरी आह भरकर बोली, ‘जब यह चांद दिन को भी ऐसा चमकता है तो फिर राम जाने रात को कैसा दमकता होगा?’
‘राम से ज्यादा तो इसका पति जानता है.’
तमाम सहेलियों के पांव मानो चिपक गये हों. हाथ पकड़ने वाली प्रौढ़ औरत बमुश्किल अटकते-अटकते बोली, ‘फकत ऐसा रूप होने पर ही रस के लोभी भंवरे सपने में भी दूसरे फूलों पर नहीं मंडराते.’
एक ने कहा, ‘इस मरदजात का तो मुझे मरकर भी एतबार नहीं होता. इन्हें तो मिश्री की बजाय अफीम मीठा लगता है.’ ‘लगता होगा, पर एक बात तो हमने सोची ही नहीं. अगर तमाम भंवरे दूसरे फूलों से मुंह फेरकर एक फूल पर ही मंडराने लगे तो अपनी कैसी दुर्गति होगी?’
एक सहेली व्यंग्य से हंसते कहने लगी, ‘पर साथ-ही-साथ उस फूल की दुर्गति भी कम नहीं होगी.’
कि सहसा पनिहारियों की नजर सामने से आते एक आदमी पर पड़ी. पर वो तो अपनी धुन में ही मगन था. उसके दोनों हाथों में दो सफेद कबूतर थे, जिनसे बतियाते हुए उसने एक दफा आंख उठाकर देखा तो उसे भी मार्ग पर कुछ औरतें नजर आयीं. गोया पेड़-पौधों के झुण्ड पर नजर पड़ी हो. अनघड़ पत्थरों से अधिक उसने उनकी परवाह नहीं की. राह से जरा हटकर दूर-दूर चलने लगा. सफेद साफा. सफेद अंगरखी और सफेद ही धोती. आबनूसी दाढ़ी. चेहरा तो ठीक से नहीं दिखा पर फबती निरोगी कद-काठी. हाथों में थामे कबूतरों को देखते वो काफी आगे निकल गया. एक दफा पीछे मुड़कर देखना तो दूर रहा, उसके मन में वैसी चाह भी शायद नहीं जगी हो. तमाम सहेलियां चुपचाप एक-दूसरे का मुंह जोहने लगीं कि अचानक राह के सन्नाटे को तोड़ती वह हाथ पकड़ने वाली प्रौढ़ औरत उसके घूंघट की ओर देखते बोली, ‘अगर इस भंवरे को नचा सके तो तेरे रूप को मानूं.’
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घूंघट उघाड़ने वाली सहेली बोली, ‘यह तो आंखें रहते भी अन्धा है. मन की आंखें भी मुंदी हुई हैं. न जाने यह कैसा मर्द है!’ एक सहेली गर्दन हिलाती कहने लगी, ‘मुझे तो इसके मर्दपने में ही कमी लगती है.’ साथ वाली सहेली ने शंका की, ‘पर तुझे इस जांच का मौका कब मिला?’ मुस्कराहट दबाते बोली, ‘सपने में.’
इर्द-गिर्द चल रही तीन-चार सहेलियां बोलीं, ‘फिर भी तू नसीबवाली है. तेरा सुहाग बड़ा है.’ इस बार लजवन्ती नार के होंठ खुले. कोयल से सवाई मीठी वाणी में कहने लगी, ‘पतियों की पीठ पीछे भी तुम्हें ऐसी बातें करते शर्म नहीं आती?’
एक सहेली के मुंह से बरबस जवाब निकला, ‘तूने शर्म और रूप को एक पल भी छोड़ा हो तो हमारे हिस्से में आये?’ सहेलियों से बहस करने में कोई फायदा नहीं. वैसे भी वह बहुत कम बोलती थी पर उस दिन के बाद तो एकदम मौन ही साध लिया. सचमुच विवाह की वेदी पर उसे ऐसा ही कुछ लगा था, गोया आकाश और जमीन का परस्पर पाणिग्रहण हुआ हो. अग्नि देवता की ज्वालाओं की वह अटूट साक्षी कैसे बिसरायी जा सकती है?
दोनों हाथों में उसी तरह दो सफेद-झक कबूतर लिये उस आदमी से राह में सामना होना और उसका जरा दूर हटकर जाना उसी तरह जारी था. वह लजवन्ती नार झीने घूँघट से उसका सफेद लिबास और सफेद कबूतर निरखती रहती. एक दिन एक सहेली ने कहा, ‘अगर यह बावला वचन दे तो मैं औरत की योनि छोड़कर कबूतरी बनने को तैयार हूं. फिर तो पीछा करके अपने हाथों से मुझे पकड़ेगा ही.’
दूसरी सहेली ने तपाक से जवाब दिया, ‘अगर उसके कानों में यह भनक पड़ गयी तो वो कबूतर पकड़ना ही छोड़ देगा.’ राम जाने क्या सोचकर एक सहेली ने लजवन्ती नार की ओर मुखातिब होकर पूछा, ‘क्यूं, तेरा मन कबूतरी बनने को होता है या नहीं?’ तब वह लजवन्ती नार धीमे से बोली, ‘इनसान की जिन्दगी का ऐसा सुख छोड़कर मैं कबूतरी बनने की कामना क्यूं करने लगी? इस इलाके में मेरे पति से सुन्दर और समझदार कितने चेहरे हैं?’
वह प्रौढ़ सहेली एक गहरे राज की बात बतलाते कहने लगी, ‘हाथ लगे सोने की बजाय औरों का जस्ता ज्यादा सुहाना लगता है. मन की इस बान पर कौन अंकुश रख सका है?’
उसके बाद तमाम सहेलियों ने बढ़-चढ़कर यह बात कही कि उस लजवन्ती नार के शरीर में मन या हृदय नाम की कोई चीज है ही नहीं. वह फकत पत्थर की खूबसूरत मूरत की मानिन्द है. फकत हिलने-डुलने, चलने, बोलने व साँस लेने की खासियत है. फिर तो हर रोज वे ही मजाकें. वही चुहलबाजी. राह चलते समय. पानी खींचते समय. पानी छानते समय. सर पर रखे घड़े खाली हों या भरे, वही गुफ्तगू. गोया दुनिया की दूसरी तमाम बातें चुक गयी हों.
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आखिर बेहद आजिज आकर एक दिन उस लजवन्ती नार ने अपने चिपके होंठ खोले. बोली, ‘अब तो तुम्हारे साथ एक पल भी रहने का धर्म नहीं है.’ सहेलियों को यह बात बुरी लगी. कहा, ‘जैसे तेरा मन माने, अपना अलग धर्म निभा, पर औरत-जात होकर इस बेजोड़ रूप और यौवन के साथ नितान्त अकेली इस सुनसान जंगल में अपना पानी कैसे रख सकेगी? हम तो इतनी औरतें एक झुण्ड में होते हुए भी भीतर-ही-भीतर डरती हैं.’
तब लजवन्ती नार निस्संकोच बोली, ‘जिसके मन में चोरी की चाह नहीं, उसे रोशनी से क्या भय! मेरे मर्द को मुझ पर पूरा भरोसा है. मेरे ससुराल वालों को मुझ पर किसी तरह का वहम नहीं है. फिर कैसा डर? किसका डर? मैंने तो डर का नाम ही आज तुम्हारे मुंह से सुना है.’
उस दिन और उस घड़ी से ही तमाम सहेलियों ने उसे छिटका दिया. तब भी उसके मन में भय नहीं हुआ और न ही किसी के संग-साथ की उसने कोई दूसरी जुगत सोची. सर पर बेवड़ा लिये बेहिचक पानी लेने ठेठ कुइयों तक जाती और भरा बेवड़ा लेकर वापस बेहिचक अकेली आती. सर पर सूरज भगवान की निगहदारी, फिर बेचारे इनसान से क्या भय! कबूतरों वाला आदमी सामने मिलता हो तो मिले, वो तो उल्टा राह छोड़कर काफी दूर से निकल जाता है. कभी आँख उठाकर भी उसकी ओर नहीं देखता. अगर अपने मन में कोई पाप नहीं है तो फिर वो कबूतरों के बदले नंगी तलवार लेकर उसके पास से निकले तो भी उसका क्या बिगाड़ लेगा! पर बस्ती के दूसरे मर्द तो एकदम टुच्चे हैं. शादीशुदा होते हुए भी ऐसे बदनीयत हैं, मानो आज दिन तक किसी औरत-जात की शक्ल देखना तो दूर उसका नाम तक न सुना हो. खूबसूरत औरत का पका हुआ मांस तक खाने के लिए भी इन लफंगों की मनाही नहीं है.
गांव के घर-घर में उस खब्ती आदमी की चर्चा वक्त-बेवक्त चलती ही रहती थी. ऐसा पागल व्यक्ति तो बैरन की कोख में भी पैदा न हो. राम जाने अकेले रहने में ही इसे क्या सुख मिलता है! देखते-देखते अपनी सारी बपौती फूंक दीफकत इन कबूतरों की खातिर. पिछले जन्म में जरूर यह बावला कबूतरों की बिरादरी का सरदार रहा होगा. हजार सफेद कबूतर इकट्ठे करने की सनक पाल रखी है. न आज तक किसी का कहना माना है, न आगे भी मानेगा. कबूतरों के सिवाय उसे दूसरी किसी बात का शौक नहीं. न मवेशियों का, न खेत-खलिहानों का, न जमीन-जायदाद का, न धन-दौलत का और न ही घर-गृहस्थी का. इनसान की योनि में आकर कबूतरों के साथ जिन्दगी काट रहा है.
हर रोज दो नये कबूतर पकड़ने का प्रण पूरा किये बगैर वो मुंह में पानी तक नहीं डालता था. राम जाने किस जंगल के किस कोने से वो सफेद कबूतर पकड़कर लाता था? कबूतर हाथ लगने पर उसे ऐसा लगता गोया चांद-सूरज उसकी पकड़ में आ गये हों. एक बार बाड़े में पहुँचने के बाद भोले कबूतर उस ठौर को छोड़ना ही नहीं चाहते थे. मानो जन्म देने वाले मां-बाप के घोंसले में आ गये हों. उससे नजरें चार होते ही कबूतर तो कबूतर, बाज, गिद्ध, कौवे और सांप तक उस पर एतबार कर लेते थे. पर उसने अपनी प्रीत का प्रसाद कबूतरों के सिवाय किसी को नहीं बाxटा. हाथों से दाना चुगाता. हाथों से पानी पिलाता. एक-एक कबूतर को प्यार से सहलाता.
एक दफा उस लजवन्ती नार को राम जाने कैसा अन्देशा हुआ कि अपनी छोटी ननद से साथ चलने को कहा. सारी बात ध्यान से सुनकर ननद ने फौरन उसके वहम का निबटारा कर दिया. कहने लगी, ‘कबूतर वाले इस पागल आदमी से तो जरा भी डरने की जरूरत नहीं है. यह तो सपने में भी किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाता. निरीह कबूतर तक जब उसका भरोसा कर लेते हैं तो फिर तुम्हें काहे का डर!’
उसके बाद दूसरे-तीसरे दिन बीच राह उस आदमी से सामना हो जाता. झीने घूँघट से उसकी छवि ठीक से नहीं दिखती, तब वह कभी-कभी पीछे मुड़कर, घूँघट हटाकर उसे देखती. पर वो आदमी अपनी धुन के सिवाय किधर भी आड़ा-टेढ़ा नहीं झाँकता था. वह मुँह मस्कोरकर, निरुपाय आगे चल पड़ती. होंठों-ही-होंठों में कुनमुनातीबावला कहीं का! मां की कोख ने नाहक नौ महीने बोझ ढोया. पर मर्द जात होकर वह राह से दूर क्यूं हट जाता है? औरतों का डरना तो वाजिब है, पर इसके मन में ऐसा क्या डर है? बिलकुल उलटी खोपड़ी का है.
एक दफा पानी भरने के बाद वह रस्सी समेट रही थी कि वो सामने से आता दिखायी दिया. पानी सूखने पर कुएं से सटकर सीधा रास्ता था. कोई दूसरा आदमी होता तो प्यास के बहाने जरूर पानी पीने आता. पर इसे तो कबूतरों के अलावा कुछ दिखता ही नहीं. कुएं के करीब से जब वो आगे निकलने लगा तो उसने टिचकारी देकर हाथ से बुलाया. उसने मुंह फिराकर उसकी ओर देखा. तब उसने बेवड़ा उठवाने का इशारा किया, पर वो तो अपनी जगह से हिला ही नहीं. खड़े-खड़े ही अबूझ बच्चे की तरह बोला, ‘मेरे तो दोनों हाथों में कबूतर हैं. छोड़ूंगा तो उड़ जायेंगे.’
फकत इतनी बात जतलाकर, वो आगे अपनी राह चल दिया. और वह लजवन्ती नार पाषाण-पुतली के उनमान एक ठौर रुप गयी. कुछ देर बाद होश आने पर ऐसा लगा मानो किसी अदीठ आग में उसका रूप-यौवन धू-धू जल रहा हो. इससे तो मौत आ जाये तो बेहतर. बेमन हाथों बेवड़ा क्या उठाया मानो दो अनघड़ पत्थर सर पर रखे हों.
दूसरे दिन राम जाने क्या सोचकर वह घर से बड़ा घड़ा और बड़ा कलश लेकर पानी लेने रवाना हुई. हमेशा से घड़ी-सवा-घड़ी पहले. संयोग की बात कि रस्सी समेटने के बाद उसने इधर-उधर देखा ही था कि वो गांव से आता दिखायी दिया. कुएं से दो-एक खेतवा दूर. शायद कबूतरों की खोज में जा रहा है. ज्यों-ज्यों वो नजदीक आने लगा त्यों-त्यों वह दाहिने हाथ से पीठ पीछे का ओढ़ना इस तरह नीचे सरकाने लगी, मानो उसे इस हरकत का कोई ध्यान ही न हो. मानो वो हाथ और वो जिस्म, उसका न होकर किसी और का हो. करीब आते ही उसे बतलाते कहने लगी, ‘अब तो तुम्हारे दोनों हाथ खाली हैं. फिर क्या बहाना लेकर मना करोगे?’ उस अमृतवाणी से चौंककर वो लजवन्ती के चेहरे की ओर देखकर होंठों-ही-होंठों में बड़बड़ाया, ‘अब तो फकत इक्कीस कबूतरों की कमी है.’
तब वह लजवन्ती नार मुस्कराती-सी बोली, ‘कम हैं तो पूरे कर लेना, पहले मुझे बेवड़ा तो उठवा दो.’ ‘कल किसने उठवाया था?’ ‘कल तुमने मना कर दिया तो गुस्से के जोर से मैंने आप ही उठा लिया.’ ‘अब वो गुस्सा कहां गया?’ ‘पर आज तो गुस्सा करने पर भी यह बेवड़ा उठने का नहीं है.’ ‘क्यूँ, आज ऐसी क्या नयी बात हो गयी?’ ‘दिखता नहीं, यह बेवड़ा उससे कितना बड़ा है?’ ‘तब यह बड़ा बेवड़ा किसके भरोसे लायी?’ ‘किसी भले आदमी के भरोसे, जिसके हाथों में अभी कबूतर नहीं हैं.’
तब वो गर्दन लचकाता कहने लगा, ‘जब तुमने इतना भरोसा किया है तो जरूर पूरा करूंगा.’ और वाकई वो नीमपागल आदमी उसे बेवड़ा उठवाकर झट रवाना हो गया. न आगे बात बढ़ायी और न एक बार भी पीछे मुड़कर देखा. इसके बनिस्बत घूंघट का भरम बना रहता तो बेहतर था. सृष्टि-रचना से आज तक किसी खूबसूरत औरत के यौवन की इतनी तौहीन नहीं हुई होगी. राह का फासला तय करना मुश्किल हो गया.
दूसरे दिन वह ननद को साथ लेकर कबूतरों के बाड़े में गयी. वह छाती तक घूंघट डाले बाड़े का फलसा उघाड़कर भीतर घुसी. अजीब और अनूठा नजारा था. अनगिनत सफेद कबूतर-ही-कबूतर उसके इर्द-गिर्द दाना चुग रहे थे. गुटरगूं-गुटरगूं की अमृतवाणी घोलते, पंख फड़फड़ा रहे थे. बारी-बारी उमंग से उस आदमी के सर और कन्धे पर चढ़-उतर रहे थे. दोनों बिलकुल पास चली गयीं, तब भी कबूतरों तक ने कोई तवज्जुह नहीं दी. न डरे और न ही उड़े. उस आदमी की आँखों के सामने फकत कबूतर-ही-कबूतर नाच रहे थे. फिर वो क्यूँ किसी का ध्यान रखे.
ननद जोर से पुकारकर बोली, ‘मेरी भाभी कबूतरों का मेला निरखने के लिए आयी है.’ तब वो कबूतरों को दाना चुगाते हुए कहने लगा, ‘पहले ही आना चाहिए था. कबूतरों से बढ़कर इस दुनिया में है ही क्या! पर घूंघट में यह नजारा ठीक से नजर नहीं आयेगा. इन भोले कबूतरों से कैसी शर्म!’
पर तब भी लजवन्ती नार ने घूंघट नहीं हटाया. ननद बोली, ‘मेरी भाभी ने तो घूंघट न हटाने की मानो कसम खा रखी हो. मैंने भी अभी तक इसका मुँह नहीं देखा.’
कुछ देर घूंघट के भीतर से ही वो नजारा देखकर वह जैसे आयी थी, वैसे ही वापस चल दी. अपनी धुन में मगन वो कबूतरों को दाना चुगाता रहा. लजवन्ती नार घर आयी तब भी उसकी आँखों के आगे वो ही नजारा पंख फड़फड़ा रहा था. मीठी गुटरगूं. वे ही सफेद कबूतर समूची मेड़ी में फड़फड़ाने लगे सो रुके ही नहीं. बेइख्तियार पति के गालों पर हाथ फिराते कहने लगी, ‘तुम दाढ़ी रखो तो तुम्हें भी खूब फबेगी.’ और उस सुझाव के साथ ही वह आँखें मूँदकर पति के बहाने उस कबूतर वाले आदमी की बांहों में समा गयी और काली भुजंग दाढ़ी के परस से अपनी सुध-बुध ही भूल गयी. फिर तो कितनी रात और कितना सपना!
दूसरे दिन पनघट की आधी राह तय करने पर उसे सपने वाला आदमी सामने से आता दिखायी दिया. दोनों आमने-सामने राह चल रहे थे. औरत के सर पर खाली बेवड़ा और आदमी के दोनों हाथों में दो कबूतर. पर आज यह आदमी रास्ते से अलग क्यूँ नहीं हटा? लजवन्ती के रोम-रोम में झुरझुरी दौड़ गयी. निगोड़े के मन में खोट दिखती है! यह सुनसान जंगल! कोई आवाज सुनने वाला भी आसपास नहीं है. अब करे तो क्या करे?
पर उसे कुछ भी करने की जरूरत नहीं पड़ी. बीस कदम दूर से ही वो आंय-आंय बोलते कहने लगा, ‘फकत दो कबूतर कम हैं. कल मेरा प्रण पूरा होगा. इस खुशी में राह से हटना भूल गया. पर मुझसे डरने की कतई जरूरत नहीं है. इतने बरस कबूतरों की सोहबत यों ही नहीं की!’
मन का खटका मिटते ही वह घूँघट के भीतर से बोली, ‘कबूतरों की सोहबत से तुम कंकर खाना तो नहीं सीखे!’ वो आदमी कुछ धीमा पड़कर कहने लगा, ‘उनकी देखा-देख कंकर खाने की कोशिश तो बहुत की, पर कामयाबी नहीं मिली. पेट फूलकर ढोल हो गया. बड़ी मुश्किल से मरते-मरते बचा.’
अपने ही मन का चोर लुप्त होने पर उस लजवन्ती नार को काफी-कुछ इतमीनान हो गया. घूंघट के भीतर मुस्कराती-सी बोली, ‘कबूतर तो एक पल की खातिर भी कबूतरी का पीछा नहीं छोड़ते, पर तुमने तो अभी तक ब्याह ही नहीं किया. औरतजात से ही किनारा करते हो.’
काली-भुजंग दाढ़ी के भीतर दूधिया हँसी छितराता वो कहने लगा, ‘कल प्रण पूरा होने पर यह बात सोचूंगा. पर सपने के लायक कबूतरी मिलना वश में थोड़े ही है! सपने की उस कबूतरी की खातिर ही तो यह प्रण पाला है. बाईस बरस पहले मुझे ऐसा ही एक अनहोना सपना आया था. तभी से मैंने उस सपने का पीछा नहीं छोड़ा.’
तब वह अकेली पनिहारी खिल-खिल हंसती बोली, ‘पागल के सर पर सींग थोड़े ही होते हैं! उस सपने के भरोसे सारी जिन्दगी गंवा बैठोगे.’ किसी अदीठ खुशी के जोर से वो आदमी उत्साह से कहने लगा, ‘हजार कबूतरों की आसीस से क्या मुझे एक भी वैसी कबूतरी नहीं मिलेगी?’
उस सवाल का कोई पुख्ता जवाब न देकर, वह आगे रवाना होते हुए बोली, ‘तुम जानो और तुम्हारा सपना जाने. मुझे तो पानी को देर हो रही है.’ फिर तो उसने पीछे मुड़कर ही नहीं देखा. पर चोटी की सुरंगी लड़ियों में उलझी उस आदमी की निगाहों ने काफी दूर तक उसका पीछा नहीं छोड़ा.
दूसरे दिन फिर उसी जगह सामना हुआ. दोनों हाथों के कबूतरों को लजवन्ती के घूंघट के सामने करते वो बेइन्तहा खुशी से बोला, ‘आज मेरी प्रतिज्ञा पूरी हुई. भोले कबूतर जरूर मेरे सपने की लाज रखेंगे.’
यह बात कहकर उसने बावले की तरह खाली कलश की ओर ऊपर देखा ही था कि यकायक वह लजवन्ती एक फटकार के साथ घूंघट हटाकर तेज सुर में बोली, ‘भोले कबूतरों की सोहबत से ही तुमने ये बिल्लीवाले छलकपट सीखे हैं? तुम्हारी आँखों का मैल मुझे साफ नजर आ रहा है. इस सुनसान जंगल में मेरे साथ जबरदस्ती करना चाहते हो?’
‘पर मेरे दोनों हाथों में तो कबूतर हैं.’ ‘तो क्या हुआ? कबूतर खाली घड़े में डालकर ऊपर से कलश का ढक्कन नहीं दिया जा सकता?’
लजवन्ती के उन बोलों के साथ वो आदमी खुशी से नाचता बोला, ‘हू-ब-हू वो ही सपना! मुझे कल की तरह याद है. मेरे सपने की कबूतरी, तूने मुझे बाईस बरसों के बाद दरसन दिये. शायद उसी रात तेरा जन्म हुआ होगा. अब ये कबूतर उड़ते हैं तो उड़ने दो. सारा आकाश सामने पड़ा है.’ तब शर्म से दुहरी हुई लजवन्ती के कानों को मनचाही फुसफुसाहट सुनायी दी, ‘मेरे सपनों की कबूतरी! अब तो एक पल की जुदाई भी मेरे वश में नहीं है.’
दाढ़ी के वास्तविक परस से उसने होश-हवास बिसराते पूछा, ‘तब इतने बरस यह जुदाई कैसे बर्दाश्त की?’ ‘पर मेरा सपना तो आज ही सच हुआ है! फिर जुदाई कैसी!’ हाथों की बन्दिश से छूटते ही दोनों कबूतर सफेद पंख फड़फड़ाते उड़े सो उड़ते ही गये. अछोर आसमान जाने और उनके पंख जानें.