साल 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी दलों का एक गठबंधन बना, ‘INDIA’. मकसद था नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की अगुआई वाली BJP को रोकना. हालांकि गठबंधन अपने मकसद में सफल नहीं हो सका, लेकिन चुनावी नतीजों ने बताया कि इसने नरेंद्र मोदी सरकार की धाक कुछ कम जरूर कर दी. भारत की राजनीति में ये कोई नया प्रयोग नहीं था. विपक्ष को एक छतरी के नीचे लाने का ये प्रयोग सबसे पहले डॉ. राम मनोहर लोहिया ने किया था. और इसकी प्रयोग भूमि बना था बिहार.
बिहार की पहली गैर-कांग्रेसी सरकार की कहानी, जनसंघ-CPI भी एक हो गए थे, काम और कारनामे क्या थे?
साल 1967 में पहली बार Bihar में गैर कांग्रेसी सरकार बनी. और Mahamaya Prasad Sinha मुख्यमंत्री बनाए गए. इस मंत्रिमंडल में Bhartiya Jan Sangh (अब बीजेपी) और Communist Party Of India (CPI) दोनों दलों के विधायक मंत्री बनाए गए.
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साल 1967 के विधानसभा चुनाव में बिहार की सत्ता में काबिज कांग्रेस पार्टी के खिलाफ विपक्षी दलों का एक गठबंधन बना. इसमें डॉ. लोहिया की संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP), प्रजा सोशलिस्ट पार्टी (PSP), भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (CPI), स्वतंत्र पार्टी, माकपा CPI (M) और जन- क्रांति दल जैसी कई पार्टियां शामिल रहीं. भारतीय जनसंघ ने अलग से चुनाव लड़ा था. लेकिन चुनाव नतीजों के बाद वो भी इस गठबंधन में शामिल हो गया (साल 1980 में जनसंघ के नेताओं ने ही बीजेपी का गठन किया था).
कांग्रेस भ्रष्टाचार, आपसी कलह और लोहिया के ‘गैर कांग्रेसवाद’ के नारे तले हुए विधानसभा चुनाव में पहली बार बहुमत से दूर रह गई थी. पार्टी राज्य की 318 विधानसभा सीटों में से सिर्फ 128 सीटें ही हासिल कर पाई. विपक्षी दलों में संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (SSP) को सबसे अधिक 68 सीटें मिलीं. वहीं भारतीय जनसंघ को 26, CPI को 24, जनक्रांति दल को 26, PSP को 18, झारखंड पार्टी को 13, CPI (M) को 4, स्वतंत्र पार्टी को 3 और अन्य को 8 सीटें मिलीं.
कांग्रेस पार्टी सबसे ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद बहुमत के आंकड़े से दूर रही. और जादुई आंकड़े तक पहुंचने के लिए कोई सहयोगी भी नहीं जुटा पाई. इसके बरअक्स SSP की अगुआई वाली संयुक्त विपक्ष ने बहुमत का आंकड़ा जुटा लिया था. चुनाव नतीजों के बाद साफ हो गया था कि राज्य में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार बनने जा रही है.
विपक्षी गठबंधन में सबसे ज्यादा 67 सीटें SSP को मिली थीं. तब बिहार SSP के सबसे बड़े नेता कर्पूरी ठाकुर थे. ऐसे में मुख्यमंत्री पद को लेकर उनकी दावेदारी सबसे बड़ी थी. पार्टी के शीर्ष नेता और विपक्षी एकता के शिल्पकार लोहिया भी उनको मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे. कर्पूरी ठाकुर ने चौथी बार ताजपुर विधानसभा चुनाव से जीत दर्ज किया था.
चुनाव नतीजों के बाद डॉ. लोहिया पटना पहुंचे. उन्होंने कर्पूरी ठाकुर को मुख्यमंत्री बनाने की पुरजोर कोशिश की. इसकी वजह थी SSP का दूसरी बार सबसे पार्टी बनकर उभरना और कर्पूरी ठाकुर का सबसे लोकप्रिय नेता होना.
इसी दौरान इस बात पर भी सहमति बनी कि SSP, PSP, जन क्रांति दल, स्वतंत्र पार्टी, CPI और भारतीय जनसंघ मिलकर सरकार बनाएंगे. इस सरकार को संयुक्त विधायक दल (SVD) के नाम से जाना जाएगा.
कर्पूरी ठाकुर के नाम पर नहीं बनी सहमतिपटना के विधायक क्लब में संयुक्त विधायक दल की औपचारिक बैठक शुरू होने से पहले तय हुआ कि विपक्ष के शीर्ष नेता SSP के वरिष्ठ नेता और बड़हिया विधायक कपिलदेव सिंह के आवास पर मिलेंगे. बैठक से पहले माना जा रहा था कि कर्पूरी ठाकुर की उम्मीदवारी पर मुहर लग जाएगी. लेकिन जब बैठक हुई तो जन क्रांति दल के नेता महाराजा कामाख्या नारायण सिंह और उनके भाई बसंत नारायण सिंह ने कर्पूरी ठाकुर के नाम पर आपत्ति जता दी.
इंडियन एक्सप्रेस से जुड़े संतोष सिंह अपनी किताब 'जननायक' में कपिलदेव सिंह के पुत्र अर्जुन सिंह के हवाले से लिखते हैं,
महाराजा कामाख्या नारायण सिंह और उनके भाई को सबसे आखिरी में बोलना था. महाराज ने अपने भाषण में साफ-साफ कहा कि वे कर्पूरी ठाकुर को अपना नेता स्वीकार नहीं करेंगे. उन्होंने मुख्यमंत्री पद के लिए अपनी पार्टी के विधायक महामाया प्रसाद सिन्हा का नाम आगे किया. चूंकि वहां मौजूद अन्य सभी लोग पहली बार एक गैर-कांग्रेसी सरकार बनाने का ऐतिहासिक मौका गंवाना नहीं चाहते थे, इसलिए उन्होंने महामाया प्रसाद सिन्हा के नाम पर सहमति दे दी.
अर्जुन सिंह बताते हैं कि इस दौरान महाराजा के भाई बसंत नारायण सिंह, जो कि ऑक्सफोर्ड से पढ़ाई करके आए थे, बीच-बीच में कुछ-कुछ बोलते रहे. और अगर कोई उन्हें टोकने की कोशिश करता तो वे उन लोगों से सीधा सवाल करते, “क्या आपको मेरी अंग्रेजी समझ में आती है?” ऐसा कहकर वे सभी को चुप करा देते. अर्जुन सिंह के मुताबिक,
लोहिया ने लगाई कर्पूरी ठाकुर को फटकारइस बैठक में कर्पूरी ठाकुर सिर्फ जमीन को ताक रहे थे. उन्होंने पूरी मीटिंग में एक शब्द भी नहीं बोला. मेरे पिता कपिलदेव सिंह और रामानंद तिवारी ने भी कामख्या नारायण के सुझाव का समर्थन किया.
महामाया प्रसाद सिन्हा को मुख्यमंत्री चुनने का एक बड़ा कारण उनका वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानी होना था. उनके पक्ष में एक और तर्क दिया गया कि उन्होंने पटना (पश्चिम) निर्वाचन क्षेत्र से मौजूदा मुख्यमंत्री कृष्ण वल्लभ सहाय को पटखनी दी थी. सहाय के पक्ष में कहा गया कि जिसने सीएम को हराया है, उसे सीएम बनना चाहिए.
डॉ. लोहिया संयुक्त विधायक दल के नेता चुने जाने के वक्त पटना में नहीं थे. वरिष्ठ नेता राजनारायण के साथ वो चुनाव की थकान मिटाने रामेश्वरम चले गए थे. उन्होंने बिहार इकाई पर निर्णय लेने का जिम्मा छोड़ दिया था. डॉ. लोहिया को जब पता चला कि कामाख्या नारायण सिंह के दबाव में आकर ओबीसी या दलित पृष्ठभूमि से आने वाले किसी व्यक्ति के बजाय किसी ऊंची जाति के नेता को मुख्यमंत्री चुना गया तो उन्होंने महाराजा को तो फटकार लगाई ही, कर्पूरी ठाकुर से भी नाराजगी जताई.
वरिष्ठ समाजवादी कार्यकर्ता उमेश प्रसाद सिंह ने बताते हैं,
डॉ. लोहिया ने कर्पूरी ठाकुर को फटकार लगाई कि उन्होंने महामाया सिन्हा के नाम पर आपत्ति क्यों नहीं जताई. लोहिया ने कहा कि अगर सीएम को हराने वाले को ही सीएम बनना था तो आपने रघुनंदन प्रसाद का नाम आगे क्यों नहीं किया जिन्होंने हजारीबाग सीट से केबी सहाय को शिकस्त दी थी. रघुनंदन प्रसाद कोइरी जाति से थे.
खैर महामाया प्रसाद सिंह बिहार में पहली गैर कांग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री बने. कर्पूरी ठाकुर को उपमुख्यमंत्री बनाया गया. लेकिन मंत्रिमंडल के गठन को लेकर मतभेद पैदा हो गया. एक-दूसरे के कट्टर विरोधी विचार वाले सीपीआई और भारतीय जनसंघ के नेता एक साथ किसी मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होना चाहते थे.
वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर के मुताबिक,
डॉक्टर लोहिया ने दोनो दलों के कुछ शीर्ष नेताओं से पटना में बंद कमरे में बातचीत की. और उन लोगों में सहमति बन गई. सरकार को स्थिरता देने के उद्देश्य से जनसंघ और सीपीआई के नेता एक ही मंत्रिमंडल में मंत्री बने.
ये अपनेआप में एक अनोखा सियासी कारनामा था. ऐसा न इसके पहले हुआ था, न इसके बाद कभी हुआ. साल 1990 में लालू यादव की जनता दल की सरकार को लेफ्ट और बीजेपी ने बाहर से समर्थन जरूर किया था, लेकिन सरकार में इनकी हिस्सेदारी नहीं थी.
महामाया कैबिनेट में अलग-अलग पार्टियों से कई मंत्री बनाए गए. इनमें SSP से रामानंद तिवारी, सीपीआई से चंद्रशेखर सिंह और इंद्रदीप सिन्हा, भारतीय जनसंघ से विजय कुमार मिश्रा, रामदेव महतो और रुद्र प्रताप सारंगी को शामिल किया गया था. जन क्रांति दल के कामख्या नारायण सिंह और उनके भाई बसंत नारायण सिंह को भी मंत्री बनाया गया.
कर्पूरी ठाकुर के दो सबसे प्रमुख सहयोगी और SSP के सीनियर नेताओं में से एक रामानंद तिवारी के हिस्से एक महत्वपूर्ण विभाग आया. वहीं कपिलदेव सिंह को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया. उमेश प्रसाद सिंह बताते हैं कि इसको लेकर तिवारी और कपिलदेव सिंह की कर्पूरी से फोन पर तीखी बहस भी हुई. वरिष्ठ समाजवादी नेता मधु लिमये ने इन नेताओं की सुलह कराई. कपिलदेव सिंह को खाद्य मंत्री बनाया गया और रामानंद तिवारी को पुलिस मंत्री बनाया गया. जो कर्पूरी ठाकुर के बाद SSP को मिलने वाला सबसे बड़ा मंत्रालय था.
महामाया-कर्पूरी सरकार ने कई बड़े सुधार किएमहामाया प्रसाद सिन्हा की कैबिनेट में कोई भी ऐसा मंत्री नहीं था, जिस पर भ्रष्टाचार का दाग हो. इस सरकार ने अपने शुरुआती कार्यकाल में कई बड़े फैसले किए. सुरेंद्र किशोर बताते हैं कि सिन्हा सरकार के गठन के शुरुआती तीन महीनों तक सरकारी दफ्तरों में घूसखोरी लगभग बंद हो गई थी. सरकारी ब्यूरोक्रेसी, ईमानदार राजनीतिक कार्यपालिका से डर गई थी.
संतोष सिंह अपनी किताब जननायक में कर्पूरी ठाकुर के बेटे और जदयू के राज्यसभा सांसद रामनाथ ठाकुर के हवाले से इस सरकार की उपलब्धियों का जिक्र करते हैं. इस सरकार में अंत्योदय योजना के तहत शारीरिक श्रम के बदले अनाज उपलब्ध कराने की योजना शुरू हुई. छात्रों के लिए स्कॉलरशिप योजना शुरू हुई. और 10वीं क्लास के लिए अंग्रेजी को अनिवार्य विषय की सूची से हटा दिया गया. साथ ही राज्य सरकार ने 7वीं क्लास तक की स्कूल फीस भी माफ कर दी.
इसके साथ ही महामाया-कर्पूरी सरकार की एक बड़ी उपलब्धि सीमित संसाधनों के बावजूद ऐतिहासिक अकाल से निपटना था. इसमें कर्पूरी ठाकुर और खाद्य मंत्री कपिलदेव सिंह की बड़ी भूमिका थी.
अय्यर आयोग का गठन हुआमहामाया सरकार ने अपना चुनाव केबी सहाय सरकार के भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ा था. इसलिए सरकार बनने के बाद सुप्रीम कोर्ट के रिटायर जज टीएल वेंकटराम के नेतृत्व में एक न्यायिक आयोग का गठन किया गया. इस आयोग को केबी सहाय और उनके मंत्रिमंडल में शामिल महेश प्रसाद सिन्हा, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, राम लखन सिंह यादव, अम्बिका शरण सिंह और राघवेंद्र नारायण सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच करनी थी.
गिरीश मिश्र और व्रज कुमार पांडे की किताब बिहार में जातिवाद (स्वतंत्रता के बाद) के मुताबिक, अय्यर आयोग ने केबी सहाय, महेश प्रसाद सिन्हा, सत्येंद्र नारायण सिन्हा, राघवेंद्र नारायण सिंह और अम्बिका शरण सिंह के खिलाफ पक्षपात और भाई भतीजावाद के आरोपों को सही पाया.
10 महीने ही चल पाई पहली गैर कांग्रेसी सरकारमहामाया सरकार में ओबीसी (यादव जाति) के प्रभावशाली नेता बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल को भी मंत्री बनाया गया था. मंडल उस समय लोकसभा के सदस्य थे. वे बिहार में किसी सदन के सदस्य नहीं थे. डॉ. लोहिया ने इसका विरोध किया. लोहिया संसद की सदस्यता छोड़कर किसी नेता के राज्य सरकार में मंत्री बनने के सख्त खिलाफ थे. इसके चलते बीपी मंडल को इस्तीफा देना पड़ा.
इसके अलावा SSP के एक और नेता थे. जो मंत्री पद नहीं मिलने से नाराज थे. उनका नाम था जगदेव प्रसाद. उनकी जगह उनकी ही कुशवाहा जाति के जूनियर नेता उपेंद्र नाथ वर्मा को राज्यमंत्री बना दिया गया था. ये दोनों घटनाएं सरकार के गिरने का सबसे बड़ा कारण रहा.
मंत्री पद से हटाए जाने से बीपी मंडल काफी नाराज चल रहे थे. उनको जगदेव प्रसाद का भी साथ मिल गया. साथ ही बीपी मंडल ने अपने लिए बड़ी महत्वकांक्षाएं पाल रखी थीं. जिनको हवा मिली कांग्रेस के शीर्ष नेताओं केबी सहाय, महेश प्रसाद सिन्हा और सत्येंद्र प्रसाद सिन्हा से.
अय्यर आयोग की रिपोर्ट में नाम आने से खार खाए ये नेता महामाया सरकार को गिराने का मौका तलाश रहे थे. सहाय और दोनों सिन्हा ने मिलकर बीपी मंडल और जगदेव प्रसाद को विश्वास दिलाया कि SSP से अलग होने पर कांग्रेस उनको पूरा समर्थन करेगी.
जनवरी 1968 को संयुक्त विधायक दल की सरकार गिर गई. SSP से अलग होकर बीपी मंडल और जगदेव प्रसाद ने कुछ नेताओं की मदद से शोषित दल का गठन किया. इस पार्टी में SSP, जनसंघ, CPI और दूसरे दलों से टूटकर आए 38 विधायक शामिल हुए. इन सभी को मंत्री बनाया गया.
कांग्रेस के समर्थन से बीपी मंडल मुख्यमंत्री बनेचूंकि बीपी मंडल किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे, इसलिए पांच दिनों के लिए सतीश प्रसाद सिंह को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया गया. सतीश प्रसाद 28 जनवरी 1968 से 1 फरवरी 1968 तक मुख्यमंत्री रहे. मंडल के बिहार विधान परिषद के सदस्य चुने जाने के बाद सतीश प्रसाद ने उनके लिए इस्तीफा देकर सीएम की कुर्सी खाली कर दी. और बीपी मंडल मुख्यमंत्री बने. मंडल के एक और सहयोगी जगदेव प्रसाद भी पांच दिन के लिए सीएम बनना चाहते थे, लेकिन मंडल को उन पर भरोसा नहीं था. उनको डर था कि दबंग प्रवृति के जगदेव प्रसाद फिर सीएम पद छोड़ने में आनाकानी कर सकते थे.
बीपी मंडल के नेतृत्व वाली ये सरकार भी 47 दिनों तक ही चल सकी. इसका कार्यकाल 1 फरवरी 1968 से 18 मार्च 1968 तक चला. ये सरकार उस समय गिर गई जब उसका समर्थन कर रही कांग्रेस पार्टी के नेता विवेकानन्द झा ने अपनी एक अलग पार्टी बना लीृ लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी.
डॉ. राममनोहर लोहिया ने कांग्रेस के भ्रष्टाचार और परिवारवाद के विरोध में चुनकर आई सरकार के लिए ऊंचे नैतिक मानदंड निर्धारित किए थे. जिस पर उनकी पार्टी के नेता नहीं टिक सके. आपसी प्रतिद्वंद्विता, जातिवाद, स्वार्थ, लालच और सत्तालोलुपता के चलते ये सरकार टिकाऊ नहीं हो पाई. लेकिन इस सरकार के गठन ने बिहार की सत्ता से कांग्रेस पार्टी की विदाई की नींव रख दी.
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