अश्लील, फूहड़, गन्दा सिनेमा? भोजपुरी सिनेमा.
समझिए कि अब अश्लील और भोजपुरी एक दूसरे के पर्यायवाची हो गए हैं. अगर सिनेमा गंदा होता है तो वो भोजपुरी है. बस ये समझ लीजिए हालत ये है कि इन फिल्मों को बनाने वाले भी अपनी ही फिल्मों को अपने परिवार के साथ कभी नहीं देखते.
मैं इस पर रवि किशन जैसे थेथरई नहीं करना चाहता हूं कि भोजपुरी में सब बढ़िया हो रहा है और लोग फालतू ही कहते हैं कि गंदा है. ये सब बकलोल वाला बात है. सच तो ये है कि भोजपुरी सिनेमा इतना अश्लील है कि शायद कटप्पा ने बाहुबली को मारा भी इसलिए था क्योंकि उन्होंने उसे भोजपुरी फिल्म दिखा दी थी.
मुंबई में आपको ऐसे भतेरे एक्टर मिल जाएंगे जो हिंदी और भोजपुरी फिल्मों में छोटे-छोटे रोल अपना असली नाम बदल कर करते हैं. वो भोजपुरी का ठप्पा नहीं चाहते. ठीक उसी तरह जैसे हज़ारों बिहारी अपने आपको बिहारी नहीं कहते. और कहते हैं तो सीधा ‘प्राउड बिहारी’ कहते हैं. काहे का प्राउड? क्योंकि अशोक 5000 साल पहले आया. लेकिन अब तो लालू ही है. क्योंकि नालंदा 4000 साल पहले खुला. लेकिन बिहारियों को एनसीआर, पुणे, बेंगलुरु यहां तक कि सांगली-लातूर तक भागना पड़ता है पढ़ाई करने के लिए. क्योंकि चाणक्य ने अर्थशास्त्र लिखा था बिहार में. और उसका सबसे कम इस्तेमाल किसने किया? आर्यभट्ट ने जीरो मने शून्य का आविष्कार किया तो हम लोग उसी को पकड़ के बैठ गए. कामसूत्र हमारे यहां लिखा गया और इस तरह से हम विश्व के सबसे ज्यादा जन-घनत्व वाला इलाका बन गए.
मतलब बिहार का तो ऐसा हालत हो गया है कि पूछिए मत. सबसे हंसी वाली बात तो यह है कि हम किसी के IAS, IPS बनने को ऐसे देखते हैं जैसे किसी को भगवान का पोस्ट मिल गया हो. सामंती/जमींदार बनना हमारे खून में है. और ये हम आलोचना नहीं कर रहे है. चिंता है, फ़िक्र है. झूठ-मूठ का प्राउड हमसे न हो पाएगा. वर्तमान देखना होगा.
हां, लेकिन हमारे यहां के चूहे दारू पीते हैं, इस पर हमको फक्र है ;)
भोजपुरी फिल्म मेहरारू चाही मिल्की वाइट का पोस्टर.
हम बिहारी पूर्वांचल वाले भटक गए
ख़ैर, हम लिखना यह चाह रहे हैं कि भोजपुरी का ही सिनेमा ऐसा क्यों हो गया? हमारे बगल वाले बंगाल में सत्यजीत रे, मृणाल सेन और रित्विक घटक हुए और हम बिहारी पूर्वांचल वाले भटक गए. देखिए 17 साल के लड़का का बाल पक जाता है कई बार, लेकिन बाल रंगना उसका इलाज नहीं है. दिक्कत Genetics का है या Hormonal Imbalance का है.
बिहार में पांच भाषा हैं, या तीन भी कह सकते हैं - भोजपुरी, मैथिली और मगही. उसके अलावा अंगिका और बज्जिका. उत्तर प्रदेश में 3-4 भाषा हैं. अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली और मगही में बहुत साहित्य है. करोड़ों लोग बोलते हैं. लेकिन हिंदी थोपे जाने के बाद भयंकर Imbalance हुआ है. आम बिहारी और उत्तर प्रदेश वाला न हिंदी ठीक बोल पाता हैं न अपना भासा से उसे प्रेम या संवेदना रहा. हम लोग जिंदगी भर हिंदी सुधारते रहते हैं क्योंकि हम तो देहाती हैं. ब्रज, अवधी, भोजपुरी, मैथिली कैसे बोलें! हम उत्तर प्रदेश और बिहार वालों को तो हिंदी का शेक्सपीयर बनना है!
आपने ‘बीमारू’ राज्यों (BIMARU – बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश) का नाम सुना है? वईसे तो ऐसा बोलने वाले का मुंह काला हो लेकिन ‘बीमारू’ वही राज्य हुए जिन्होंने अपनी भाषा नहीं बचाई. भाषा का सीधा लिंक आर्थिक विकास से है.
नितिन की प्रशंसित फिल्म 'वंस अपॉन..' का ट्रेलर जिसे भोजपुरी
फिल्म 'देसवा' से हिंदी में डब करके रिलीज किया गया:https://www.youtube.com/watch?v=ir3-_WcOSow
1872 तक पूर्वांचल और बिहार भर में कोर्ट और सरकारी कामकाज़ की लिपि कैथी थी. दसवीं शताब्दी से भोजपुरी लिखे जाने के प्रमाण मिलते हैं. लेकिन बिहारी और उत्तर प्रदेशियों (भईय्या) लोगों को पहले यक़ीन दिलवाया गया कि तुम सब घनघोर देहाती और गंवार हो. पहले अंग्रेज़ों ने भारतीयों को ये महसूस करवाया, बाद में अति-हिंदीवादियों ने भी यही किया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल व अमीर खुसरो जैसे लोगों की ब्रज, तुलसीदास से लेकर मलिक मोहम्मद जायसी की अवधी और भिखारी ठाकुर, महेन्द्र मिश्र, उदय नारायण चौधरी की भोजपुरी से लेकर विद्यापति व हरिमोहन झा की मैथिलि तक सबका बंटाधार करवा लिया हम बिहारियों और यूपी वालों ने .
घर में चूहा सड़ के मर गया है वो नहीं सुंघाई देता
हमें लगा कि हम राष्ट्रभक्त हैं. ये कैसे राष्ट्रभक्त हैं जो मऊ, देवरिया, बनारस, कानपुर, लखनऊ, इटावा, पटना, आरा, दरभंगा की गन्दगी साफ़ नहीं करना चाहते लेकिन दिल्ली की शाहजहां रोड और अगस्त क्रांति मार्ग की चिंता हमें रहती है! बिहार और उत्तर प्रदेश वाले मोदी, केजरीवाल और राष्ट्रीय राजनीति पर खूब चर्चा करते हैं लेकिन अपने घर में चूहा सड़ के मर गया है वो नहीं सुंघाई देता है.
हिंदी पहले थोपाया और प्यार से थोपवाया, जैसे जीजाजी को छोटे-छोटे साले-सालियां होली में घेर लेते हैं तो जीजाजी भी पसीज जाते हैं और बोलते हैं अब लगा भी दो. बस तो वैसे ही मुस्कुराते जीजाजी की तरह हमने अपने ऊपर हिंदी मलवाई, थोपवाई और इतना कि दिनकर, रेणु, द्विवेदी, सांकृत्यायन, बेनीपुरी और पता नहीं कितने दर्जनों भर हिंदी में लिखने वाले भोजपुरिया, मैथिली और ब्रजभाषी साहित्यकार हार मान चुके थे और उन्हें ये विश्वास हो चुका था कि उनकी भाषा गंवारों की भाषा है. उनका असली रंग पता नहीं चला उन्हें.
गांधी जी कहते थे कि हिंदी हो, लेकिन अपनी किताबें वो गुजराती में लिखते थे. जो बिहारियों ने और उत्तर प्रदेश वालों ने किया वही बात पंजाबी, बंगाली, मराठी, गुजराती लोगों के साथ क्यों न हो पाई? अच्छा ये देखिएः-
पंजाबी – “त्वाड्डे वर्गा कोइ नी पूरे पिंड विच्च.”
भोजपुरी – “तहरा नीयन केहू नईखे पूरा गांव में.”
मराठी – “तुझ्या सारखं कोणीच नाही ह्या संपूर्ण गावात.”
हिंदी – “तुम्हारे जैसा कोई नहीं है पूरे गांव में.”
असमिया – “इ गाओत तुमार निसिना कोनो नाई.”
बांग्ला – “इ ग्रामे तोमार मोटो केउ नेई.”
गुजराती – “तमारे जेवो कोई नत्थी पूरा गाओं मा.”
मैथिली – “तोहर एहन पूरा गाम में क्यो नई छे.”अब इन सारी भाषाओं में सिर्फ भोजपुरी ही गंवार क्यों लगती है लगने वालों को? मुझे तो नहीं लग रही. सामंती विचारधारा और जातिवाद ने हमें बर्बाद किया. साहित्य को हम न ज्यादा गढ़ पाए, न हम पढ़ पाए, न इसमें बढ़ पाए. सवर्ण और संभ्रांत अपने बच्चों को दिनकर या शेक्सपीयर ही बताते रहे. धीरे-धीरे हमारे ऊपर हिंदी का कब्ज़ा हुआ और खेल ख़तम.
अब भोजपुरी वाले बचे कौन?
गरीब, रिक्शा वाले, सब्ज़ी वाले, छोटे-मोटे पान दुकान वाले, लफंदर लड़के, इसी तरह के कुछ लोग, बहुत कम पढ़े-लिखे युवा और कुछ बूढ़े पुरनिया बुजुर्ग लोग. जहां काम नहीं है और गरीबी है वहां सेक्स बेचना बड़ा आसान है. क्योंकि मनोरंजन का एक साधन बचता है जिसके लिए आपको कुछ ख़ास खर्च करने की जरूरत नहीं है. यहां पर तो पहले गाने वाले भी गरीब थे. मनोज तिवारी, निरहू, खेसारी, गुड्डू रंगीला - ये लोग किसी शास्त्रीय संगीत या सांस्कृतिक क्रान्ति से नहीं निकले थे. ये वही लोग थे जो पॉकेट से गरीबों को मानसिक स्तर पर और गरीब बनाने की तैयारी में थे.
“तानी सा जींस ढीला करा” से “हाफ पेंट वाली से” जैसे गानों से नसों को टाइट और गर्म करते रहे और पहले तो द्विअर्थी होते थे उसके बाद तो सब एकर्थी हो गया. अब भोजपुरी का राष्ट्रीय गीत है - "लॉलीपॉप लागेलू." जिसको सब भोजपुरिया लोगों को चुसनी के तौर पर दे दिया गया है. और इंटरनेशनल स्टार प्रियंका चोपड़ा को देखिए. मेरे लिए प्रियंका चोपड़ा अब एक अश्लील भोजपुरी फिल्म की प्रोड्यूसर से ज्यादा कुछ नहीं है. अरे आप इतनी बड़ी औरत हैं और आपकी फिल्म के ट्रेलर में आपने गाना डाला है “बोलेरो के चाभी से खोद देलन नाभी.”
https://www.youtube.com/watch?v=VG0diGNmRPs
मतलब आप जो महिला विमर्श करती हैं वो नाभि पर बोलेरो की चाभी से खोदने पर आकर कैसे सीमित हो गया? प्रियंका चोपड़ा ने लेकिन भोजपुरी भाषियों को उनकी औकात बता दी.
अनुराग कश्यप, प्रकाश झा डरे-सहमे रहे
पढ़े-लिखे कट चुके हैं भोजपुरी से. प्रकाश झा, अनुराग कश्यप और बहुत से दूसरे भोजपुरी क्षेत्र के लोग अपनी ही भाषा से डरे-सहमे रहे. उन्हें डर था कि कहीं वो ब्रांड ना हो जाएं “बिहारी” या “भईय्या” फिल्मकार की तरह. क्योंकि हम उत्तर प्रदेश और बिहार वालों को तो राष्ट्रीय होना है. राष्ट्रीय लेखक, राष्ट्रीय कवि, राष्ट्रीय नेता, राष्ट्रीय मिनिस्टर, राष्ट्रीय खिलाड़ी, राष्ट्रीय फिल्मकार वगैरह. लेकिन ये आज तक नहीं समझ पाए कि भारत के सारे राष्ट्रीय तो छोड़िए अंतरराष्ट्रीय फिल्मकार हिंदी से नहीं आते हैं. बिहारी फिल्मकार एक बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी में रहते हैं. उनको लगता है कि हिंदी में फिल्म बनाने से पहुंच बढ़ जाती है. लेकिन वो भूल जाते हैं कि वो भंसाली नहीं हैं, न ही उनकी फिल्म में कोई मेनस्ट्रीम एक्टर हैं.
हम ये नहीं कह रहे कि प्रकाश झा को अजय देवगन के साथ भोजपुरी फिल्म बनानी चाहिए थी लेकिन ये कैसी भुखमरी है कि आप मनोज बाजपेयी और उनके जैसे और भी खतरनाक टाइप प्रतिभाशाली लोगों के साथ एक भोजपुरी फिल्म नहीं बना पाए.
बहरहाल भोजपुरी के साथ ये हुआ कि एक तरह का वर्ग शिकार बनता रहा. भोजपुरी में दर्शक थोड़े ही हैं साहब. शिकार हैं. जैसे अफीम के होते हैं वैसे ही. “लहंगा उठा देब रिमोट” से लेकर “लॉलीपोप लागेलू” तक. ऐसा नहीं है कि दूसरी भाषाओं में ऐसा नहीं है. लेकिन यहां हालत ऐसी है कि भोजपुरी में गंदगी करवाने वाले कुछ धंधेबाज़ लोग हैं जो कहते हैं कि लोग जो मांगते हैं हम लोग वो बनाते हैं. लेकिन ये अपने घर के बच्चों को अमरीका, लंदन और मुंबई के बड़े कॉलेजों में पढ़ाते हैं, गरीबों की बुद्धि भ्रष्ट करके.
https://www.youtube.com/watch?v=FmVxz8FP6ns
लेकिन हम जानते हैं, मतलब मैं जानता हूं कि ये ठीक कैसे होगा. लेकिन ये सवाल सोचते चलिए कि ठीक करना जरूरी है क्या? अश्लील, फूहड़ रहने न दिया जाए? लेकिन शायद नहीं. अभी का भोजपुरी सिनेमा सिर्फ 10-15 प्रतिशत लोगों तक ही पहुंचा है. जो वर्ग भोजपुरी बोलता या समझता है, वो अभी भी इंतजार में है कि कुछ अच्छा आए. लेकिन पहले ये समझना होगा कि सिनेमा की जरूरत क्यों है?
सुधार करने के तरीके ये रहे
देखिए सिनेमा उतना ही जरूरी है जितना साहित्य. साहित्य क्या करता है समाज के लिए? साहित्य किसी भी व्यक्ति को समाज के इतिहास, सच-झूठ, नैतिकता या मौलिकता से जोड़ कर उसके मन मस्तिष्क पर असर करता है. साहित्य भूतकाल की कई छोटी-बड़ी बातों को बताता है जिस पर हम भविष्य निर्माण की नींव भी रखते हैं. अच्छा साहित्य हमें अच्छा इंसान बनाता है. सिनेमा क्या करता है? लगभग यही चीजें. तो ठीक करने के कुछ तरीके ये रहे और उसको छोड़ कर दूसरा कोई तरीका नहीं है. हम लेक्चर नहीं देना चाहते.
1. सबसे पहले भाषा को स्कूलों में अनिवार्य करो. बिहार और उत्तर प्रदेश में सरकारी, CBSE और ISCE जितने भी तरह के बोर्ड हैं वहां भाषाओं को optional कर दिया जाए. मने उत्तर प्रदेश में पढ़ने वाला बच्चा ब्रज, अवधी या भोजपुरी इनमें से कोई भी एक भाषा चुने. अगर एटा का बच्चा भोजपुरी पढ़ना चाहता है तो पढ़ सकता है. अगर आरा में बच्चा मैथिली पढ़ना चाहता है तो पढ़ सकता है. ऐसा स्कूल में होगा तब वो पीढ़ी खड़ी होगी. पहचान साहित्य को लेकर संवेदनशील होगी नहीं तो वही “लॉलीपोप लागेलू” पर नाचते रहना पड़ेगा.
2. जब ये होगा तो भाषा में साहित्य और टीचरों की जरूरत पड़ेगी. हज़ारों लोगों को नौकरी भी मिलेगी.
3. फिर खड़े होंगे नई कहानियां लिखने वाले, साहित्य लिखने वाले.
4. और फिर खड़ा हो जाएगा सिनेमा. आज का साहित्य, सिनेमा है. किताब बिरले ही 5 प्रतिशत लोग पढ़ रहे हैं. अच्छा लगे या बुरा, कहानियों की जरूरत समाज सिनेमा और टीवी सीरियल से पूरा कर रहा है और वहीं से करेगा.
मुंबई में लगातार किताब की दुकानें बंद हुई हैं. क्योंकि कहानी कोई पढ़ेगा या सुनेगा नहीं, अब कहानी लोग सिर्फ देखेंगे. जो अच्छी कहानी दिखाएगा उसकी अच्छी छवि बनेगी. सिनेमा समाज का आईना है तो आईना झूठ नहीं बोलता. भोजपुरी की फूहड़ता उसके संभ्रांतों की संवेदनहीनता दिखाती है.
भोजपुरी सिनेमा की स्थिति अब सिनेमाघरों से ठीक नहीं होगी क्योंकि इस देश में ऐसा कोई माई का लाल नहीं है जो भोजपुरी में साफ़ सुथरी फिल्म बनाने के लिए पैसे खर्च करेगा. भोजपुरी सिनेमा को सुधारने के लिए वर्तमान में तीन तरह के लोगों को बदलना होगा - देखने वाला (शिकार/दर्शक), बनाने वाला और परदे पर दिखाने वाला.
सिर्फ इंटरनेट से सुधरेगा भोजपुरी सिनेमा
भोजपुरी सिनेमा अगर सुधरा तो सिर्फ और सिर्फ इंटरनेट के माध्यम से सुधर सकता है. व्यक्तिगत सोच नहीं है बल्कि यही सच है, कोई चाहे तो आकर इस पर हमसे बहस करले.
विजुअल माध्यम को देखें तो भारत में नेटफ्लिक्स और अमेज़न प्राइम ने करोड़ों का निवेश किया है जहां पर सिर्फ इंटरनेट पर दिखाया जाने वाला कंटेंट बनाया जा रहा है. आज स्मार्टफोन ही आपका टीवी और धीरे-धीरे सिनेमाघर बनता जा रहा है. छोटी जगहों से लेकर शहरों तक जितना तेजी से इंसान “शहरी” बन रहा है, उतनी तेजी से शहरों का शहरीकरण नहीं हो रहा. गांव में लड़के ब्लूटूथ से गाने इधर से उधर कर रहे हैं. 3G से 4G हो रहा है. ऐसे में अपने श्रोता तक पहुंचना बहुत आसान हो गया है.
मुंबई में मैं ऐसे घरों को जानता हूं जहां टीवी नहीं हैं अब. अभी जितने भी टीवी चैनल हैं सबका अपना एप्प आ चुका है. दूसरी तरफ AIB और TVF जैसे अंग्रेजी-हिंदी इंटरनेट चैनलों ने लोगों के देखने का ढांचा बदल दिया है. भोजपुरी की सैकड़ों फिल्में यूट्यूब पर मौजूद हैं लेकिन वही फिल्में हैं जो सिनेमाघरों में गरीबों का मानसिक और बौद्धिक शोषण करने के बाद यूट्यूब पर फ्री में दिखाकर प्रचार से पैसा कमाती हैं.
दर्शक वही हैं यहां भी. लेकिन इंटरनेट लोकतांत्रिक माध्यम है. ये ऐसा सिनेमाघर है जहां एक साथ हज़ारों फिल्में लाखों लोग एक साथ देख सकते हैं. इसलिए हमने अपना चैनल
शुरू किया है और भोजपुरी, मैथिली, अवधी में वो काम कर रहे हैं जो कभी नहीं हुआ था.
मैथिली शॉर्ट फिल्म 'द सस्पैक्ट' का ट्रेलरःhttps://www.youtube.com/watch?v=H_AnjwOZ-CI
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