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भंवरलाल शर्मा: राजस्थान में जब भी सरकार पर खतरा होता है, तो यह नाम क्यों उछलता है?

24 साल पहले भैरों सिंह शेखावत सरकार गिराने की साजिश रचने का आरोप लगा था.

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राहुल गांधी के साथ भंवरलाल शर्मा की यह तस्वीर साल 2020 की है. दिलचस्प बात देखिए कि 6 साल पहले उन्होंने राहुल को 'जोकरों से घिरा नेता' कहा था.
साल 1996. दिसंबर का सर्द महीना. एक सूबे के मुख्यमंत्री अपनी बीमारी का इलाज कराने के लिए विदेश गए. कुछ दिन बाद ही पता चलता है कि उनकी सरकार पर खतरा मंडरा रहा है. एक आदमी, जो छह साल पहले सरकार बचाने में मददगार रहा था, वही आज कुर्सी छीनने की साजिश रच रहा है. मुख्यमंत्री का बहुत जरूरी ऑपरेशन था, लेकिन सरकार बचाने के लिए इलाज कैंसिल कर दिया. मुख्यमंत्री इलाज बीच में छोड़कर लौट आए. सरकार बचाई और कार्यकाल भी पूरा किया. मुख्यमंत्री का नाम था भैरों सिंह शेखावत. और जिस व्यक्ति ने सरकार गिराने की साजिश रची, उनका नाम था भंवर लाल शर्मा.
सियासी संकट= भंवरलाल शर्मा
आज भंवरलाल शर्मा का नाम फिर से चर्चा में है. 24 साल बाद एक बार फिर से सरकार गिराने की साजिश में उनका नाम लिया जा रहा है. राजस्थान की राजनीति में अभी अशोक गहलोत और सचिन पायलट सबसे बड़े कीवर्ड हैं. इनके अलावा भंवर लाल शर्मा, गजेंद्र सिंह शेखावत, विश्वेंद्र सिंह, रमेश मीणा, सतीश पूनिया जैसे नाम भी लगातार लिखे, बोले और छापे जा रहे हैं. इनमें से भंवरलाल शर्मा का किरदार सबसे दिलचस्प कहा जा सकता है. पिछले 30 साल में जब भी सरकार पर संकट आता है, तो इनका नाम जरूर आता है. तभी तो सीएम अशोक गहलोत की ओर से 16 जुलाई को जारी बयान में कहा गया कि एक व्यक्ति पांच बार सरकार गिराने की कोशिश कर चुका है और हर बार असफल रहा है. ऐसे में ये जानना दिलचस्प है कि आखिर कौन हैं भंवरलाल शर्मा?
भंवर लाल शर्मा साल 1985 में पहली बार विधायक बने थे. अब तक सात बार विधानसभा पहुंच चुके हैं.
भंवर लाल शर्मा साल 1985 में पहली बार विधायक बने थे. अब तक सात बार विधानसभा पहुंच चुके हैं.

दिग्गज को हराकर दिग्गज बने
चूरू जिले की एक विधानसभा सीट है सरदारशहर. भंवरलाल शर्मा यहीं से विधायक हैं. अब तक सात बार चुने जा चुके हैं. इस समय राजस्थान विधानसभा के सबसे उम्रदराज़ विधायक हैं. सबसे पहले 1985 में लोकदल के टिकट पर जीते थे. इससे पहले सरपंच, प्रधान भी रह चुके थे. विधायकी के अपने पहले चुनाव में चंदनमल बैद जैसे कद्दावर कांग्रेस नेता को हराया था. कहते हैं कि उस समय सरदारशहर सीट से बैद के सामने चुनाव लड़ने को उम्मीदवार नहीं मिलते थे. ऐसे में जनता दल के बड़े नेता दौलतराम सारण ने भंवरलाल को खड़ा होने को कहा था. और भंवरलाल ने चुनाव फतह कर लिया. तब से यह बात भंवरलाल शर्मा के लिए कही जाती है कि सरदारशहर में उनके सामने कोई टिकट लेना नहीं चाहता. हालांकि यहीं से वे दो बार हारे भी हैं.
शेखावत सरकार बचाई और पुरस्कार पाया
1989 में भी भंवरलाल शर्मा विधायक बन गए. इस बार जनता दल के टिकट पर. उनकी पार्टी राज्य में भैरों सिंह शेखावत सरकार की सहयोगी थी. एक साल बाद यानी 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के चलते शेखावत सरकार पर खतरा हो गया. जनता दल ने समर्थन वापस ले लिया. उसके 55 विधायक थे. ऐसे समय में टोंक जिले की उनियारा सीट से विधायक दिग्विजय सिंह ने शेखावत का साथ दिया. उन्होंने अपने 25 सहयोगियों के साथ जनता दल से नाता तोड़ लिया.
जनता दल (दिग्विजय) नाम से नई पार्टी बनाई और शेखावत सरकार को समर्थन दे दिया. दिग्विजय सिंह के 25 सहयोगियों में एक भंवरलाल शर्मा भी थे. शेखावत ने सहयोग का पुरस्कार मंत्री पद के रूप में दिया. और भंवरलाल शर्मा पहली और शायद आखिरी बार मंत्री बन गए. इसके बाद से वे कभी मंत्री नहीं बन पाए हैं.
दिग्विजय सिंह के साथ भैरों सिंह शेखावत.
दिग्विजय सिंह के साथ भैरों सिंह शेखावत.

बीमार मुख्यमंत्री के तख्तापलट की साजिश
अब बात आ जाती है वहां पर जहां से हमने कहानी शुरू की थी. यानी दिसंबर का महीना और साल 1996. उस समय भी भैरों सिंह शेखावत ने जोड़-तोड़ से ही सरकार बनाई. इसमें छह विधायक जनता दल के और 15 निर्दलीय थे. हार्ट के ऑपरेशन के लिए शेखावत को अमेरिका जाना पड़ा. उन्होंने कामकाज वरिष्ठ नेताओं को सौंप दिया.
वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ ने बताया कि ऐसे समय में भंवरलाल शर्मा ने सरकार गिराने की योजना बनाई. इसमें उन्होंने बीजेपी के कुछ विधायकों और निर्दलीय को साथ लिया. शर्मा के साथ निर्दलीय विधायक और सरकार में राज्यमंत्री शशि दत्ता भी थे. उन्होंने कांग्रेस से भी संपर्क किया. बारेठ बताते हैं,
उस समय अशोक गहलोत राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष थे. भंवरलाल शर्मा उनके पास गए. लेकिन गहलोत ने साफ मना कर दिया. उन्होंने कहा कि कोई आदमी जब बीमार हो, तो ऐसा करना ठीक नहीं है. इस तरह की साजिश में वे शामिल नहीं होंगे. यह नैतिकता के खिलाफ है. साथ ही पूरी तरह गलत भी है.
बारेठ ने बताया कि उस समय राजस्थान के राज्यपाल बलिराम भगत थे. उनके पास भी सरकार गिराने की खबरें गई, तो उन्होंने गहलोत से इस बारे में बात की. तो गहलोत ने साफ कह दिया था कि कांग्रेस इसमें शामिल नहीं होगी.
शेखावत बिना इलाज लौटे, सरकार बचाई
इधर, करौली से निर्दलीय विधायक रणजी मीणा ने सरकार गिराने की साजिश की बात भैरों सिंह शेखावत के दामाद नरपत सिंह राजवी तक पहुंचा दी. राजवी उस समय भैरों सिंह के साथ अमेरिका में ही थे. शेखावत को जैसे ही उन्होंने बताया, तो वे बिना इलाज कराए लौट आए. आकर उन्होंने सरकार बचा ली. कई लोगों ने उस समय शेखावत से भंवरलाल पर कार्रवाई करने को कहा. लेकिन शेखावत ने कुछ नहीं किया.
Bhairon Singh Shekhawat
राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे भैरो सिंह शेखावत को राजस्थान के लोग बाबोसा के नाम से जानते हैं. वो आगे चलकर देश के उपराष्ट्रपति बने.

शेखावत का तख्तापलट क्यों करना चाहते थे भंवरलाल?
'दैनिक भास्कर' की खबर के अनुसार, भंवरलाल 1993 के चुनाव में करौली जिले की राजाखेड़ा सीट से चुनाव लड़ना चाहते थे. भंवरलाल का कहना है कि भैरों सिंह ने उन्हें इसका वादा किया था. लेकिन बाद में टिकट किसी और को दे दिया गया. इसी के चलते उन्होंने बदला लेना चाहा.
बारेठ बताते हैं कि इसके बाद भी भंवरलाल ने कई बार सरकार को गिराने की कोशिश की. ये कोशिशें अंदरुनी स्तर पर थी. लेकिन कामयाबी नहीं मिली. अब वे एक बार फिर से सरकार गिराने की कोशिशों के आरोपों के घेरे में हैं.
क्या मंत्री पद के लिए साजिशें रचते हैं भंवरलाल?
जानकार कहते हैं कि भंवरलाल शर्मा का सपना मंत्री पद पाना था. लेकिन ऐसा नहीं होने पर वे अपनी ही सरकार के खिलाफ हो गए. चूरू के एक पत्रकार ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि शर्मा के मन में यह रंज है कि सात बार विधायक बनने पर भी उन्हें दोबारा मंत्री क्यों नहीं बनाया जा रहा? उनकी किसी पार्टी के प्रति वफादारी नहीं है. अभी उन्हें जो मंत्री बनाएगा, वे उसके साथ चले जाएंगे. वरिष्ठ पत्रकार नारायण बारेठ भी ऐसा ही मानते हैं. उनका कहना है कि अगर कल को बसपा कह दे कि वह उन्हें मंत्री बना देगी, तो वह उसके साथ चले जाएंगे. वे अपना फायदा देखकर काम करते हैं.
भंवर लाल शर्मा अभी तक एक बार मंत्री बन सके हैं. कहा जाता है कि यही रंज उन्हें सालता है.
भंवर लाल शर्मा अभी तक एक बार मंत्री बन सके हैं. कहा जाता है कि यही रंज उन्हें सालता है.

जिससे हारे, उसी की जीत के लिए काम किया
इसका एक उदाहरण एक स्थानीय पत्रकार ने बताया. उन्होंने कहा कि 1993 में कांग्रेस ने नरेंद्र बुडानिया ने भंवरलाल को विधानसभा चुनाव में हरा दिया. तीन साल बाद लोकसभा चुनाव आए. बुडानिया को चूरू से कांग्रेस ने उम्मीदवार बनाया. उनके सामने तत्कालीन सांसद और बीजेपी नेता राम सिंह कस्वां थे. सीट पर जाट, मुस्लिम और ब्राह्मण मतदाता काफी हैं. ब्राह्मण उस समय बीजेपी के साथ थे. ऐसे में भंवरलाल ने सरदारशहर फिर से जीतने के लिए बुडानिया से हाथ मिला लिया और खुद निर्दलीय खड़े हो गए. उन्हें 50-60 हजार के करीब वोट मिले, जो निर्णायक साबित हुए और बुडानिया जीत गए. फिर विधानसभा के उपचुनाव में बुडानिया से मदद लेकर फिर से विधायक बन गए.
साल 2014 में उन्होंने कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष राहुल गांधी को 'जोकरों से घिरा नेता' कह दिया था. तब उन्हें सस्पेंड किया गया था. वे अशोक गहलोत के करीबी कभी नहीं रहे. कहा जाता है कि पिछले विधानसभा चुनाव में गहलोत उन्हें टिकट देने के पक्ष में नहीं थे. लेकिन भंवरलाल शर्मा ने सचिन पायलट के कैंप में जगह बना ली. और फिर विधानसभा चुनाव का टिकट भी ले लिया.
जीते, तो पूरे शहर में लड्डू बंटवाए
भंवरलाल शर्मा अपने विधानसभा क्षेत्र में काफी लोकप्रिय हैं. यही वजह है कि साल 2013 में जब कांग्रेस महज़ 21 सीटों पर सिमट गई थी, तब भी भंवरलाल जीतकर आए थे. इस बारे में स्थानीय पत्रकार राजकुमार गौड़ ने बताया कि शर्मा किसी भी पार्टी के खिलाफ नहीं है. वे सबसे बनाकर रखते हैं. साथ ही स्थानीय लोगों के काम करने में तत्पर रहते हैं. जयपुर, बीकानेर में सरदारशहर के किसी व्यक्ति को मदद की दरकार होती है, तो वह भंवरलाल से ही संपर्क करता है. उनके दरवाजे हमेशा खुले रहते हैं. साल 2018 में जब वे चुनाव जीते थे, तो उन्होंने पूरे सरदारशहर में कई के लिए दो-दो किलो देसी घी के लड्डू बंटवाए थे.
अब देखना होगा कि नए सियासी संकट में भंवरलाल शर्मा का भविष्य होगा.

चलते-चलते

गहलोत जब पिछली बार साल 2008 में सीएम बने थे, तब भंवरी देवी कांड हुआ था. एक मंत्री और एक विधायक को जेल जाना पड़ा था. अब 2018 में फिर से सत्ता में आए हैं, तो भंवरलाल पर मुसीबत खड़ी करने का आरोप लग रहा है.
वैसे भंवर नाम की भी अपनी माया है. पानी में जब भी पड़ता है, तो उसकी चपेट में आने वाला बच नहीं पाता है. और रेतीली धरती कहे जाने वाले राजस्थान में 'भंवर' शब्द का अलग रुतबा है. राजपूतों में इसे राजतंत्र की एक उपाधि के रूप में अपनाया जाता है. जिसके दादा जिंदा होते हैं, उसके नाम के आगे भंवर लगता है. दादा की मौत होने पर वह कुंवर होता है. और पिता की मौत होने पर ठाकुर बन जाता है. बिना रियासत का, क्योंकि अब लोकतंत्र है.


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