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पाकिस्तानी तालिबान का पूरे पाक में कहर, अफ़गान तालिबान कैसे मदद कर रहा?

पाकिस्तान में हमले बढ़ाकर TTP को क्या मिल रहा है?

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पाकिस्तान में हमले बढ़ाकर TTP को क्या मिल रहा है?

आतंकवाद के ख़िलाफ़ काम करने वाले एक सेंटर को आतंकी चला रहे हैं. ये विडंबना पाकिस्तान में ही संभव है. ये हुआ है, पाकिस्तान के बन्नू में. तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) के लड़ाकों  ने 18 दिसंबर को काउंटर-टेररिज़्म डिपार्टमेंट (CTD) के एक ब्रांच पर क़ब्ज़ा कर लिया. इस दौरान उन्होंने एक पाक सैनिक की हत्या कर दी. सरकार ने उनके साथ  बातचीत शुरू की. जब बात नहीं बनी तो सेना को उतारा गया. सेना ने सर्च एंड किल ऑपरेशन चलाकर सेंटर को खाली करा लिया है.

हाल के दिनों में पाकिस्तान में सेना या सिविलियन को निशाना बनाने का ये पहला मामला नहीं था. पाकिस्तान में प्रतिबंधित TTP ने संघर्षविराम से अलग होने के बाद हमलों की संख्या बढ़ा दी है. पिछले तीन दिनों की बात करें तो पांच बड़े उदाहरण सामने आते हैं.

- 18 दिसंबर को बन्नू में CTD सेंटर पर क़ब्ज़ा. दो दिन बाद पाक सेना ने रेस्क्यू ऑपरेशन शुरू किया. ऑपरेशन में सेना ने सभी आतंकियों को मार गिराने का दावा किया. फिलहाल, आसपास के इलाकों में सर्च ऑपरेशन चलाया जा रहा है.

- 18 दिसंबर को लक्की मरवात में पुलिस थाने पर हमला हुआ. चार पुलिसवालों की हत्या. TTP ने ज़िम्मेदारी ली.

- 19 दिसंबर को मिरान शाह में आत्मघाती बम धमाका. एक सैनिक समेत तीन लोगों की मौत. किसी ने ज़िम्मेदारी नहीं ली.

- 19 दिसंबर को खुज़दार के एक मार्केट में दो बम धमाके हुए. इनमें 20 लोग घायल हो गए. संदेह के घेरे में TTP.

- 19 दिसंबर को ही पेशावर में इंटेलिजेंस ब्यूरो (IB) के एक सब-इंस्पेक्टर की हत्या कर दी गई. वो मार्केट से सामान खरीदकर अपने घर लौट रहे थे. हमले का संदेह TTP पर है.

TTP के आतंक का साया पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं रहा है. ये मसला अमेरिकी सत्ता-प्रतिष्ठान के केंद्र वाइट हाउस में उठा. TTP से निपटने की लड़ाई में अमेरिका ने मदद की पेशकश की है. वहीं दूसरी तरफ़, पाकिस्तान से एक टीम अफ़ग़ानिस्तान रवाना हुई है. ये टीम अफ़ग़ान तालिबान के साथ-साथ अफ़ग़ानिस्तान में मौजूद TTP की लीडरशिप से भी बातचीत करने वाली है. तो आइए समझते हैं-

- पाकिस्तान में हमले बढ़ाकर TTP को क्या मिल रहा है?
- इन हमलों के बीच पाकिस्तान सरकार क्या कर रही है?
- और, अमेरिका ने पाकिस्तान को मदद की पेशकश क्यों की?

TTP पाकिस्तान में मौजूद 40 से अधिक इस्लामी चरमपंथी संगठनों का समूह है. इसका बेस ख़ैबर-पख़्तूनख़्वाह (KP) में है. KP पाकिस्तान के चार प्रांतों में से एक है. इसकी राजधानी पेशावर है. KP की पूर्वी सीमा अफ़ग़ानिस्तान से लगती है. 2018 में फे़डरली एडमनिस्ट्रेटेड ट्राइबल एरियाज़ (FATA) को ख़ैबर-पख़्तूनख़्वाह में मिला दिया गया. उससे पहले FATA पाकिस्तान का हिस्सा तो था, लेकिन वहां पाकिस्तान के कानून लागू नहीं होते थे. इस इलाके पर अलग-अलग कबीलों का शासन हुआ करता था. इसकी सीमा भी अफ़ग़ानिस्तान से जुड़ी हुई थी. इस वजह से FATA अफ़ग़ानिस्तान में नेटो के ख़िलाफ़ ऑपरेट करने वाले आतंकी संगठनों की सुरक्षित पनाहगाह बन गया था.

अफ़ग़ानिस्तान में वॉर ऑन टेरर की शुरुआत से पहले कई छोटे-मोटे चरमपंथी गुट FATA में अकेले-अकेले काम कर रहे थे. ये अफ़ग़ान तालिबान को हर तरह की मदद दिया करते थे. वे आधिकारिक तौर पर उनका हिस्सा नहीं थे, लेकिन उनका मॉडस ऑपरेंडी एक सा ही था. फिर 9/11 का हमला हो गया. अमेरिका के नेतृत्व में नेटो सेनाओं ने अफ़ग़ानिस्तान में मिलिटरी ऑपरेशन शुरू किया. अफ़ग़ान तालिबान, अलक़ायदा और दूसरे चरमपंथी संगठन वहां से भागे. वे बॉर्डर क्रॉस करके FATA में घुसे. उस समय पाकिस्तान में परवेज़ मुशर्रफ़ का शासन चल रहा था. अमेरिका ने मुशर्रफ़ पर दबाव बनाया. पैसे भी दिए. कहा कि अपने यहां से आतंकियों को निकालो. तब इतिहास में पहली बार पाक सेना FATA में दाखिल हुई. इससे FATA में काम करने वाले गुटों को धक्का लगा. वहां की जनता भी सरकार से नाराज़ हुई. चरमपंथी संगठनों ने इस नाराज़गी को हवा दी. उन्होंने आम लोगों को लड़ने के लिए उकसाया. जो उनके साथ नहीं आए, उन्हें रास्ते से हटा दिया गया. इसके बाद इन गुटों ने आपस में मिलकर पाक आर्मी के ख़िलाफ़ मिलकर लड़ना शुरू किया.

ओसामा बिन लादेन 

इन गुटों के मूल में अफ़ग़ान तालिबान था. इसके बावजूद इन गुटों ने पाकिस्तानी तालिबान के रूप में अलग पहचान बनाई. इसकी दो बड़ी वजहें थी.
पहली, अफ़ग़ान तालिबान अफ़ग़ानिस्तान में नेटो सेनाओं के ख़िलाफ़ लड़ रहा था. उनके बीच बातचीत की कोई संभावना नज़र नहीं आ रही थी. वहीं, पाकिस्तानी तालिबान पाक आर्मी के साथ लड़ भी रहा था, दूसरी तरफ़ वे पाक सरकार के साथ बातचीत भी कर रहे थे. दोनों प्रोसेस समानांतर रूप से चल रहा था.

दूसरी वजह ये रही कि, पाकिस्तानी तालिबान का मकसद कुछ और था. वे पूरे पाकिस्तान में शरिया कानून की स्थापना करने के इरादे से काम कर रहे थे. उनका अंतिम लक्ष्य में पाकिस्तान में ख़िलाफ़त का राज लाना था. इस क्रम में पाकिस्तानी तालिबान ने कम से कम दो सौ कबीलाई नेताओं की हत्या भी की. वे ख़ुद को FATA का असली रहनुमा साबित करना चाहते थे.

धीरे-धीरे पाकिस्तानी तालिबान ने अपना दायरा बढ़ाना शुरू किया. वे FATA से निकलकर ख़ैबर-पख्तूनख़्वाह में दाखिल हुए और फिर राजधानी इस्लामाबाद तक पहुंच गए. इस्लामाबाद में उनका अड्डा लाल मस्जिद बनी. लाल मस्जिद 1965 में बनी थी. इसको सरकार का संरक्षण मिला हुआ था. मस्जिद पर पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI का वरदस्त भी था. इसी की बदौलत मस्जिद से कट्टर इस्लाम का ख़ूब प्रचार-प्रसार हुआ. 9/11 के हमले के बाद ये रिश्ता अचानक से बदल गया. मुशर्रफ़ ने अमेरिका से हाथ मिला लिया था. लाल मस्जिद के इमाम ने इसे इस्लाम के ख़िलाफ़ बताया. उसने फतवा जारी कर लोगों से FATA में पाक आर्मी के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए कहा.

2007 आते-आते रिश्तों के तार बेइंतहा खिंच चुके थे. लाल मस्जिद ने चार्टर जारी कर शरिया कानून लगा दिया. वे गुट बनाकर कट्टर इस्लामी नियमों का पालन कराते थे. उन्हें सरकार और संविधान से कोई मतलब नहीं था. उन्होंने धमकी दे रखी थी कि अगर हम पर कार्रवाई की तो बवाल कर देंगे.
जुलाई 2007 में इसकी इंतहा हो गई. जब उन्होंने तीन चीनी लड़कियों को किडनैप कर लिया. लाल मस्जिद का आरोप था कि ये लड़कियां देह-व्यापार करतीं है. मुशर्रफ़ पर चीन का दबाव पड़ा. पूरी दुनिया की नज़र इस्लामाबाद पर टिक गई. तब लाल मस्जिद पर सेना भेजी गई. हफ़्ते भर तक सेना चुपचाप देखती रही. इस बीच में ऑपरेशन को लीड कर रहे एक अफ़सर को गोली लग गई. उनकी मौत के बाद सरकार के सब्र का बांध टूट गया. 10 जुलाई को ऑपरेशन को हरी झंडी दिखा दी गई. इसके बाद सेना मस्जिद में घुस गई. दो दिन तक चले इस ऑपरेशन में लगभग एक सौ चरमपंथी मारे गए. 11 पाक सैनिकों की मौत भी हुई. इस तरह लाल मस्जिद को आज़ाद करा लिया गया.

लेकिन ये मामला यहीं पर शांत नहीं होने वाला था. एक ज़ख्म को कुरेद कर नासूर बना दिया गया था. लाल मस्जिद की घटना पर अलक़ायदा से लेकर इस्लामिक स्टेट तक ने अपने फायदे की रोटियां सेंकी. आतंकी संगठनों ने पाकिस्तान सरकार के ख़िलाफ़ जिहाद का ऐलान किया. अलग-अलग गुटों में बंटे पाकिस्तानी तालिबान ने साथ मिलने का फ़ैसला किया. फिर दिसंबर 2007 में पाकिस्तानी तालिबान के 40 नेताओं ने मिलकर TTP की स्थापना की. इसमें FATA के अलागा खै़बर के अलग-अलग इलाकों से आए नेता भी शामिल हुए. उन्होंने TTP के बैनर तले काम करने की शपथ खाई. बैतुल्लाह महसूद को TTP का पहला अमीर बनाया गया.

उमर खालिद खुरासानी (मिडिल), तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का टॉप कमांडर (फोटो-ट्विटर)

शुरुआती दौर में TTP के तीन मुख्य मकसद थे,

- नंबर एक. पूरे पाकिस्तान में शरिया कानून लागू करवाना,
- नंबर दो. अफ़ग़ानिस्तान में नेटो सेनाओं के ख़िलाफ़ जंग लड़ना,
- और नंबर तीन. पाकिस्तान आर्मी के ख़िलाफ़ जिहाद छेड़ना.

शुरुआत में पाक सरकार ने इसको बहुत गंभीरता से नहीं लिया. मगर TTP बहुत गंभीर थी. लाल मस्जिद के मदरसे में पढ़ने वाले 70 प्रतिशत से अधिक बच्चे FATA से थे. मस्जिद पर सेना की कार्रवाई के बाद वे अपने घरों को लौटे. उनमें से अधिकतर ने अफ़ग़ान तालिबान को जॉइन किया.

कुछ लड़के पाकिस्तानी तालिबान के लिए काम करने लगे. लाल मस्जिद की घटना के अगले एक साल में पाकिस्तान में कुल 88 बम धमाके हुए. इसमें 1,188 लोग मारे गए और तीन हज़ार से अधिक लोग घायल हुए. अगस्त 2008 में पाकिस्तान सरकार ने TTP पर बैन लगा दिया. उनके नेताओं से जुड़े अकाउंट्स और संपत्तियों को फ़्रीज़ कर दिया गया.

2009 की शुरुआत में तालिबान के संस्थापक मुल्ला उमर और अलक़ायदा के ओसामा बिन लादेन ने TTP के नेताओं से मुलाक़ात की. इस मुलाक़ात का नतीजा ये निकला कि दोनों तालिबान एकजुट होकर काम करेंगे. वे आपस में एक-दूसरे को सहयोग करते रहेंगे. उन्होंने एक शूरा भी बनाया. लेकिन ये ज़्यादा समय तक चला नहीं. TTP के अंदर कुर्सी को लेकर झगड़ा होने लगा. इसमें शामिल गुट अपने अनुसार काम करने लगे. TTP का मेन फ़ोकस पाकिस्तान पर था. लेकिन अमेरिका मानता था कि ये लोग अफ़ग़ान तालिबान और अलक़ायदा को शरण दे रहे हैं. उन्हें पाकिस्तान सरकार का सपोर्ट भी करना था. इसलिए, उन्होंने TTP के नेताओं पर ड्रोन हमले जारी रखे. अगस्त 2009 में बैतुल्लाह महसूद ऐसे ही एक ड्रोन अटैक में मारा गया.

महसूद की मौत के बाद TTP ने हमले बढ़ाने का दावा किया. उसने अमेरिका के शहरों को निशाना बनाने की धमकी भी दी. वे इसमें सफल हुए या नहीं, इसको लेकर पुष्ट जानकारी नहीं है. हालांकि, उन्होंने पाकिस्तान में हमले में कोई कसर नहीं छोड़ी. वे सिविलियन आबादी और मिलिटरी इंफ़्रास्ट्रक्चर पर अटैक करते रहे.

जुलाई 2014 में पाकिस्तान सरकार ने FATA में जज़्ब-ए-अर्ब नाम से पहला बड़ा मिलिटरी ऑपरेशन शुरू किया. उन्हें अमेरिका का भी सपोर्ट मिला. इस ऑपरेशन ने TTP को भारी नुकसान पहुंचाया. उन्हें FATA छोड़कर भागना पड़ा. कहा जाता है कि इस ऑपरेशन के बाद TTP की क्षमता 70 प्रतिशत तक घट गई थी. उनकी लीडरशिप छिन्न-भिन्न हो चुकी थी. इसके कारण पाकिस्तान में होने वाले आत्मघाती बम हमलों की संख्या भी घटी. फिर भी वे छिटपुट स्तर पर आतंक फैलाने में सफल थे. इसकी सबसे बड़ी वजह ये थी कि TTP के लड़ाकों को अफ़ग़ानिस्तान में सुरक्षित पनाह मिल रही थी. वॉर ऑन टेरर नेटो पर भारी पड़ने लगा था. अफ़ग़ान तालिबान उभर रहा था. और, दोनों देशों की सरकारों के बीच कई असहमतियां थीं.

जो हिस्सा पाकिस्तान में बचा रह गया था, उसको सिरे से मिटाने के लिए पाक आर्मी ने फरवरी 2017 में ऑपरेशन रद्द उल-फसाद चलाया. TTP के कई बड़े नेताओं को सरेंडर करना पड़ा. उनके पास आगे बढ़ने के लिए कोई आधार नहीं बचा था. इसके बावजूद वे अपने मकसद पर डटे रहे.

फिर 2019 का साल आया और सब बदलने लगा. उस समय अमेरिका के राष्ट्रपति रहे डोनाल्ड ट्रंप ने वॉर ऑन टेरर की समीक्षा शुरू की. ट्रंप ने तालिबान के साथ बैठकर रास्ता निकालने की कोशिश की. इसने TTP को उभरने का मौका दे दिया. अगस्त 2021 में अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान छोड़ दिया. काबुल की कुर्सी पर तालिबान की वापसी हुई. इसके साथ ही TTP को एक देश की सरकार का साथ मिल गया था.

इसके बाद TTP ने पाकिस्तान में फिर से हमले शुरू किए. सरकार ने उनके साथ बार-बार संघर्षविराम समझौते की कोशिश की. इन समझौतों में अफ़ग़ान तालिबान मध्यस्थ के तौर पर काम कर रहा था. पिछले कुछ समय में डूरंड लाइन पर फ़ेंसिंग के चक्कर में तालिबान और पाकिस्तान सरकार के बीच संघर्ष बढ़ा है. सिर्फ़ इसी महीने दो बार वेश-चमन बॉर्डर पर दोनों देशों के सैनिक भिड़ चुके हैं. बॉर्डर का झगड़ा सुलझाने के लिए पाकिस्तान सरकार ने 16 उलेमाओं और अधिकारियों की टीम काबुल भेजी है. कहा जा रहा है कि इस दौरान अफ़ग़ानिस्तान से ऑपरेट करने वाले चरमपंथी संगठनों पर भी बात होगी. इसमें TTP का नाम भी शामिल है.

TTP ने नवंबर 2022 में आख़िरी बार संघर्षविराम समझौता तोड़ा था. उसने अपने लड़ाकों को पूरे पाकिस्तान में हमले का आदेश भी दिया था. इसके बाद TTP के हमलों की संख्या अचानक से बढ़ गई. हाल के हमलों की सीरीज़ में बन्नू में CTD सेंटर पर हुआ अटैक सबसे ख़तरनाक था. 20 दिसंबर को पाक आर्मी ने दो घंटे तक ऑपरेशन चलाकर हमलावरों को मार गिराया. 

इससे पहले TTP ने इस हमले की भी ज़िम्मेदारी ली थी. उसके लड़ाकों ने सेंटर पर क़ब्ज़े के बाद कई वीडियोज़ रिलीज़ किए. इसमें उन्होंने पहले अफ़ग़ानिस्तान तक सेफ़ पैसेज देने की मांग की थी. बाद में उन्होंने अपनी मांग बदल ली. कहा कि हमें नॉर्थ वज़ीरिस्तान तक जाने दो. फिर हम कुछ नहीं करेंगे.
लेकिन इसपर बात आगे नहीं बढ़ पाई. आख़िरकार, पाक आर्मी को मैदान में उतरना पड़ा.

TTP के हमलों का मसला पाकिस्तान तक ही सीमित नहीं रहा है. 19 दिसंबर को अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता नेड प्राइस ने कहा कि हम पाकिस्तान की मदद के लिए तैयार हैं. हालांकि, उन्होंने ये नहीं बताया कि उनकी सरकार किस तरह से पाकिस्तान की मदद करेगी.

TTP की समस्या पाकिस्तान के लिए गले की हड्डी बनती जा रही है. उन्हें एक तरफ़ अफ़ग़ान तालिबान से रिश्ते सुधारने है, वहीं दूसरी तरफ़ उसके सहयोगी TTP पर भी लगाम कसनी है. घरेलू राजनीति से जूझ रही शहबाज़ शरीफ़ की सरकार को इस चुनौती से निपटने के लिए समस्या की जड़ में जाना होगा. अगर वे इस जड़ को नहीं तलाश पाए तो TTP का हाथ पाकिस्तान को भस्म करने के लिए काफ़ी है.

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