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हसीना-खालिदा की लड़ाई की कहानी, जो झोंटा नोचकर लड़ने से भी बदतर है

एक देश की प्रधानमंत्री रही ये महिलाएं लड़ाई में ऐसा करती हैं कि जानने वाले शर्मिंदा हो जाएं.

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तस्वीर में दाहिनी ओर हैं शेख हसीना. बाईं ओर हैं खालिदा जिया. बांग्लादेश की राजनीति को इन दोनों महिलाओं ने बंधक बना लिया है. दोनों के पास इनकी राजनैतिक विरासत का स्टैंप है. दोनों अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जाने में कोई हिचक नहीं दिखाती हैं.
मैं जल्द लौटूंगी. मेरे लिए रोने की कोई जरूरत नहीं. फिक्र मत करो और दिल को मजबूत करो.
रात-दिन मिलाकर चार पहर होते हैं. दिन के चार. रात के चार. 8 फरवरी, 2018. जुमेरात का दिन. एक पहर बीत चुका था. बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा जिया जल्दी में थीं. घर में दोस्त-रिश्तेदार जमा थे. मायूस से चेहरे लेकर. खालिदा ने उनकी रोनी सूरत देखी. जो कहा, वो लाइन ऊपर लिखी है. धीरज बंधाकर खालिदा कार में बैठ गईं. उन्हें अदालत पहुंचना था. उनका फैसला होना था वहां. एक करोड़ 62 लाख के घोटाले का इल्जाम था.
सजा खालिदा को सुनाई गई, कर्फ्यू ढाका में पसरा था ढाका की सड़कें बिल्कुल वीरान पड़ी थीं. लग रहा था कि कोई कर्फ्यू लगा है. स्कूल-दफ्तर बंद करवा दिए गए थे. प्रशासन ने सख्त तैयारी की थी. आशंका थी कि खालिदा के खिलाफ फैसला आने पर हिंसा हो सकती है. सड़कों पर सेना और सुरक्षा बल के जवान भरे हुए थे. फैसला आया. खालिदा को पांच साल जेल की सजा मिली. उनके बेटे को 10 साल की सजा हुई.
खालिदा जिया अपनी सजा को राजनैतिक कार्रवाई बता रही हैं. बांग्लादेश में न्यायपालिका की आजादी का हाल भी ठीक नहीं है. उनकी और शेख हसीना के बीच जो रंजिश है, वो अलग है. शायद इन्हीं वजहों को ध्यान में रखकर पश्चिमी देशों ने हसीना से अपील की थी कि वो निष्पक्ष कार्रवाई सुनिश्चित करें.
खालिदा जिया अपनी सजा को राजनैतिक कार्रवाई बता रही हैं. बांग्लादेश में न्यायपालिका की आजादी का हाल भी ठीक नहीं है. उनकी और शेख हसीना के बीच जो रंजिश है, वो अलग है. तभी पश्चिमी देशों ने हसीना से अपील की थी कि वो निष्पक्ष कार्रवाई सुनिश्चित करें.

दुश्मन नंबर वन जब खालिदा पर फैसला आया, तो दुनिया की नजरें शिफ्ट हो गईं. फोकस में थी एक सफेद इमारत. बांग्लादेश की सबसे मशहूर इमारत. नाम है- गणभवन. यहीं पर रहती हैं शेख हसीना. बांग्लादेश की प्रधानमंत्री. बंगबंधु शेख मुजीबुर्रहमान की बेटी. और खालिदा जिया की दुश्मन नंबर वन. लोग कहते हैं कि उन्होंने सालों से इन दोनों औरतों को एक-दूसरे संग बात करते देखा नहीं. कभी कोई दुआ-सलाम नहीं. रस्म निभाने के लिए भी नहीं. करेंगी भी कैसे? जब राजनीति का आधार विरासत हो, तो म्यान में एक ही तलवार की जगह बचती है. या तो हसीना. या तो खालिदा.
खालिदा की पार्टी है- बांग्लादेश नैशनलिस्ट पार्टी. छोटे में BNP हसीना की पार्टी है- बांग्लादेश आवामी लीग. शॉर्ट में BAL
शेख हसीना और खालिदा जिया: जैसे सांप और नेवले का बैर इन दोनों औरतों की दुश्मनी एक इतिहास है. जैसे- दूध और नींबू का बैर. सांप और नेवले का बैर. वैसे ही हसीना और खालिदा का बैर है. बांग्लादेश में लोग कहते हैं. कि हमारे यहां बाढ़ आती है. तूफान-चक्रवात आते हैं. गरीबी है. ये सब है, मगर इस सबसे बुरा है हसीना और खालिदा का झगड़ा. लोग तो ये भी कहते हैं कि अगर बांग्लादेश को खालिदा और हसीना न मिलतीं, तो ये देश ज्यादा तरक्की करता. कि इनकी दुश्मनी ने देश को ज्यादा गरीब, ज्यादा भ्रष्ट बनाया है.
पिता शेख मुजीर्बुरहमान के साथ हसीना. जिस वक्त शेख साहब की हत्या हुई, उस समय हसीना जर्मनी में थीं.
पिता शेख मुजीबुर्रहमान के साथ हसीना. जिस वक्त शेख साहब की हत्या हुई, उस समय हसीना जर्मनी में थीं.

हसीना ने कहा: जैसा किया, वैसा भुगता पिछले तीन दशकों से चली आ रही है इनकी लड़ाई. जैसे एक जमाने में ढाका का मलमल मशहूर था, वैसे ही अब इन 'दो बेगमों' की दुश्मनी के किस्से छनते हैं. तो जब खालिदा पर फैसला आया, तो शक के कांटे ने हसीना की ओर इशारा किया. राजनीति में आपका अपने विरोधी के साथ भले ही कितना भी छत्तीस का आंकड़ा क्यों न हो, आप अपनी खुन्नस जाहिर नहीं करते. मगर हसीना और खालिदा की दुश्मनी में इस औपचारिकता की जगह भी नहीं. तभी तो हसीना ने दो-टूक कहा:
उनके साथ जो हो रहा है, उनके पुराने कर्मों की वजह से हो रहा है.
इरशाद के जाने के बाद खालिदा और हसीना का साथ रहना उनकी राजनीति के हिसाब से बनता नहीं था. दोनों को अपना-अपना हासिल करना था. 1991 में खालिदा बांग्लादेश की पहली महिला प्रधानमंत्री बन गईं. पांच साल बाद सत्ता हसीना के पास आ गई.
इरशाद के जाने के बाद खालिदा और हसीना का साथ रहना उनकी राजनीति के हिसाब से बनता नहीं था. दोनों को अपना-अपना हासिल करना था. 1991 में खालिदा बांग्लादेश की पहली महिला प्रधानमंत्री बन गईं. पांच साल बाद सत्ता हसीना के पास आ गई.

कभी दोस्ती भी हुई थी दोनों के बीच ऐसा नहीं कि इनके बीच कभी दोस्ती नहीं रही. कहते हैं कि जिन लोगों का दुश्मन एक होता है, वो करीब आ जाते हैं. तो जब जियाउर रहमान राष्ट्रपति बने, तो उन्होंने इरशाद को सेना की बागडोर सौंपी. फिर जिया की हत्या हो गई. मगर इरशाद ने नए राष्ट्रपति अब्दुस सत्तार के लिए वफादारी बनाए रखी. फिर वो वक्त भी आया जब इरशाद ने तख्तापलट किया. तानाशाह बन गए. एहसानुद्दीन चौधरी को अपना राष्ट्रपति बनाया. फिर एक साल बाद खुद राष्ट्रपति बन गए. राष्ट्रपति नाम के थे, असल में तानाशाह ही थे. तब बांग्लादेश में जैसे मार्शल लॉ चलता था.
खालिदा और हसीना, दोनों को अपने परिवार की राजनीति आगे ले जानी थी. उनके पास विरोध की वजह थी. ये ही विरोध दोनों को साथ भी लाया. सारे विरोध भुलाकर दोनों ने हाथ मिलाया. इनका साझा विरोध इतना मजबूत था कि इरशाद को इस्तीफा देना पड़ा. मगर फिर इनके रास्ते बंट गए. अपनी-अपनी राजनीति करनी थी न दोनों को. साथ कैसे रहते? फिर 1991 में खालिदा जिया बांग्लादेश की पहली महिला PM बनीं. पांच साल बाद 1996 में सत्ता आई हसीना के पास. उसके बाद से ऐसा ही होता रहा. सत्ता इनके बीच झूलती रही.
वसीयत-विरासत इन दो बेगमों की लड़ाई के सेंटर में एक शब्द खास है- वसीयत. आप इसको विरासत भी पढ़ सकते हैं. दोनों को लगता है कि बांग्लादेश उनका है. इस लगने के पीछे है एक लंबी लकीर है. जो आपने कभी बोगनवेलिया की बेल देखी हो, तो इसे समझ लेंगे. बोगनवेलिया बेल जब घनी हो जाती है, तो उसके साथ कई और लत्तियां पैदा होती हैं. उसके साथ मिल जाती हैं. फिर भले ही ऑरिजनल वाली लत्ती सूख जाए, बाकी लत्तियां उसकी जगह बढ़ती रहती हैं. देखने वाले को लगता ही नहीं कि कोई लत्ती कभी मरी थी. हसीना और खालिदा भी मेन लत्ती के साथ नत्थी हुईं लत्तियां हैं. हसीना शेख मुजीबुर्रहमान की बेल हैं. उनकी बेटी. खालिदा हैं जियाउर रहमान की बेल. उनकी विधवा. दोनों का दावा है कि बांग्लादेश पर उनका हक दूसरे से ज्यादा है. दावा इसलिए भी है कि मुजीबुर्रहमान और जियाउर, दोनों को बेमौत मारा गया था. उनकी हत्या हुई थी.
पति जियाउर रहमान के साथ तस्वीर में हैं खालिदा जिया. शेख मुजीर्बुरहमान की हत्या के बाद जिया का कद बढ़ा और दो साल के भीतर ही वो राष्ट्रपति बन गए.
पति जियाउर रहमान के साथ तस्वीर में हैं खालिदा जिया. शेख मुजीबुर्रहमान की हत्या के बाद जिया का कद बढ़ा. वो सेना प्रमुख बना दिए गए. फिर दो साल के भीतर ही राष्ट्रपति भी बन गए. हसीना इल्जाम लगाती हैं कि शेख साहब की हत्या की साजिश में जिया भी शामिल थे.

तब बहुत शर्मीली, छुइमुई टाइप थीं खालिदा मगर जब शेख साहब और जिया जिंदा थे, तब ये दोनों कहां थीं? अपने घरों में. परिवार संभाल रही थीं. खालिदा के बारे में तो लोग कहते हैं कि जब उनके पति जिंदा थे, तब उन्हें बाजार जाने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी. यहां तक कि कभी बैंक भी जाने की नौबत नहीं आई. बहुत शर्मीली थीं खालिदा. एकदम छुइमुई टाइप. पति और दो बेटे, ये ही थी उनकी दुनिया. जिया जिंदा रहते, तो उन्होंने कभी राजनीति में पांव न रखा होता.
हसीना कॉलेज में छात्र राजनीति करती थीं और हसीना? उनके शौहर थे न्यूक्लियर साइंटिस्ट डॉक्टर वाजिद मिया. हसीना ढाका यूनिवर्सिटी में पढ़ती थीं और छात्र राजनीति करती थीं. मुजीबुर्रहमान की बेटी थीं. राजनीति के साथ हथेली और हाथ जैसा रिश्ता था. पिछले तीन दशकों से बांग्लादेश की राजनीति लट्टू की मानिंद इन दोनों के इर्द-गिर्द चक्कर खा रही है.
सेक्युलर हैं शेख हसीना, बिल्कुल अपने अब्बा की तरह हसीना और खालिदा के बीच एक बात तो ये अतीत है. दूसरी बात है, नजरिया. हसीना अपने पिता की ही तरह सेक्युलर हैं. मुजीबुर्रहमान ने एक ऐसे बांग्लादेश का सपना देखा था, जो पाकिस्तान जैसा न हो. धर्मांध न हो. जहां राजनीति अलग हो और धर्म अलग. जहां सारे धर्मों की बराबर जगह हो.
इंदिरा गांधी के साथ हैं जियाउर रहमान और खालिदा जिया. खालिदा हमेशा से भारत-विरोधी रही हैं. वहीं उनकी विरोधी शेख हसीना भारत की दोस्त मानी जाती हैं. बल्कि हसीना की तो आदर्श भी इंदिरा गांधी हैं.
इंदिरा गांधी के साथ हैं जियाउर रहमान और खालिदा जिया. खालिदा हमेशा से भारत-विरोधी रही हैं. वहीं उनकी विरोधी शेख हसीना भारत की दोस्त मानी जाती हैं. बल्कि हसीना की तो आदर्श भी इंदिरा गांधी हैं.

खालिदा कट्टर हैं, एकदम अपने पति की तरह दूसरी तरफ खालिदा हैं. कट्टर इस्लामिक. बिल्कुल अपने पति की तरह. जियाउर रहमान जब राष्ट्रपति बने, तब बांग्लादेश में धर्म के आधार पर बनी राजनैतिक पार्टियों का कोई स्कोप नहीं था. बैन था उनपर. जिया ने वो बैन खत्म कर दिया. बांग्लादेश आज जिस स्थिति में है, उसकी जड़ शायद वहीं से पनपनी शुरू हुई थी. वो खालिदा ही हैं, जिनके ऊपर इस्लामिक कट्टरपंथियों को खाद-पानी देने का इल्जाम है. इल्जाम झूठा हो, ऐसी बात भी नहीं. आखिरकार 'जमात-ए-इस्लामी' नाम के कट्टरपंथी आतंकवादी संगठन की सहयोगी वो ही तो हैं. ये वो संगठन है, जिसने बांग्लादेश की आजादी का विरोध किया था. 1971 में जब पाकिस्तानी सेना बांग्लादेशियों को मार-काट रही थी, तब जमात उनके साथ था. इसने भी खूब हिंसा की. सैकड़ों को कत्ल किया.
इनका झगड़ा अब बांग्लादेश की किस्मत बन गया है इन दोनों बातों- वसीयत (विरासत) और नजरिये के बीच बाद वाली बात ज्यादा हावी है. क्योंकि ये नजरिया बस खालिदा और हसीना के बीच का मुकाबला नहीं है. ये बांग्लादेश की पहचान, उसकी हस्ती का सवाल हो गया है. इस सवाल का मायना बांग्लादेश के होने या न होने का है. बांग्लादेश कैसा हो? सेक्युलर हो. या इस्लामिक हो. ये सवाल बांग्लादेश को बांट रहा है. देश तोड़ रहा है.
बांग्लादेश का कहना है कि 1971 की लड़ाई में मारे गए बंगालियों की संख्या करीब 30 लाख थी. ये तस्वीर उसी वक्त की है. इस लड़ाई का केंद्र था ढाका. वहां जमकर हुआ नरसंहार (फोटो: mujibnagar website)
बांग्लादेश का कहना है कि 1971 की लड़ाई में मारे गए बंगालियों की संख्या करीब 30 लाख थी. ये तस्वीर उसी वक्त की है. इस लड़ाई का केंद्र था ढाका. वहां जमकर हुआ नरसंहार (फोटो: www.mujibnagar.com)

कट्टरपंथियों को खालिदा से खाद-पानी मिलता है बीते कुछ साल याद कीजिए. आपने बांग्लादेश का जिक्र कब सुना है? हत्या! आतंकवादी घटना! कट्टरपंथ! मॉब लिंचिंग! हेट क्राइम! नहीं, आपकी याद्दाश्त में कोई दिक्कत नहीं. ये ही सच है. जिन लोगों पर बांग्लादेश को इस हाल में पहुंचाने का इल्जाम है, खालिदा उनकी साइड हैं. और शेख हसीना की मुश्किल ये है कि कहीं न कहीं कट्टरपंथियों से निपटने की आखिरी उम्मीद उनसे ही है. और इसीलिए कई ऐसे लोग जो लोकतंत्र में तानाशाही की मिलावट के खिलाफ रहते हैं, वो भी 'तानाशाह आदतों वाली' शेख हसीना से ही आस लगाते हैं. आप उनसे वजह पूछें, तो शायद ये जवाब मिलेगा:
जब आपका मुकाबला कट्टरपंथियों से हो और देश का वजूद दांव पर लगा हो, तो आप क्या करेंगे? जैसे भी हो, जो भी हो, बचाने की कोशिश करेंगे.
पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल ए के नियाजी भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने समर्पण के कागजों पर दस्तखत करते हुए. ये ऐतिहासिक तस्वीर है.
पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल ए के नियाजी भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने समर्पण के कागजों पर दस्तखत करते हुए. ये ऐतिहासिक तस्वीर है.

इनके झगड़े से बांग्लादेश बोर हो गया है इस तर्क को पचाना या न पचाना, पूरी तरह से आपके ऊपर है. मगर एक बात याद रखिए. कि बांग्लादेश में जम्हूरियत है. लोकतंत्र. शासन का ऐसा सिस्टम जहां सत्ता और विपक्ष दोनों के लिए जगह होती है. मगर बांग्लादेश में ऐसा नहीं है. न तो दोनों बड़ी पार्टियों के बीच कोई तालमेल है. न उनमें कभी किसी मसले पर ठीक से बात ही हो सकती है. हसीना और खालिदा के रिश्तों का कच्चा-चिट्ठा हम बता ही चुके हैं. इस चश्मे से बांग्लादेश का लोकतंत्र कमजोर दिखता है. और जब लोकतंत्र के अंदर लोकतंत्र कमजोर पड़ जाए, तो उल्टी गिनती शुरू हो जाती है. जिस जनता को सरोकार होना चाहिए, वो बोर हो चुकी होती है. और जो दिलचस्पी लेते हैं, उन्हें लोकतंत्र से कोई लेना-देना नहीं होता. जैसे कट्टरपंथी. जो बांग्लादेश को भी पाकिस्तान जैसा बनाना चाहते हैं. इस्लामिक कट्टरपंथी देश.
आगे बढ़ने से पहले आपको खालिदा और हसीना की दुश्मनी की कुछ छोटी-छोटी तस्वीरें दिखाते हैं:
1. अगस्त 2001. अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बांग्लादेश पहुंचे. नैशनल डेमोक्रेटिक इंस्टिट्यूट फॉर इंटरनैशनल अफेयर्स की टीम के साथ. इस दौरे में एक वो वक्त भी आया, जब खालिदा और हसीना आमने-सामने खड़ी थीं. बीच में थे जिमी कार्टर. जिमी ने दोनों की बांह पकड़ी. और एक-दूसरे के हाथ में थमाने की कोशिश की. वो चाहते थे कि खालिदा और हसीना हाथ मिला लें. वैसे ही जैसे दोस्त मिलाते हैं. बहुत कोशिश की उन्होंने. मगर कामयाब नहीं हुए. खालिदा और हसीना टस से मस नहीं हुईं. ये इकलौता मौका नहीं था जब अमेरिका ने इन दोनों के बीच की दुश्मनी खत्म कराने की कोशिश की हो. यूरोप ने भी बहुत ट्राय किया. मगर खालिदा और हसीना कभी बात करने को भी राजी नहीं हुईं. मानो उन्होंने ठान रखी हो. कि जब तक जान है, दुश्मनी भी बनी रहेगी.
ये पाकिस्तानी सेना के सरेंडर का कागज है. इंदिरा गांधी और भारतीय सेना के बिना बांग्लादेश की आजादी मुमकिन नहीं थी.
ये पाकिस्तानी सेना के सरेंडर का कागज है. ये सरेंडर पाकिस्तान के इतिहास का सबसे कमजोर और शर्मनाक पल था.

2. खालिदा की 10वीं के सर्टिफिकेट में उनके पैदा होने की तारीख है 9 अगस्त. शादी के सर्टिफिकेट में उनकी पैदाइश का दिन है 5 सितंबर. उनके पहले पासपोर्ट में बर्थडे है 19 अगस्त. अलग-अलग जगह पर अलग-अलग तारीखें. मगर एक साल उनके दिल में आया कि अपना जन्मदिन 15 अगस्त को मनाएं. बड़ा सा केक मंगवाया गया. केक कटा, सबमें बंटा. खालिदा के पास एक भी ऐसा कागजात नहीं है, जो 15 अगस्त की इस तारीख को साबित कर पाए. तो फिर क्या वजह रही होगी इस दिन पर दावा करने की? एक क्लू देते हैं आपको. हसीना के पिता शेख मुजीबुर्रहमान थे न. उनको और उनके परिवार को जिस दिन कत्ल किया गया, वो तारीख थी- 15 अगस्त, 1975. हर साल बांग्लादेश इस दिन को अपना राष्ट्रीय शोक मनाता है.
3.  जनवरी 2015 की बात है. खालिदा जिया के सबसे छोटे बेटे अराफात रहमान कोको का इंतकाल हो गया. कोको मलयेशिया में थे, जब उन्हें दिल का दौरा आया. दुख जताने वालों में प्रधानमंत्री शेख हसीना का भी नाम था. हसीना शोक जताने खालिदा के यहां पहुंचीं. मगर उन्हें दरवाजे से ही लौटा दिया गया. घर में घुसने तक नहीं दिया गया. हसीना करीब पांच मिनट तक दरवाजे पर खड़ी रहीं. अंदर से जवाब आया- खालिदा दवा खाकर सो रही हैं. आप चली जाइए.
शेख हसीना सेक्युलर हैं. ये ही उनकी राजनीति भी है. खालिदा का झुकाव इस्लामिक राजनीति की ओर है. कट्टरपंथी हैं.
शेख हसीना सेक्युलर हैं. ये ही उनकी राजनीति भी है. खालिदा का झुकाव इस्लामिक राजनीति की ओर है. कट्टरपंथी हैं.

4. ऐसी दांत कटी दुश्मनी के बीच जब हसीना ने 2013 में खालिदा को फोन किया, तो खबर बन गई. करीब 37 मिनट तक बात हुई दोनों की. किसने क्या कहा, किसने फोन किया, किसने क्या जवाब दिया, इसका पूरा रिकॉर्ड जारी हुआ. बात तो बंगाली में हुई, लेकिन हम आपको उसके कुछ हिस्से नीचे बता रहे हैं. अपनी जबान में.
हसीना: मैंने दोपहर के करीब आपको फोन किया था. आपने उठाया नहीं. खालिदा: ये सही नहीं है. हसीना: मैं आपको बताना चाहती हूं कि... खालिदा: आपको पहले मेरी बात सुननी होगी. आपने कहा कि आपने मुझे फोन किया था, लेकिन जिस वक्त की आप बात कर रही हैं, तब मेरे पास कोई फोन नहीं आया. हसीना: मैंने आपके रेड फोन पर कॉल किया था. खालिदा: मेरा वो रेड फोन सालों से बंद पड़ा है. आप सरकार चलाती हैं. आपको पता होना चाहिए. और अगर फोन करने की सोच ही रही थीं, तो आपको कल ही कुछ लोग भेजकर वो फोन ठीक करवा देना चाहिए था. वो भी देख लेते कि फोन काम कर रहा है कि नहीं. हसीना: रेड फोन हमेशा काम करते हैं. खालिदा: अपने लोगों को भेजिए यहां और पता लगवा लीजिए कि फोन काम कर रहा है कि नहीं. हसीना: आप खुद भी प्रधानमंत्री थीं. आपको भी पता है कि रेड फोन हमेशा काम करते हैं. खालिदा: हमेशा काम करते हैं? पर मेरा वाला फोन बंद है. हसीना: वो बिल्कुल ठीक काम कर रहा है. कम से कम जब मैंने फोन किया, तब तो काम कर ही रहा था. खालिदा: बंद पड़ा फोन एकाएक ठीक कैसे हो गया? क्या आपका कॉल इतनी ताकत रखता है कि मेरे मुर्दा पड़े फोन में जिंदगी फूंक दे.
और भी बातें हुईं. कुछ और लाइन्स पढ़ लीजिए:
खालिदा: आपने 21 अगस्त को हुए हमलों की साजिश रची. कोई भी आपको नहीं मारना चाहता था. आप जितने दिन रहेंगी, हमारे लिए उतना ही अच्छा है. हसीना: जब आप 15 अगस्त को केक काटती हैं... खालिदा: उस दिन मेरा जन्मदिन आता है. मैं केक तो काटूंगी ही. हसीना: जब आप बंगबंधु (शेख मुजीबुर्रहमान) के हत्यारों को शह देती हैं और 15 अगस्त को केक काटती हैं... खालिदा: इस तरह बात मत करो. क्या बांग्लादेश के अंदर कोई भी इंसान 15 अगस्त को पैदा नहीं हो सकता है?
शेख हसीना पर तानाशाही के आरोप लगते हैं. उनके शासन में लोकतंत्रीय संस्थाओं की आजादी कम हुई है. आरोप फिर खालिदा पर भी है. कि जब वो सत्ता में थीं, तब उनके बेटे ताहिर के इशारों पर जमकर क्रूरता की गई. दोनों के ही शासन में विपक्ष के लिए कोई स्कोप नहीं बचता.
हसीना पर तानाशाही के आरोप लगते हैं. उनके शासन में लोकतंत्रीय संस्थाओं की आजादी कम हुई है. आरोप फिर खालिदा पर भी है. कि जब वो सत्ता में थीं, तब उनके बेटे ताहिर के इशारों पर जमकर क्रूरता की गई. दोनों के ही शासन में विपक्ष के लिए कोई स्कोप नहीं बचता.

5. आवामी लीग कहती है कि शेख मुजीबुर्रहमान को सेना के जिन अफसरों ने मारा, उनका ताल्लुक जियाउर रहमान के साथ था. उधर खालिदा और उनके समर्थक कहते हैं कि जिया की हत्या के पीछे आवामी लीग का हाथ है. झगड़ा इतना ही नहीं. हसीना कहती हैं कि उनके पिता शेख मुजीबुर्रहमान ने बांग्लादेश की आजादी के लिए जितना किया, उसकी जगह कोई नहीं ले सकता. खालिदा का कहना है कि हसीना और उनकी पार्टी जियाउर रहमान के किए को हमेशा से नजरंदाज करते आए हैं.
बांग्लादेश में हावी हो रहे कट्टरपंथ की जड़ें तलाशो, तो जियाउर रहमान का भी जिक्र होगा. वो ही थे जिन्होंने धर्म के आधार पर बनी राजनैतिक पार्टियों के ऊपर लगे प्रतिबंध को खत्म किया था.
बांग्लादेश में हावी हो रहे कट्टरपंथ की जड़ें तलाशो, तो जियाउर रहमान का भी जिक्र होगा. वो ही थे जिन्होंने धर्म के आधार पर बनी राजनैतिक पार्टियों के ऊपर लगे प्रतिबंध को खत्म किया था.

6. बांग्लादेश की सत्ता और विपक्ष का एक पैटर्न है. जब हसीना जीतती हैं, तब खालिदा चीटिंग का इल्जाम लगाती हैं. जब खालिदा जीतती हैं, तब हसीना कहती हैं कि चुनाव में धांधली हुई है.
खालिदा ने पिछला चुनाव नहीं लड़ा था बांग्लादेश में पिछला आम चुनाव 2013 में हुआ था. खालिदा को बड़ी शिकायतें थीं. उन्होंने विरोध का ऐलान करते हुए कहा कि उनकी पार्टी चुनाव नहीं लड़ेगी. इसका फायदा हुआ हसीना को. पांच साल मिल गए उन्हें. अब इस बार खालिदा बिल्कुल तैयार थीं चुनाव के लिए. उन्हें जीतने की उम्मीद थी. चुनाव दिसंबर तक होना है. मगर चुनाव से पहले ही ये कोर्ट का फैसला आ गया है. अब न खालिदा इलेक्शन लड़ सकती हैं और न उनका बेटा तारिक रहमान. तारिक वैसे भी लंदन में हैं. उन्हें भी 10 साल की सजा सुनाई गई है.
खालिदा के जाने से फायदा तो हसीना का ही है तो क्या ये अदालत का फैसला भी खालिदा और हसीना की दुश्मनी का एक पन्ना है? इसका जवाब है, शायद हां. इससे सबसे ज्यादा फायदा तो हसीना को ही होता दिख रहा है. लोग कह रहे हैं कि अगर आज की तारीख में चुनाव हो जाए, तो हसीना हार जाएंगी. अब जबकि लोगों के पास कोई और विकल्प नहीं होगा, तो फायदा किसको मिलेगा? सोच लीजिए. रॉकेट साइंस नहीं है ये.
 ये तस्वीर 1971 की है. पाकिस्तानी सेना के जवान मुक्तिवाहिनी के लड़ाकों को पीट रही है (फोटो: Mujibnagar website)
ये तस्वीर 1971 की है. पाकिस्तानी सेना के जवान मुक्तिवाहिनी के लड़ाकों को पीट रही है (फोटो: www.mujibnagar.com)

दिक्कत दोनों में ही है बात रही बांग्लादेश की. तो हसीना और खालिदा दोनों की ही नीतियों में दिक्कत है. शेख हसीना काफी तानाशाह हैं. विरोधियों के साथ सख्ती बरतने में कोई सीमा नहीं रखतीं. इल्जाम लगता है कि उनके शासन में न मीडिया आजाद है और न ही अदालतें ही आजाद हैं. लोकतंत्र में जब ऐसी नौबत आती है, तो सरकार की साख भी गिर जाती है.
खालिदा की दिक्कत है कट्टरपंथ दूसरी तरफ खालिदा हैं. उनकी दिक्कत है इस्लामिक कट्टरपंथ. 'जमात-ए-इस्लामी' हिंसक है. फिर भी खालिदा ने उससे परहेज नहीं किया. बढ़ती कट्टरता के कारण बांग्लादेश में गैर-मुसलमानों का जीना मुश्किल हो गया है. वो निशाना बनाए जा रहे हैं. सेक्युलरों को मारा जा रहा है. अल्पसंख्यकों के लिए मुल्क दिनोदिन और खतरनाक होता जा रहा है. कभी कोई प्रफेसर, कभी ब्लॉगर, कभी पुजारी, कभी विदेशी यात्री, कभी शिया, कभी समलैंगिक. ऐसे माहौल बनाने में काफी हाथ खालिदा का भी है. वो पाकिस्तान-परस्त हैं. इस्लाम-परस्त हैं. उनके भारत विरोध का एक बड़ा आधार ये भावनाएं भी हैं. जानते हैं इस दुश्मनी की सबसे बुरी बात क्या है. कि दोनों ही पक्ष अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जाने से परहेज नहीं करते. फिर चाहे हिंसा ही क्यों न करनी पड़े.
ये लड़ाई राजनैतिक विरासत की भी है. चाहे हसीना हों या फिर खालिदा, या उनकी अगली पीढ़ी, हर कोई खानदानी राजनीति ही तो कर रहा है.
ये लड़ाई राजनैतिक विरासत की भी है. चाहे हसीना हों या फिर खालिदा, या उनकी अगली पीढ़ी, हर कोई खानदानी राजनीति ही तो कर रहा है.

किसका पलड़ा भारी है हमने इन दोनों बेगमों की लड़ाई बताई. उनकी कमियां भी बताई. इसके बावजूद अगर आप कहें कि हम उन्हें तराजू पर तौलें, तो हम कहेंगे कि खालिदा का पलड़ा कमजोर है. कट्टरपंथियों को दी जाने वाली शह किसी भी मुल्क को बहुत भारी पड़ती है. और मुल्क कोई कागज पर बना नक्शा तो होता नहीं. मुल्क बनता है लोगों से. उसकी आबादी से. जाहिर है, वो ही भुगतते हैं.


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