फिल्म इनकार का एक सीन में चित्रांगदा और अर्जुन रामपाल.
ये स्टोरी वेबसाइट डेली ओ के लिए अंग्शुकांता चक्रवर्ती ने लिखी थी. हम इसे वेबसाइट की इजाज़त से ट्रांसलेट कर आपको पढ़वा रहे हैं.
द वायरल फीवर, टीवीएफ के संस्थापक अरुणाभ कुमार पर कथित रुप से शारीरिक शोषण का आरोप लगा है. ये आरोप उन्हीं की सहकर्मी ने उन पर लगाया है. जैसे ही उनका नाम कथित शारीरिक शोषण में आया, तब से डिजिटल मीडिया में खलबली मची हुई है. जहां एक तरफ उन पर एक के बाद एक आरोप लग रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ उन्होंने एक बयान देकर सबको चौंका दिया है. अरुणाभ ने अपने बचाव में कहा है कि, “जब मैं किसी सेक्सी महिला से मिलता हूं तो मैं उसे सेक्सी कह देता हूं, और इसमें कोई बुराई नहीं है.”

इस आरोप के एक दिन बाद ही अरुणाभ ने "मुबंई मिरर" को इंटरव्यू दिया. अरुणाभ पर 24 साल की महिला ने ब्लॉग के जरिए पोस्ट लिखकर आरोप लगाया है. उन्होंने इंडियन फॉउलर के नाम से एक पोस्ट किया है. देखते हैं कि वो कौन से पांच कारण हैं जिनकी वजह से अरुणाभ कुमार का बचाव कमजोर पड़ता दिखाई दे रहा है:
पहली बात तो "सेक्सी" होने के कारण महिलाएं ऑफिस में मौजूद नहीं हैं. वो मौजूद हैं तो बस अपनी मेहनत से क्योंकि वो अच्छी तरह से काम करती हैं. अगर हम महिलाओं और पुरुषों की बात करें तो महिलाएं उनके मुकाबले ज्यादा मेहनत करती हैं. वहीं
दूसरी तरफ़ लड़कों को आमतौर पर काफी कॉम्प्लिमेंट दिए जाते हैं. जैसे तुम स्मार्ट लग रहे हो, वो काफी प्रोफेशनल है, वो हमेशा काम के लिए तैयार रहता है. वहीं महिलाओं के लिए कॉम्पलिमेंट के तौर पर “लुकिंग सेक्सी” जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाता है.

औरतों के काम का मूल्यांकन उनके स्तनों के साइज़, स्कर्ट की लम्बाई और लिपस्टिक के रंग के साथ जोड़ दिया गया है. जबकि जिस तरह का काम वो कर रही है, जैसे कॉमेडी के लिए स्क्रिप्ट्स लिखना, मीडिया हाउस के लिए लेख लिखना और टीवी प्रोग्राम के लिए ग्राफ़िक्स करना, ये सभी काम दूर-दूर तक उनके शारीरिक सौंदर्य के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखते. इस तरह की मानसिकता को बिल्कुल स्वीकारा नहीं जा सकता. दूसरी बात ये है कि इस तरीके के शब्द जैसे "आज तुम बहुत सेक्सी लग रही हो" एक आधुनिक दफ्तर का हिस्सा नहीं होना चाहिए. इस तरह कि बातें अक्सर वो लोग करते हैं जो ऊंचे पोस्ट पर और बड़ी उम्र के लोग होते हैं. वहीं उन्हें सुनने वाली एक कम उम्र की इंटर्न होती है या फिर जूनियर पोस्ट पर काम करने वाली महिला. ऑफिस में काम करने वाली महिलाओं से ये अपेक्षा की जाती है कि अगर उन्हें अपनी नौकरी से प्यार है तो उन्हें इन शब्दों का आदी होना पड़ेगा. सीनियर पोस्ट पर और बड़ी उम्र की महिलाएं आए दिन इस तरह की शर्मनाक हरकतें अपनी आंखों से देखकर उसे नज़रअंदाज कर देती हैं. सीनियर पोस्ट पर बैठे मर्द इस तरह की बातों को सिरियसली नहीं लेते. वो ये मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि ऐसी बातें सेक्शुअल हैरेसमेंट में नहीं आती हैं. अगर हम सेक्शुअल हैरेसमेंट और छेड़छाड़ जैसे संगीन आरोपों को कुछ देर के लिए अलग रखते हैं. और ठंडे दिमाग से ये सोचने की कोशिश करते हैं कि 'औरतों को सेक्सी कहने में कोई बुराई नहीं है?' मर्दों ने ऐसा सोचना कब से शुरू किया होगा? अमेरिकन टीवी सीरियल मैडमैन में ये दिखाया गया है कि 1960 में किस तरह जूनियर पोजीशन में काम कर रही महिला को एक सेक्शुलाइज्ड प्रॉप की तरह इस्तेमाल किया जाता था. ऐसा उन्हीं दफ्तरों में पाया जाता था जहां पर आदमी बॉस हुआ करते थे.

एक बात समझ से बाहर है कि “लुकिंग सेक्सी” उनके “स्टार्ट-अप” वेबसाइट के “अबाउट-अस” में क्या कर रहा है? “लुकिंग सेक्सी” का जिम्मा खाली महिलाओं पर ही क्यों थोपा गया है. वहीं आदमी (बॉस ,एम्प्लायर) केवल कमेंट करने को अपना हक़ समझता है जबकि महिला का सेक्सी दिखने से उसके काम से कोई लेना देना नहीं है. सेक्सिनेस जैसी सोच को ऑफिस में लाना कहीं से भी लिबरल या ब्रॉड माइंडेड सोच नहीं है. औरतों को ऑफिस में खाली एक सेक्सी बॉडी की तरह देखा जाता है जिसका काम सिर्फ मर्दों को रिझाना है. उनकी कार्यक्षमता पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता.
चौथी बात “यू आर लुकिंग सेक्सी टुडे” कहकर ऑफिस के माहौल को टेंशन फ्री नहीं बनाया जा सकता. जो आदमी अपने आप को खुली सोच वाले समझते हैं, वो ऐसे कमेंट को हैरेसमेंट नहीं बल्कि प्रोत्साहन समझते हैं. वो सोचते हैं कि ऐसे कमेंट कर वो महिला कर्मियों को काम के प्रति प्रोत्साहित कर रहे हैं. बिल क्लिंटन हों या फिर तरुण तेजपाल, डॉनल्ड ट्रम्प हों या फिर आर के पचौरी, ये वही लोग हैं जो महिलाओं के लिए हक़ की बात करते थे. उनके लिए बराबरी के नारे लगाते थे. लेकिन इन सभी का नाम महिलाओं से छेड़छाड़ करने में आया है. लेकिन, अगर हम रेप के आंकड़ों की बात करें तो वो हमें सोचने पर मजबूर कर देते हैं. कड़े कानून के बावजूद 70 प्रतिशत महिलाएं सेक्शुअल हैरेसमेंट की रिपोर्ट दर्ज ही नहीं कराती हैं. उन्हें डर होता है कि ऐसा करने से उनकी नौकरी जा सकती है. फिक्की ईवाई नवंबर 2015 की रिपोर्ट कहती है कि लगभग 36 प्रतिशत भारतीय कम्पनियां और 25 प्रतिशत मल्टीनेशनल कम्पनियां सेक्शुअल हैरेसमेंट एक्ट 2013 का पालन नहीं कर रही हैं. सेक्शुअल हैरेसमेंट के केस सीधे-सीधे फंडामेंटल राइट्स का उल्लंघन करते हैं. संविधान की धारायें 14 और 15 महिलाओं को बराबरी का हक़ देती हैं. वहीं धारा 21 उसे सम्मान से ज़िन्दगी जीने का अधिकार देती है. वो कोई भी काम, बिज़नेस चुन सकती हैं. उन्हें एक सुरक्षित वातावरण में काम करने का पूरा अधिकार है. इन मापदंडों को पूरे विश्व ने मानव अधिकार के रूप में माना है. क्योंकि अरुणाभ कुमार ने महिलाओं को सेक्शुअल हैरेसमेंट का शिकार बनाने के लिए और अभद्र भाषा का प्रयोग करने के लिए अपने ब्रांड का इस्तेमाल किया है. इसलिए वह और भी दोषी पाए जाते हैं. ये एक बहुत ही शर्मनाक बात है. जो लोग इस वक्त अरुणाभ की निंदा में लगे हैं उन्हें भी अपने आप को आईने में देखने की जरुरत है.
दी लल्लनटॉप के लिए ये ट्रांसलेशन गौरव कुमार झा ने किया हैं.
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